साधारणतया जन्मकालीन चंद्रमा से ग्रहों की गोचर स्थिति देखकर फलित की विधि है जैसे गोचरगत शनि जब चंद्रमा से तीसरे, छठे एवं ग्यारहवें स्थान पर होंगे तो शनि जातक को शुभफल देंगे परंतु प्रश्न यह उठता है कि शनि एक राशि में अढ़ाई वर्ष रहते हैं तो क्या पूरे अढ़ाई वर्ष शुभफल देंगेक् साथ ही यदि वह भाव जिसमें वह राशि स्थित है बलहीन है तो भी भाव संबंधी फलों की गुणवत्ता वही होगी जैसी तब कि जिस भाव से शनि गोचर कर रहे हैं, बली हैक् अथवा इस प्रकार कहें कि यदि संबंधित भाव में शुभ बिन्दुओं की संख्या कुछ भी हो बीस या चालीसक् तो क्या फल की शुभता वही होगीक् इन्हीं कारणों के कारण जो सामान्य रूप से गोचरफल पंचांग आदि में दिया रहता है, महान् विद्वानों के मत के अनुसार उसको गौण ही समझा जायेे। सूक्ष्म विचार के लिए अन्य विधियों में अष्टक वर्ग विधि सबसे श्रेष्ठ है। इस लेख में यह बताने का प्रयत्न किया जायेगा कि गोचरफल की न्यूनाधिक गणना किस प्रकार से की जायेक्
पहले चर्चा कि जा चुकी है कि सात ग्रह व आठवाँ लग्न, इन सभी द्वारा शुभ-अशुभ बिन्दु देने की प्रणाली है। यदि सातों ग्रह व लग्न सभी एक-एक शुभ बिन्दु किसी भाव को प्रदान करते हैं तो कुल मिलाकर अधिकतम आठ शुभ बिन्दु किसी भाव को प्राप्त हो सकते हैं अर्थात् कोई अशुभ बिन्दु (अशुभ बिन्दु को कभी-कभी रेखा से भी दर्शाते हैं) नहीं अत: विचारणीय भाव संबंधी अधिकतम शुभफल प्राप्त होगा। यदि सात शुभ बिन्दु हैं तो शुभफल अधिकतम आठ का सातवां भाग होगा। इसी प्रकार क्रम से अनुपात के अनुसार शुभता को एक फल प्राçप्त के स्केल पर नाप सकते हैं व कितना प्राप्त होगा इसकी गणना कर सकते हैं।
एक अन्य विधि फलित की है कि जन्मकालीन चंद्रमा या लग्न से गोचर का ग्रह उपचय स्थान में (3, 6, 10, 11वे) हो अथवा मित्र ग्रह हो अथवा स्वराशि में हो, उच्च का हो एवं उसमें चार से अधिक शुभ रेखायें हों तो शुभफल में और भी अधिकता आती है। इसके विपरीत यदि गोचर का विचाराधीन ग्रह चंद्रमा से या जन्मकालीन लग्न से उपचय स्थान (3, 6, 10, 11वें को छो़डकर सभी अन्य आठ स्थान) में हो तो उस राशि में शुभ बिन्दुओं की अधिकता भी हो तो भी अशुभ फल ही मिलता है। यदि उपचय स्थान में होकर ग्रह शत्रु क्षेत्री, नीच का अथवा अस्तंगत होवे व शुभ बिन्दु भी कम हों तो अशुभ फल की प्रबलता रहेगी। यह ग्रहों का गोचर हुआ जिसका विचार जन्मकालीन चंद्रमा अथवा जन्मकालीन लग्न से करना होता है।
अब चंद्रमा के स्वयं के गोचर का विचार करें। चंद्रमा यदि उपचय स्थान में हों (अपनी जन्मकालीन स्थिति से) शुभ रेखा अधिक भी परंतु चंद्रमा स्वयं कमजोर हो (यहां गोचर में) तो फल अशुभ ही हो। लेकिन इस विधि में गोचर ग्रह का विचार ग्रह के राशि में विचरण के आधार पर करते हैं। प्रथम गोचर विधि में जो प्रश्न उठा था कि यदि शनि जैसे ग्रह का गोचर अध्ययन करना हो जो एक राशि में अढ़ाई वर्ष रहते हैं तो क्या इस ग्रह के फल शुभ या अशुभ अढ़ाई वर्ष रहेंगेक् यह प्रश्न इस विधि में उभरकर सामने आता है। अब अष्टक वर्ग आधार पर तीसरी विधि की चर्चा करते हैं। प्रत्येक राशि 300 की होती है। प्रत्येक राशि को आठ भागों में बांटते हैं। प्रत्येक भाग को "कक्ष्या" कहते हैं। जातक-पारिजात में दिए गए इस सिद्धात के अनुसार प्रत्येक कक्ष्या का स्वामी ग्रह होता है।
जैसे सबसे बाहरी कक्ष्या का स्वामी ग्रह शनि, फिर क्रम में बृहस्पति, मंगल, सूर्य, शुक्र, बुध, चंद्रमा व लग्न - इस प्रकार आठ कक्ष्याओं के आठ स्वामी ग्रह हुए। यदि देखें तो इनका क्रम ग्रहों के सामान्य भू-मण्डल में परिक्रमा पथ पर आधारित है। पृथ्वी से सबसे दूर शनि फिर बृहस्पति आदि-आदि हैं। पृथ्वी को कक्ष्या पद्धति में जातक से दर्शाया है क्योंकि पृथ्वी पर प़डने वाले प्रभाव का अध्ययन किया जा रहा है। इस गोचर फलित की विधि का नाम प्रस्ताराष्टक विधि है। आगे बढ़ने से पहले प्रस्ताराष्टक वर्ग बनाने की विधि की चर्चा करते हैं। राशि व ग्रहों का एक संयुक्त चार्ट बनाते हैं। बांयें से दांयें बारह कोष्टक बनाते हैं, व आठ कोष्ठक ऊपर से नीचे। प्रत्येक कोष्ठक बांयें से दांयें एक राशि का द्योतक है व ऊपर से नीचे वाला एक ग्रह का। आठवाँ कोष्ठक लग्न का है।
सही मायने में यह बृहस्पति का अष्टक वर्ग है बस ग्रह रखने का क्रम बदल गया है। यहां पर ग्रहों का क्रम (कक्ष्या) ग्रहों के वास्तविक परिभ्रमण के आधार पर रखा गया है। पृथ्वी से सबसे दूर व उसके बाद पृथ्वी से दूरी के क्रम में। जैसा कि ऊपर चर्चा कर चुके हैं कि एक राशि को आठ भाग मेे बांट लेते हैं तो प्रत्येक ग्रह का भाग 30/8 अर्थात् 3045" हुआ अर्थात् मेष में शनि की कक्ष्या, राशि में 0-3045" तक हुई। दूसरी कक्ष्या बृहस्पति की है जो 3045" से 7030" तक होगी आदि-आदि।
अब यह देखना है कि बृहस्पति का गोचरफल जातक को कैसा होगाक् जून 2009 में बृहस्पति कुंभ राशि की पहली कक्ष्या में गोचर कर रहे हैं। यहाँ पर राशि स्वामी शनि प्रदत्त एक शुभ बिन्दु है अत: बृहस्पति का गोचर उपर्युक्त जातक को शुभफल देगा। इसी प्रकार बृहस्पति की कक्ष्या में कुंभ राशि को शुभ बिन्दु प्राप्त है अत: बृहस्पति के गोचर की शुभता का क्रम बृहस्पति को 3045" से 7030" कुंभ में गोचर करते समय जारी रहेगा। 7030" से 11015" तक मंगल की कक्ष्या है वहां भी मंगल द्वारा प्रदत्त एक शुभ बिन्दु है अत: कुंभ में 10030" अंश तक गोचरगत बृहस्पति शुभफल देंगे। फिर चतुर्थ कक्ष्या में सूर्य द्वारा कोई शुभ बिन्दु कुंभ राशि को प्रदान नहीं किया गया है अत: शुभता का क्रम अचानक रूक जाएगा व गति विपरीत होती सी नजर आएगी पर इसके साथ पांचवीं कक्ष्या में फिर शुक्र द्वारा प्रदत्त शुभ बिन्दु है उसके उपरान्त बुध द्वारा शुभ बिन्दु है अत: बृहस्पति के 11015" से 140 तक गोचर करते समय शुभ बिन्दु हैं अत: बृहस्पति के 11015" से 140 तक गोचर करते समय शुभफल की गति धीमी होगी जो 140 पार करते-करते पुन: गति पक़ड लेगी। इसको यूं समझें कि कोई वाहन सामान्य गति से स़डक पर जा रहा है, सामने अवरोध आने पर स्पीड कम करनी प़डती है या रूकना भी प़डता है व उस अवरोध को पार कर पुन: स्पीड पक़ड लेते हैं। यहां यह बात भी ध्यान देने की है कि कुछ प्रतीक्षा करने से या तो गतिरोध हट जाता है, हम धैर्य से प्रतीक्षा करते हैं अथवा हम गतिरोध के दांयें-बांयें से ध्यान व समझदारी से निकल जाते हैं। वास्तव में यही स्थिति ग्रह के साथ है या तो हम सहनशीलता से धैर्य रखें, बुरा वक्त निकल जायेगा या फिर दायें-बांये से निकल जायें अर्थात् ग्रह का उपचार दान, जप आदि कर बाधाओं को पार कर जायें।
अन्य ग्रहों का भी गोचर का विचार इसी विधि से करते हैं कौन ग्रह किस विषय का कारक है या किस भाव का स्वामी है उस भाव संबंधी विषयों के बारे में फलित करने हेतु ग्रह का चयन करते हैं। विचारणीय ग्रह के पथ में जो ग्रह शुभ बिन्दु प्रदान करते हैं व शुभ बिन्दु प्रदान करने वाले ग्रह से संबंधित विषय का (अर्थात् शुभ बिन्दु देने वाले ग्रह किस संबंध अथवा वस्तु को दर्शाते हैं) जातक को लाभ देने में सहायक होंगे। जैसे उपरोक्त उदाहरण में बृहस्पति कुंभ में गोचर करते समय शनि की कक्ष्या से गुजर रहे हैं, शनि ने यहां शुभ बिन्दु प्रदान किया है अत: इस समय बृहस्पति के गोचर को शुभफल प्रदान करने में नौकर-चाकर, निम्न जाति/श्रेणी के लोग, लोहे की वस्तुएं आदि जातक को लाभ देंगी। कुछ विद्वान राशि के स्थान पर भाव के आठ भाग कर कक्ष्या स्थापित करने की बात कहते हैं। यदि भाव का आधार ले तो भाव आरंभ संधि से भाव मध्य तक चार भाग व भाव-मध्य से भाव अंत तक चार भाग कर विचार करना होता है परंतु वर्तमान में व्यावहारिक रूप से राशि को आधार मानकर गणना करना ज्यादा उपयुक्त माना जाता है। ऎसी भी स्थिति हो सकती हैं कि जब गोचर में कई ग्रह एक ही कक्ष्या में आ जाएं व उस कक्ष्या को शुभ बिन्दु प्राप्त हो। इस स्थिति में शुभ फल उतना ही उत्तम होगा जितने ग्रह ज्यादा होंगे।
अष्टक वर्ग में जब ग्रह गोचरवश ऎसी कक्ष्या से गुजर रहा है जहां शुभ बिन्दु हैं तो शुभफल, गोचर में चलने वाले ग्रह के कारकत्व के अनुसार होगा। दूसरे यह फल ग्रह के जीव मूल-धातु के अनुसार होगा। यह फल लग्न से (मूल कुण्डली से) गिनकर उस भाव के विषयों से संबंधित होगा जहां से ग्रह गुजर रहा है। आगे गोचर वाले ग्रह के शुभफल की गुणवत्ता इस पर भी आधारित होगी कि विचारणीय गोचरगत ग्रह कुण्डली की मूल स्थिति से कक्ष्या वाले ग्रह से किस भाव में गुजर रहा है जैसे यदि कक्ष्या ग्रह की मूल स्थिति से अशुभ स्थान (6, 8वें आदि) से गुजरें तो शुभफल की कमी होगी परंतु यदि शुभ स्थान जैसे पंचम-नवम से गुजरे तो फल की वृद्धि होगी। इसके साथ-साथ उस भाव से भी शुभ फल संबंधित होगा जो कि शुभ बिन्दु देने वाले ग्रह से (मूल जन्मपत्रिका में) गोचर वाले ग्रह का बनता है।
जैसे उदाहरण कुण्डली में बृहस्पति, कुंभ राशि से गोचर कर रहे हैं व यह शनि की कक्ष्या है अत: फल बृहस्पति, शनि, कुंभ से संबंधित होगा। कुंभ पूर्णता का प्रतीक है व शनि, बृहस्पति धर्म, आध्यात्म, तप, संसार से अलग विषयों के प्रतीक भी हैं। अत: आध्यात्मिक विषयों में, सत्संग में समय लगेगा जो पूर्णता देने वाला होगा। बृहस्पति जीव के कारक हंै व शनि स्थायित्व के अत: अचल संपत्ति के सौन्दर्यकरण का लाभप्रद अवसर होगा। इस प्रकार तारतम्य से फलित करें।
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