Tuesday, August 28, 2012

सतावन की कथा - वीरो की गाथा....


सतावन की कथा - वीरो की गाथा.... _________________________ सतावन की कथा सुनाऊं, सुनियो सजनो ध्यान लगाय राजे और सामंत लड़े थे, जिनके तख्त-ताज खो जाएं| लड़े किसान, मजदूर लड़े थे, अपने सारे भेद मिटाय हुनरमंद कारीगर लड़ गए, जान की बाजी दई लगाय| दुनिया थी जिसके कदमों में, सिक्का अपना रहे चलाय यूं कहते थे राज में जिनके, सूरज कभी ड़ूबता नाय| उसी फिरंगी राज को देखो, नाकों चने दिए चबवाय उन वीरों की कथा सुनाऊं, सुनियो सज्जनो ध्यान लगाय| पहले सुमरूं मातृभूमि को, वीरों को लूं शीश नवाय रानी झांसी और तात्यां, सतावन के वीर कहाएं| नाना साहब पेशवा थे और बेगम हजरत महल बताएं नाहर सिंह और कुवंर सिंह थे, बड़े लड़ाके रहे बताए| रेवाड़ी का राव बड़ा लड़ाका, तुलेराम था नाम कहाय कोमल नारि अजीजन ने भी, अपनी पलटन लई बनाय| बाबर रांघड़, मुनीर बेग और जैन हुकमचंद रहे बताय वीर अनेकों शहीद हुए यूं, किस किस के दूं नाम गिनाए| जनता और राजे-रजवाडों ने कंधे से कंधे लिए मिलाय मिलकर टूट पड़े बैरी पर, पंचो सुनियो ध्यान लगाय| चिंगारी फूटी मेरठ में लपटें पहुंची दिल्ली आय बागी फौज पंहुच गई दिल्ली किले पे ड़ेरा दिया लगाय| मार भगाया अंग्रेजों को, धरती सुर्ख लाल हो जाए आजादी आई थी फिर से अब था खौफ किसे का नाय| अवध कानपुर झांसी सब पर झंड़ा अपना ही लहराय| यह था हाल देश का सज्ज्नो जिसको पढके मूड उठि जाय। सतावन की कथा सुनाऊं, सुनियो सजनो ध्यान लगाय वीरों की गाथा मैं गाऊं, सुनियो सज्जनो ध्यान लगाय| ..................................... संकलकर्ता - गोपाल कृष्ण शुक्ल

Monday, August 27, 2012

स्वास्तिक का महत्व : by अथातो धर्म जिज्ञासा FB page


· अथातो धर्म जिज्ञासा स्वास्तिक का महत्व _________________ स्वास्तिक अत्यन्त प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति में मंगल-प्रतीक माना जाता रहा है। इसीलिए किसी भी शुभ कार्य को करने से पहले स्वस्तिक चिह्व अंकित करके उसका पूजन किया जाता है। स्वस्तिक शब्द सु+अस+क से बना है। ‘सु’ का अर्थ अच्छा, ‘अस’ का अर्थ ‘सत्ता’ या ‘अस्तित्व’ और ‘क’ का अर्थ ‘कर्त्ता’ या करने वाले से है। इस प्रकार ’स्वास्तिक’ शब्द का अर्थ हुआ ‘अच्छा’ या ‘मंगल’ करने वाला। स्वस्तिक में एक दूसरे को काटती हुई दो सीधी रेखाएँ होती हैं, जो आगे चलकर मुड़ जाती हैं। इसके बाद भी ये रेखाएँ अपने सिरों पर थोड़ी और आगे की तरफ मुड़ी होती हैं। स्वस्तिक की यह आकृति दो प्रकार की हो सकती है। प्रथम स्वस्तिक, जिसमें रेखाएँ आगे की ओर इंगित करती हुई हमारे दायीं ओर मुड़ती हैं। इसे ‘स्वस्तिक’ (卐) कहते हैं। दूसरी आकृति में रेखाएँ पीछे की ओर संकेत करती हुई हमारे बायीं ओर मुड़ती हैं। इसे ‘वामावर्त स्वस्तिक’ (卍) कहते हैं। जर्मनी के हिटलर के ध्वज में यही ‘वामावर्त स्वस्तिक’ अंकित था। स्वास्तिक को चित्र के रूप में भी बनाया जाता है और लिखा भी जाता है जैसे "स्वास्ति न इन्द्र:" आदि. स्वास्तिक भारतीयों में चाहे वे वैदिक हो या सनातनी हो या जैनी ,ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य ... शूद्र सभी मांगलिक कार्यों जैसे विवाह आदि संस्कार घर के अन्दर कोई भी मांगलिक कार्य होने पर "ऊँ" और स्वातिक का दोनो का अथवा एक एक का प्रयोग किया जाता है। हिन्दू समाज में किसी भी शुभ संस्कार में स्वास्तिक का अलग अलग तरीके से प्रयोग किया जाता है, बच्चे का पहली बार जब मुंडन संस्कार किया जाता है तो स्वास्तिक को बुआ के द्वारा बच्चे के सिर पर हल्दी रोली मक्खन को मिलाकर बनाया जाता है, स्वास्तिक को सिर के ऊपर बनाने का अर्थ माना जाता है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों का योगात्मक रूप सिर पर हमेशा प्रभावी रहे, स्वास्तिक के अन्दर चारों भागों के अन्दर बिन्दु लगाने का मतलब होता है कि व्यक्ति का दिमाग केन्द्रित रहे, चारों तरफ़ भटके नही, वृहद रूप में स्वास्तिक की भुजा का फ़ैलाव सम्बन्धित दिशा से सम्पूर्ण एनर्जी को एकत्रित करने के बाद बिन्दु की तरफ़ इकट्ठा करने से भी माना जाता है, स्वास्तिक का केन्द्र जहाँ चारों भुजायें एक साथ काटती है, उसे सिर के बिलकुल बीच में चुना जाता है, बीच का स्थान बच्चे के सिर में परखने के लिये जहाँ हड्डी विहीन हिस्सा होता है और एक तरह से ब्रह्मरंध के रूप में उम्र की प्राथमिक अवस्था में उपस्थित होता है और वयस्क होने पर वह हड्डी से ढक जाता है, के स्थान पर बनाया जाता है। स्वास्तिक संस्कृत भाषा का अव्यय पद है, पाणिनीय व्याकरण के अनुसार इसे वैयाकरण कौमुदी में ५४ वें क्रम पर अव्यय पदों में गिनाया गया है। यह स्वास्तिक पद ’सु’ उपसर्ग तथा ’अस्ति’ अव्यय (क्रम ६१) के संयोग से बना है, इसलिये ’सु+अस्ति=स्वास्ति’ इसमें ’इकोयणचि’ सूत्र से उकार के स्थान में वकार हुआ है। ’स्वास्ति’ में भी ’अस्ति’ को अव्यय माना गया है और ’स्वास्ति’ अव्यय पद का अर्थ ’कल्याण’ ’मंगल’ ’शुभ’ आदि के रूप में प्रयोग किया जाता है। जब स्वास्ति में ’क’ प्रत्यय का समावेश हो जाता है तो वह कारक का रूप धारण कर लेता है और उसे ’स्वास्तिक’ का नाम दे दिया जाता है। स्वास्तिक का निशान भारत के अलावा विश्व में अन्य देशों में भी प्रयोग में लाया जाता है, जर्मन देश में इसे राजकीय चिन्ह से शोभायमान किया गया है, अन्ग्रेजी के क्रास में भी स्वास्तिक का बदला हुआ रूप मिलता है, हिटलर का यह फ़ौज का निशान था, कहा जाता है कि वह इसे अपनी वर्दी पर दोनो तरफ़ बैज के रूप में प्रयोग करता था, लेकिन उसके अंत के समय भूल से बर्दी के बेज में उसे टेलर ने उल्टा लगा दिया था, जितना शुभ अर्थ सीधे स्वास्तिक का लगाया जाता है, उससे भी अधिक उल्टे स्वास्तिक का अनर्थ भी माना जाता है। स्वास्तिक की भुजाओं का प्रयोग अन्दर की तरफ़ गोलाई में लाने पर वह सौम्य माना जाता है, बाहर की तरफ़ नुकीले हथियार के रूप में करने पर वह रक्षक के रूप में माना जाता है। काला स्वास्तिक श्मशानी शक्तियों को बस में करने के लिये किया जाता है, लाल स्वास्तिक का प्रयोग शरीर की सुरक्षा के साथ भौतिक सुरक्षा के प्रति भी माना जाता है, डाक्टरों ने भी स्वास्तिक का प्रयोग आदि काल से किया है, लेकिन वहां सौम्यता और दिशा निर्देश नही होता है। केवल धन (+) का निशान ही मिलता है। पीले रंग का स्वास्तिक धर्म के मामलों में और संस्कार के मामलों में किया जाता है, विभिन्न रंगों का प्रयोग विभिन्न कारणों के लिये किया जाता है। स्वास्तिक के चारो और सर्वाधिक पॉजीटिव ऊर्जा पाई गई है दूसरे। अधिक पाजिटिव इनर्जी की वजह से स्वास्तिक किसी भी तरह का वास्तुदोष तुरंत समाप्त कर देता है!

Saturday, August 25, 2012

आखिर सरल बने कैसे ? " by - Swami Mrigendra Saraswati ( FB page अथातो धर्म जिज्ञासा )


आखिर सरल बने कैसे ? " by - Swami Mrigendra Saraswati ( FB page अथातो धर्म जिज्ञासा ) सरलता ही तो मेरे भाई बडी कठिन है। कैसी विचित्र बात है कि सरल बनना बड़ा कठिन है। इसका कारण है कि जटिलता में प्रदर्शन है और अहम् अपनी अभिव्यक्ति के लिए प्रदर्शन चाहता है। इसलिए व्यक्ति जटिलता को चुनता है। पहाड़ों पर चढ़ता है, बने हुए रिकार्डो को तोड़ता है और फिर गर्व की मुस्कान फेंखता है कि उसने सबके रिकार्ड तोड़ दिये हैं, फिर वह रिकार्ड पर्वत शिखर आरोहण में टूटे या अधिक चीखने चिल्लाने में। किसी भी तरह व्यक्ति का अहम् प्रतिष्ठित होना चाहिए और विडम्बना यह है कि हम अपनी भावी पीढ़ियों को रिकार्ड तोड़ने की प्रेरणा देते हैं। जटिल बनने की प्रेरणा अपनी भावी पीढ़ियों को देते हैं। जो जटिलताएँ हम नहीं बना सकते, वे अपने बच्चों में मूर्त करके देखना चाहते हैं, इसलिए कहते हैं कि कुछ विशेष करो, जो किसी ने नहीं किया हो, ताकि तुम्हारा और हमारा नाम हो। एक खेल दिखाने वाला नट रस्सी पर चलता है। यह जटिलता है। इसलिए सब उसे उत्सुकता से देखते हैं। पर जानते है कि अस्तित्वहीन क्रिया है, अभ्यास का फल मात्र है, किन्तु ऐसे ही जटिलताओं के द्वारा विशिष्टता का प्रदर्शन क्या किसी सार्थकता का बोधक है? परन्तु यह संसार है। अहम् को तुष्ट करने के लिए व्यक्ति निरर्थक जटिलताओं के पीछे भागता है, जब कि ऋजुता के पीछे स्वयं भगवान् हैं, किन्तु व्यक्ति ऋजुता को खोकर जटिल बनाता है क्योंकि इससे अहम् सन्तुष्ट होता है, पक्का होता है और वह अहम् ही प्रभु मिलन में बाधक है। इसलिए योगेश्वर श्री वासुदेव कृष्ण ने श्री गीताजी मेँ "ऋजुता" का संदेश दिया है। सरलता अहंकार को जलाती है "मेरे भगवन्।" सरलता से ही हम ईश्वरको प्राप्त किया जा सकता है। सरलता आपके जीवन का मूल स्वरूप है। सरल होने की साधना कठिन तभी तक है, जब तक हम जटिलता की ओर बढ़ रहे है। जटिलता की ओर बढ़ना छोड़ दें। सरलता आपको अंगीकार करेगी। सरल बनने के लिए कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी आपको। जटिलता में साहस नहीं है, सरलता में ही साहस है। खूब विचार करेंगे। जटिलता में साहस इसलिए नहीं है कि वह व्यक्ति का स्वभाव बन चुका है, झूठ बोलने, हिंसा करने, धोखा देने में साहस नहीं चाहिए क्योकि वे स्वभाव बन गये हैं। इसके विपरीत सत्य बोलने, ईमानदार होने, प्रमाणिक होने में साहस और संकल्प चाहिए क्योंकि यह धारा के विपरीत चलता है। यानी सरल होना कठिन हो गया है। इसलिए आज जब कोई व्यक्ति किसी के हजारों रुपये से भरी अटैची कहीं पाकर उसे लौटा देता है तो वह अखबारों में समाचार बन जाता है और ईमानदारी अभिनन्दनीय बन जाती है, जब कि यही सरलता है, इसमें कुछ करना ही नहीं है, बस जैसे है, वैसा ही रह जाना है। सरल बनना इसलिए जटिल लगता है कि क्योंकि अभ्यास नहीं है, लेकिन जब हम सरल बनने का अभ्यास कर लेते हैं तो यह बड़ा आनन्ददायक हो जाता है, तब सरल होनेमें जो सुख है, वह उल्लास से भर देता है। तब जटिल होने में बड़ा कष्ट होता है। तब अपने विरुद्ध असत्य बोलने, हिंसा किये जाने, कटु बोलने जैसी बातोँ के प्रतिकार में भी यह जटिलता सध नहीं पाती। सरलता जीवन का वरदान बन जाती है, जीवन का अभिन्न अंग बन जाती है। तो क्यों न हम - आप सरलता की ओर बढ़ें। सरलता की ओर आपके बड़ते चरणों को प्रणाम है । प्रणाम है । बारम्बार प्रणाम है। श्री नारायण हरिः

Friday, August 24, 2012

महापुरुषों की जन्मपत्रिकाओं के दर्शन से बड़ा ही पूण्य मिलता है । By Swami Mrigendra Saraswati ji


महापुरुषों की जन्मपत्रिकाओं के दर्शन से बड़ा ही पूण्य मिलता है । मित्रों । हम श्रीभगवान् भाष्यकार आचार्यशङ्कर के दिव्य मानुष विग्रह का जन्मपत्रिका प्रस्तुत कर रहा हूँ दर्शन करके लाभ लेगें । “ शंकर देशिक “ – अष्टवर्षे चतुर्वेदी द्वादशोखिलशास्त्रवित् । सर्वलोकख्यातशीलः प्रस्थानत्रयभाष्यकृत् ।। पद्मपादादिसच्छिषयः पाखण्डध्वान्तभास्करः । अद्वैतस्थापनाचार्यः द्वैतमत्तेभकेसरी ।। व्यासनन्दितसिद्धान्तः वादनिर्जितमण्डनः । षडमतस्थापनाचार्यः षड्गुणैश्वर्यमण्डितः ।। सर्वलोकानुग्रहकृत् सर्वज्ञत्वादिभूषणः । श्रुतिस्मृतिपुराणज्ञः श्रुत्येकशरणप्रियः ।। सशान्तभक्तहृत्तापः सामरस्यफलप्रदः । सन्यासकुलपद्मार्कः संविन्मकलेवरः ।। साक्षाच्छ्रीदक्षिणामूर्तिः शङ्कराख्यो जगद्गुरुः । सन्तनोतु दृढां निष्ठां अद्वैताऽध्वनि नः सदा ।। जय जय शङ्कर ! हर हर शङ्कर ! जयतात् शङ्करगुरुपरम्परा ! श्री नारायण हरिः !

Wednesday, August 22, 2012

Planatery Position & Vaastu : Penned by Sri Sanjiv Ranjan Misra


Planetary position at the time of birth compels the individual to behave and act in particular manner and to dwell in particular type of vastu .Similar type of vastu often gives different type of result to different individual. That is why we cannot categorically and statistically say that people leaving in south and west facing building do not flourish and people leaving in north east facing always flourish and are affluent .EVERY VASTU HAS CERTAIN POSITIVE AND NEGATIVE ASPECT certain compensating factors are operating in every vastu. Remember that vastu is seen in totality not in isolation.Vastu is corrective part of Vedic Astrology. Your horoscope reveals your vastu proper correction of vastu is in itself a remedy of planetary affliction in a chart. I will site one combination and their result Moon + rahu moon [direction north-west] rahu [garbage, smell, darkness and smoky] North West area is dark, not properly kept and with less air flow. Or Moon [water] + rahu[ south west direction] leads to water in south west /quality of water is bad both these condition leads to mental and physical problem trouble to mother etc rectification to that area results in remedy to planet concerned .Every planetary combination indicates certain specific Vastu which can easily be verified seeing the vastu. Also in Bhirgu Nandi Nadi, Saptrishi Nadi and other nadi books you can find these combination but you have to figure it out yourself.No clear combination and result available.Same combination can give many results it depends on human intellect how he corelates it.Moon rahu combination can also mead that grand father[Rahu] has changed residence many times and migrated to some other place many other thing you can think of. Penned by Sri Sanjiv Ranjan Misra (Astrological Researches FB page)

Tuesday, August 21, 2012

COMPETITIVE EXAMPS AND 5TH HOUSE By Sri AV Pathi (Astrology & Remedies FB page)


COMPETITIVE EXAMPS AND 5TH HOUSE: We all know that 5th house relates to intellect. All competitive exams in any branch including IAS, IAAS, Defence Exams, in service or outside, are considered and examined from this house. The general principle as always of examining any problem from this 5th house concerned, it’s Lord, his placement, his relationship with the occupant/or, the planet casting drusti, the period in which this competitive exam to be held, as well as possible time when the result is to be announced, the planet crossing or aspecting or both on the 5th house above as well as the Dasha Nathan and related planets will give the ‘result’. Also, take into account that, if the ‘significator’ by occupation owner of the star in which the planet is parked in 5th house, as also similar (giving you the mind, money, and opportunity to compete) positions contributed by 6th and 11th House, to gain in speculation of making success in Exams. However, for the same period, study 8th and 12th house for causing impediments and to decide gain or loss. These will reach you for a decisive ‘result’. -AV Pathi (Astrology & Remedies FB page)

Friday, August 17, 2012

कालसर्प-दोष : by Swami Mrigendra Saraswati


कालसर्प-दोष by Swami Mrigendra Saraswati on Monday, July 26, 2010 at 10:48am · कालसर्प-दोष कालसर्प-दोष एक ऐसा नाम जिससे आज का साधक एवं आम व्यक्ति अच्छी तरह से परिचित है। कुछ लोगों का तो ये हाल है कि जन्म कुंडली देखते ही चौंक पडते है और कह उठते है की तुम्हारी कुंडली में तो कालसर्प-दोष है क्या तुमने इसका कोई उपाय किया या नहीं। अगर समने वाला व्यक्ति ये कहें कि मुझे तो इसके बारे में कुछ भी नहीं मालुम, मुझे आज तक किसी ने कुछ नहीं बताया या फिर मुझे मालुम तो था किन्तु मैने अभी तक कोई उपाय नहीं किया हैं। इतना सुनते ही कालसर्प-दोष को बताने वाला व्यक्ति सामने वाले व्यक्ति को कालसर्प-दोष के बारे में पूरा भाषण दे डालता है और फिर अनेको उपाय बताने लगता है। कालसर्प-दोष के बारे में बताने वाला कालसर्प-दोष के बारे में स्वयं कितना जानता है, ये शायद उसे भी नहीं मालुम। कालसर्प-दोष या कालसर्प योग - जब जन्म-कुंडली में सभी ग्रह राहु और केतु के मध्य स्थित हो तो कालसर्प-दोष बनता है। यदि जन्म-कुंडली में कुछ ग्रह राहु-केतु के मध्य हो और कोई भी एक या दो ग्रह अलग से हो तो कालसर्प-दोष नहीं बनता। किन्तु जो ग्रह राहु-केतु से बाहर है, यदि उनके अंश राहु-केतु से कम है तो कालसर्प-दोष बनता हैं। महर्षि पराशर एवं वराहमिहिर जैसे प्राचीन ज्योतिषाचार्यो ने भी अपने ग्रंथों में कालसर्प-दोष के बारे में वर्णन किया है। इनके अलावा भृगु, बादरायण, गर्ग आदि महर्षियों ने भी अपने ग्रंथों में कालसर्प-दोष को सिद्ध किया है। ज्योतिष-शास्त्र एवं अध्यात्म-शास्त्र में राहु-केतु को सर्प माना है। सही मायने में तो काल और सर्प, राहु ग्रह के अधि-देवता और प्रति-देवता है। इन अधि-देवता और प्रति-देवता दोनों के नामों को मिलाने से ही कालसर्प नामक शब्द बना है। ध्यान-पूर्वक अध्ययन करने से पता चलता है कि यदि जन्म-कुंडली में राहु कि स्थिति खराब है तो भी काल-सर्प दोष बनता है। क्योंकि काल और सर्प ये दोनों राहु ग्रह के ही अधि-देवता और प्रति-देवता है। आप-अपनी या किसी की भी कुंडली में कालसर्प योग को देखने से पहले एक बात अवश्य याद रखें कि लग्न से लेकर 12वें भाव तक जो कुंडली बनती है, वह घड़ी के विपरित अर्थात् एंटी क्लॉक वॉइज़ बनती है। जबकि कुंडली के अंदर राहु-केतु घड़ी की दिशा में अर्थात् क्लॉक वॉइज़ चलते है। इसलिए यदि किसी कि भी कुंडली में राहु-केतु के बीच में सभी ग्रह घड़ी की दिशा में अर्थात् क्लॉक वॉइज़ है, तभी कालसर्प योग बनेंगा। यदि इसके विपरित दिशा में ग्रह है, तो कालसर्प-दोष नहीं माना जायेगा। सभी समयानुसार मार्गी एवं वक्री होते रहते हैं, किन्तु राहु-केतु हमेशा ही वक्री होते हैं, इसलिऐ इनकी वक्री स्थिति के अनुसार ही जब सारे ग्रह इनके मध्य स्थित होगें तभी काल-सर्प योग दोष बनेगा। आजकल के कुछ विद्वान मानते हैं, कि जन्म-कुंडली में कमजोर ग्रहों का होना अर्थात् शुभ-ग्रहों का कम अंशो में होना, शत्रु-राशि में स्थित होना, अशुभ-ग्रहों से दृष्टि संबध होना तथा शुभ-ग्रहों का नीच स्थिति में होना एवं केन्द्र तथा त्रिकोण के ग्रहों का किसी भी तरह से अशुभ होने को काल-सर्प दोष मानते हैं। क्योंकि ग्रहों की यह अवस्था भी काल-सर्प दोष के समान ही हानिकारक है (किन्तु उपाये की दृष्टि से ग्रहों की इस अवस्था में रूद्रा-अभिषेक तथा अधिदेवता, प्रतिदेवता सहित नव-ग्रहों की पूजा ही फल दायक है।) इस अवस्था में राहु-केतु का किया गया कोई भी उपाय कारगर साबित नहीं होगा। इसके विपरीत यदि आप कि जन्म कुंडली में काल-सर्प दोष पूरा बनता है तो राहु-केतु के उपाय सहित सभी उपाय किये जा सकतें हैं। कालसर्प-दोष या कालसर्प योग 288 प्रकार के है। क्योंकि 12 राशियों में 12 प्रकार का कालसर्प योग (12 x 12 = 144) तथा 12 लग्नों में 12 प्रकार कालसर्प योग (12 x 12 = 144) । दोनों को मिलाने से कुल 288 प्रकार का कालसर्प दोष होता है। इनमें से मुख्य 12 प्रकार के कालसर्प योग इस प्रकार हैं- 1. अनंत कालसर्प योग - प्रथम भाव में राहु और सप्तम भाव में केतु हो। 2. कुलिक कालसर्प योग - दूसरे भाव में राहु और आठवें भाव में केतु हो। 3. वासुकि कालसर्प योग - तीसरे भाव में राहु और नवम भाव में केतु हो। 4. शंखपाल कालसर्प योग - चतुर्थ भाव में राहु और दशम भाव में केतु हो। 5. पद्म कालसर्प योग - पंचम भाव में राहु और एकादश भाव में केतु हो। 6. महा पद्म कालसर्प योग - छठे भाव में राहु और द्वादश भाव में केतु हो। 7. तक्षक कालसर्प योग - सप्तम भाव में राहु और प्रथम भाव में केतु हो। 8. कर्कोटक कालसर्प योग - आठवें भाव में राहु और दूसरे भाव में केतु हो। 9. शखनाद कालसर्प योग - नवम भाव में राहु और तीसरे भाव में केतु हो। 10. पातक कालसर्प योग - दशम भाव में राहु और चतुर्थ भाव में केतु हो। 11. विषाक्त कालसर्प योग - एकादश भाव में राहु और पंचम भाव में केतु हो। 12. शेषनाग कालसर्प योग - द्वादश भाव में राहु और छठे भाव में केतु हो। कालसर्प दोष को दूर करने के लिये हम कुछ उपाय बता रहें है। इन उपायों को हमने अनेकों साधकों से करवाया और ये उपाय हर बार हमारी कसौटी पर खरे उतरे। आवश्यक्ता है तो श्रद्धा और विश्वास के सथ इन उपायों को करने की। 1. ॐ नमः शिवाय॥ मंत्र का सवा-लाख जाप स्वयं करे या करवायें साथ ही दशांश हवन, तर्पण, मार्जन तथा ब्राह्मण भोजन करवायें। 2. रुद्राभिषेक करवायें। 3. कालसर्प दोष निवारण स्तोत्र के 11 पाठ नित्य करें। इस स्तोत्र के पाठ करने का तरीका इस प्रकार है- ॐ श्रीगुरुवें नमः॥ - 5 बार उच्चारण करें। ॐ श्री गणेशाय नमः॥ - 5 बार उच्चारण करें। कालसर्प दोष निवारण स्तोत्र के 11 पाठ करें। ॐ ॐ ॐ ॐ ॥ कालसर्प दोष निवारण स्तोत्र ॥ ॐ ॐ ॐ ॐ ब्रह्म लोके च ये सर्पाः शेषनाग पुरोगमाः। नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः संत मे सदा॥1॥ विष्णु लोके च ये सर्पाः वासुकि प्रमुखाश्च ये। नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः संत मे सदा॥2॥ रुद्र लोके च ये सर्पाः तक्षक प्रमुखास्तथा। नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः संत मे सदा॥3॥ खांडवस्य तथा दाहे स्वर्गं ये च समाश्रिताः। नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः संत मे सदा॥4॥ सर्प सत्रे च ये सर्पाः आस्तिकेन च रक्षिताः। नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः संत मे सदा॥5॥ प्रलये चैव ये सर्पाः कर्कोट प्रमुखाश्च ये। नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः संत मे सदा॥6॥ धर्म लोके च ये सर्पाः वैतरण्यां समाश्रिताः। नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः संत मे सदा॥7॥ ये सर्पाः पार्वती-येषु दरी संधिषु संस्थिताः। नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः संत मे सदा॥8॥ ग्रामे वा यदि वारण्ये ये सर्पाः प्रचरन्ति हिः। नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः संत मे सदा॥9॥ पृथ्वि व्याम् चैव ये सर्पाः ये सर्पाः बिल संस्थिताः। नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः संत मे सदा॥10॥ रसातले च ये सर्पाः अनंताद्या महाबलाः। नमोऽस्तु तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः संत मे सदा॥11॥ * सुशान्ति भवतु * 4. नाग गायत्री मंत्र की 3, 5, 7, 11 आदि माला का जाप करें। नाग गायत्री मंत्र – ॐ नव कुलाय विध्महे विषदन्ताय धीमहि तन्नो सर्पः प्रचोदयात्॥ 5. राहु के मंत्र “ॐ रां राहुवे नमः” का सवा-लाख जाप स्वयं करे या करवायें साथ ही दशांश हवन, तर्पण, मार्जन तथा ब्राह्मण भोजन करवायें। ॥हरि ॐ तत्सत्॥

" सच्चे न्यायाधिश भगवान श्री शनिदेव " by Swami Mrigendra Saraswati


" सच्चे न्यायाधिश भगवान श्री शनिदेव " ____________________________ by Swami Mrigendra Saraswati on Monday, June 20, 2011 at 3:37pm · अपने समाज मेँ मान्यता है कि - * राजा - सुर्यदेव । * मंत्री - बुधदेव । * सेनापति - मंगलदेव । * न्यायाधिश - शनिदेव । * प्रशासक - राहु और केतु । * अच्छे मार्गप्रदर्शक - बृहस्पति ( गुरु ) । * विर्य एवं बल - शुक्र । ये उस नियन्ता के व्यवस्था तंत्र हैँ । नारायण । यह भ्रान्ति सदा के लिय मन से निकाल देँ कि कोई ग्रह व्यक्ति रूप मेँ विद्यमान हैँ । सारे ग्रह ठोस पदार्थ हैँ और यह भी सत्य है कि इनके प्रभाव से आप बच नहीँ सकते । बचाने वाले कोई और है । खाशकर मैँ आप से यहाँ भगवान् श्री शनि देव जी की चर्चा करना चाहुँगा ! जब अपने समाज मेँ कोई व्यक्ति अपराध करता है , पाप करता है या धर्म विरूद्ध कोई भी कार्य को करके धर्म को खण्डित करता है तो न्यायाधिश शनि देव के आदेश के तहत राहु और केतु उसे दण्ड देने के लिये सक्रिय हो जाते हैँ । न्यायाधिश भगवान् श्री शनि देव के अदालत मेँ दण्ड पहले दिया जाता है , और बाद मेँ अभियोग इसलिये चलता है कि आगे अभियुक्त के चाल - चलन ठीक रहे तो दण्ड की अवधि बीतने के बाद उसे फिर से खुशहाल कर दिया जाये या नहीँ । यदि चाल - चलन ठीक नहीँ रहते हैँ तो राहु और केतु को उस अपराध करने वाले व्यक्ति के पीछे न्यायाधिश श्री शनि देव द्वारा लगा दिया जाता है । राहु सदा सिर मेँ मार करता है और केतु उस अपराधी व्यक्ति के पैरोँ को तोडने प्रयास करता है । यदि इन दोनोँ से अपराधी बचता रहा तो , अदातल ( कोर्ट - कचहरी ) जेल , या फिर अस्पताल मेँ से किसी एक के या सभी के चक्कर जरुर काटने पडते हैँ । शनि अर्थात् न्यायाधिश के फरमान को उलटने का कार्य कोई भी ग्रह या कर्मकाण्ड नहीँ कर सकता । जब एक बार भगवान शनि देव के कोर्ट मेँ एफ ,आई , आर दर्ज हो गई तो फिर कुछ नहीँ हो सकता । कहते हैँ कि मंगल के उपाय करने से तो शनिदेव शान्त हो जायेँगे तो यह मन को समझाने वाली बात मानी गई है । राजा सुर्यदेव भी अपने पुत्र शनिदेव के कार्य मेँ दखल नहीँ देते । शनि या फिर राजा के पास सच्चे मन से रहम लगाई जाय तो कुछ हो सकता है । वे अपराधि के सच्चे मन को जानते हैँ । किसी भी शनि मंदीर मेँ या ज्योर्तिविदोँ के यहाँ चक्कर लगाने से कुछ नहीँ होगा । शनि देव को जुआ - सट्टा खेलना , शराब पीना , ब्याजखोरी करना , पर स्त्रीगमन करना . अप्राकृतिक रूप से मैथुन करना , झुठी गबाही देना , निर्दोष लोगोँ को सताना , चाचा - चाची , माता - पिता , गुरुजन का अपमान करना , ईश्वर के खिलाफ होना , अपने दाँतोँ को गन्दा रखना , साँप , कुत्ते और कौवोँ ( काक ) को सताना । नारायण । शनिदेव जी के मंदिर मेँ जाने के पूर्व उक्त बातोँ पर प्रतिबंध लगाये तो शनिदेव जी का कोप भाजन न बनना पड़ेगा । श्री नारायण हरिः ।

Monday, August 13, 2012

वेदों में विज्ञान !!! श्री सिद्धार्थ शर्मा , कटक


वेदों में विज्ञान !!! वैदिक युग की महान भारतीय प्रतिभाओं ने हजारों वर्षों पूर्व प्रकाश के वेग का आकलन कर लिया था . ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 50 वें सूक्त को पढ़ें -- योजनानां सहस्त्रं द्वे, द्वे शते , द्वे च योजने एकेन निमिषार्द्धेन क्रममाण नमोsस्तुते l l अर्थ - मैं उस प्रकाश शक्ति (सूर्य) को नमस्कार करता हूँ जो आधे निमिष में 2202 योजन की दूरी तय करता है l अब, 1 योजन = 4 कोश (या, क्रोश) = 4 x 8000 गज (1कोश =8000 गज) = 32000 x 0.9144 मीटर (1गज=0.9144मी.) = 29260.8 मीटर 4404 योजन = 4404 x 29260.8 मीटर = 128864563.2 मीटर निमिष की परिभाषा श्रीमद्भागवत में इस प्रकार है -- 1 अहोरात्र = 30 मूहूर्त = 30 x 30 लघु (1 मुहूर्त = 30 लघु) = 30x30x15 काष्ठ (1 लघु = 15 काष्ठ) = 30x30x15x15 निमिष (1काष्ठ =15निमिष) = 202500 निमिष 202500 निमिष = 1 अहोरात्र = 24 घंटे = 24x60x60 सेकेण्ड = 86400 सेकेण्ड 1 निमिष = 202500/86400 = 32/75 सेकेण्ड प्रकाश का वेग = आधे निमिष में 2202 योजन = एक निमिष में 4404 योजन = 32/75सेकेण्ड में 128864563.2 मीटर = 302026320 मीटर प्रति सेकेण्ड = 302026.32 कि मी प्रति सेकेण्ड = 3 लाख कि मी प्रति सेकेण्ड आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा 1983 में प्रकाश के वेग को सही सही निर्धारित किया गया था और उसका मान है = 299792458 मीटर प्रति सेकेण्ड यानि, 3 लाख कि मी प्रति सेकेण्ड श्रम हो किसी का, श्रेय किसी को युग युग से शोषण यह चलता है l तिल तिल कर जलती बाती ही है सब कहते देखो ! दीपक जलता है ll आओ ! वेदों की ओर चलें ! -- सिद्धार्थ शर्मा , कटक

Tuesday, August 7, 2012

SATURN PARKED IN VARIOUS HOUSES IN BIRTH CHART : by Sri AV pathi ji


SATURN PARKED IN VARIOUS HOUSES IN BIRTH CHART – sl. 17 to 19 in Ch. XVII – ‘The Brihat Jataka’: In Aries: ‘Neecha’ by occupation in this house covering 2. ¼ Stars.: He/She be a fool, will wonder from place to plc, will be a flop and will have no friends; In sign Scorpio: will suffer imprisonment ( at the period of Dasha, Anthra, etc where it dominates in relation to the planets involved), will receive blows, will be indifferent to work and will be merciless. Saturn in Gemini or Virgo (houses belonging to Mercury) will be shameless, will suffer grief, will be poor, will have no sons, will be a bad painter or writer – in unpleasant medias – will be a constable and will be a chief officer. Saturn in sign Taurus – will be fond of women of low cast (unhygienic) will process small wealth and could have several wifes. Saturn in sign Libra: ‘uchcha’ by occupation: will be a man of well known fame, will be chief of party of men in a town or in an army or in a village and will be rich (all life). Saturn in sign Cancer: The person will ever be poor, will have very few teeth (uneven too), will be separated from his mother and will have no sons and will be a fool. Saturn in Leo: he sill not be deserving of respect, will suffer grief, will have no sons, and will cary (others) burdens. Saturn in Sagittarius or Pisces will dien an excellent death, will be a faithful officer (in King’s palace) will have good sons and good wie, own good wealth, a chief in a town, in an army or in a village. Saturn in Capricorn or Aquarius (both iits own house): He will be with wives and property of other men, will be head of a town, a village, or army, will have weak eyes, will be dirty, indifferent to bathing, will have wealth, property all acquired by him. - penned by Shri AV Pathi ji Chennai (Astrology & Remedies FB page)