pauranic astronomy
गैैलीलियो ने दूरबीन का आविष्कार करके अंतरिक्ष के कई गूढ़ रहस्यों पर से परदा हटाया और पाश्चात्य देशों को इसका श्रेय मिला परन्तु हमारे वैदिक ऋषियों ने बिना दूरबीन अथवा ऎसे किसी यंत्र की सहायता लिए ही अंतरिक्ष का पूरा चित्र ही वैदिक ग्रंथों में खींच दिया था। उनका आकाश संबंधी ज्ञान स्थिति मापक और गति मापक था। यदि वेदों, पुराणों व उपनिषदों का अध्ययन करें तो यह ज्ञात होता है कि हमारे ऋषि केवल ऋषि नहीं बल्कि श्रेष्ठ वैज्ञानिक थे।
वेदों और पुराणों की जटिल भाषा आमजन समझने में अक्षम थे, अत: ऋषियों ने कथा-किस्सों के माध्यम से इन वैज्ञानिक तथ्यों को सामान्य जन तक पहुंचाया।
विष्णु पुराण में भगवान विष्ण ु के चार रूप बताए गए हैं। पुरूष, प्रकृति, काल और जगत। वैदिक दर्शनों के अनुसार काल एक है तथा दिन, मास, वर्षादि उसके भेद हैं। सूर्योदय से सूर्यास्त के बीच में, सूर्य एवं पृथ्वी की सम्मिलित क्रियाओं से सूर्य कुछ समय पृथ्वीवासियों को दिखता है और कुछ समय नहीं ।
मनुस्मृति में पंचमहाभूतों का पंाच मंडलों के रूप में प्रकट होना बताया गया है।
तत: स्वयम्भूभगवानव्यक्तो व्य†जçन्नदम्।
महाभूतादिवृत्तौजा: प्रादुरासीत्तमोनुद:।
इस श्लोक के अनुसार पंचमहाभूत सृष्टि में अप्रत्यक्षत: विद्यमान थे और अकस्मात् एक दिन प्रकट हो गये। पाश्चात्य वैज्ञानिकों द्वारा दिया गया Big Bang Theory सिद्घान्त भी यही कहता है।
यह श्लोक भगवद्गीता के उस सिद्घान्त की पुष्टि भी करता है कि नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सत:। अर्थात कोई वस्तु कहीं से नहीं आती और न ही किसी वस्तु का अभाव होता है।
आधुनिक विज्ञान का Law of Conservation of energy भी यही कहता है कि ऊर्जा को न ही पैदा किया जा सकता है और न ही खत्म किया जा सकता है। इसके एक स्वरूप को केवल दूसरे स्वरूप मेे बदला जा सकता है।
ब्रहम वैवत्तüपुराण में उल्लेख है कि ब्रrाा, विष्णु आदि देवता गोलोक धाम में श्रीकृष्ण से मिलने गए। वहां शतचन्द्रानना नामक श्रीकृष्ण की सखी ने उनसे पूछा कि वे किस ब्रrााण्ड से आए हैंक् शतचन्द्रानना के इस प्रश्A पर सभी देवता आश्चर्य चकित हो गए कि क्या कोई और भी ब्रrाण्ड है क् तो इन्हें शतचन्द्रानना ने बताया कि यहां विरजा नदी में सैंक़डों ब्रrााण्ड बिखरे प़डे हैं।
सबमें पृथक-पृथक देवता वास करते हैं। आधुनिक अंतरिक्ष वैज्ञानिक भी इस संभावना से इंकार नहीं करते कि पृथ्वी के अतिरिक्त भी किसी ग्रह पर जीवन है। यदा-कदा उ़डन तश्तरियाँ (Unidentified Flying Object) दिखने का दावा भी वैज्ञानिकों द्वारा किया जाता रहा है। हमारी बहुत सी पौराणिक कथाओं का सीधा संबंध अंतरिक्ष की स्थिति और उसके धरती पर प़ड रहे प्रभावों से है। अगस्त्य के समुद्र पान के पीछे यह तथ्य छिपा है कि चातुर्मास के अंत में जब अगस्त्य तारा दिखाई देने लगता है तो वह इस बात की ओर संकेत करता है कि अब वर्षा खत्म हो गई है।
इसी प्रकार पौराणिक आख्यानों में कहा गया चंद्रमा ने बृहस्पति की पत्नी तारा का हरण कर लिया था, इस कथा का खगोलीय सत्य यह है कि एक समय ज्योतिषीय गणना बृहस्पति से की जाती थी परन्तु बाद में यह गणना चन्द्रमा से की जाने लगी। वैदिक ऋषियों के खगोल ज्ञान का प्रमाण हमें ग्रहों की गति, उनके वक्री अथवा अतिचारी होने, ग्रहों के अस्त होने के रूप में मिलता है।
ऋषियों को यह संभवत: ज्ञात रहा होगा कि ग्रहों की गति सीमा को किलोमीटर में मापना संभव नहीं है, तभी उन्होंने ग्रहों के अंशों को आधार बनाकर ही उनकी सूर्य से निश्चित अंश की दूरी पर ही ग्रह के अस्त एवं उदय होने की बात की। राहु व केतु भौतिक पिण़्ड नहीं हैं अपितु गणितीय बिंदु हैं। वैज्ञानिकों ने राहु-केतु को North node और South Node जब का नाम दिया, उससे सहस्त्रों वर्ष पूर्व ही राहु-केतु को ऋषि प्रतिष्ठा दे चुके थे। वेदों का प्रधान विषय यज्ञ संपादन है। यज्ञों की सफलता के लिए ग्रहों का ज्ञान अति आवश्यक था। ग्रहों की गति को समझ कर ग्रहण, पृथ्वी की परिभ्रमण गति आदि का गहन अध्ययन किया।
भास्कराचार्य ने च्सिद्घान्त शिरोमणिज् नामक संग्रह में गणित एवं खगोल के विभिन्न सूत्रों तथा सिद्घान्तों का विस्तृत वर्णन किया है। वैदिक परम्परा में खगोल और ज्योतिष को एक दूसरे का अभिन्न अंग माना गया है। रामायण में भगवान राम के अभिषेक के लिए पुष्य नक्षत्र की तिथि निर्धारित की गई थी। भागवत पुराण में ग्रहों की स्थितियों का वर्णन किया गया है। भीष्म पितामह ने प्राण त्यागने के लिए सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा की थी। राम-रावण एवं महाभारत दोनों ही युद्घ अमावस्या के दिन आंरभ हुए थे। पंचतंत्र की कथाओं में एक कथा है जिसमें उल्लेख है कि एक गुरू महाराज एक खास ग्रह स्थिति में मंत्रोच्चाारण कर के आकाश से धन वर्षा करवा सकते थे।
आकाश पर एक दृष्टि डालने मात्र से वे ग्रह स्थिति का अनुमान लगा लेते थे। ये हमारे वैदिक काल के उन्नत खगोल ज्ञान के उदाहरण हैं। नक्षत्र शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। ऎतिहासिक तथ्यों ने यह सिद्घ कर दिया है कि ऋग्वेद ईसा से 4000 वर्ष पुराना है। ऋग्वेद में पुष्य, अश्विनी एवं रेवती नक्षत्रों का उल्लेख है। संपूर्ण नक्षत्रों का उल्लेख यजुर्वेद एवं अथर्ववेद में मिलता है। नक्षत्रों मे तारों की सरंचना को समझाने के लिए कथाओं का सहारा लिया गया। उदाहरण के लिए मृगशिरा नक्षत्र के पीछे ब्रrाा जी की कथा है। वास्तु में ईशान कोण का अत्यधिक महत्व है। हमारे वैदिक ऋषि अयनांश से परिचित थे। वे जानते थे कि सूर्य पूर्व दिशा मध्य से ईशान कोण की ओर 231/20 झुके हुए हैं।
इसलिए ऊर्जा का प्रवेश ईशान कोण से होता है। साथ ही भूगर्भ ऊर्जा का प्रवाह ईशान से नैऋत्य की ओर माना गया है। इसी खगोलीय तथ्य के कारण वास्तु नियम कहते हैं कि पूर्व एवं उत्तर में निर्माण कम से कम होना चाहिए तथा दक्षिण-पश्चिम में ऊंचा होना चाहिए। ऎसे निर्माण से ही ऊर्जा का प्रवेश ईशान से होगा तथा संग्रहण नैऋत्य में होगा।
वास्तु सम्मत यह निर्माण घर में सुख शांति लाता है और परिवार के सदस्यों के संपूर्ण व्यक्तित्व के निखार में सहायक होता है। इस प्रकार हमारे वैदिक ऋषि अन्य विद्याओं के साथ-साथ खगोल के भी ज्ञाता थे। उन्होंने अपने उन्नत ज्ञान से प्राकृतिक ऊर्जा का भरपूर प्रयोग मनुष्य के हित एवं उसके संपूर्ण विकास के लिए किया।
ज्योतिष मंथन जयपुर से साभार
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