Got the following explanatios from Sh AB Shukla bhai.
This will expand the understandings of Ashtavakr Smhita. अष्टावक्र गीता
अष्टावक्र उवाच -
मुक्तिमिच्छसि चेत्तात्, विषयान विषवत्त्यज।
क्षमार्जवदयातोष, सत्यं पीयूषवद्भज॥१-२॥
मुक्ति की जो चाहत हो, विषय विष को त्याग।
सत्य संतोष क्षमा दया, सरलता अमृत मार्ग ॥१-२॥
न पृथ्वी न जलं नाग्निर्न, वायुर्द्यौर्न वा भवान्।
एषां साक्षिणमात्मानं, चिद्रूपं विद्धि मुक्तये॥१-३॥
धरती जल ना आग है, पवन न तू आकाश।
चेतन साक्षी आत्मा, तू है मुक्त प्रकाश ॥१-३॥
न त्वं विप्रादिको वर्ण:,
नाश्रमी नाक्षगोचर:।
असङगोऽसि निराकारो, विश्वसाक्षी सुखी भव॥१-५॥
वर्ण आश्रम तू नहीं,
कोई सके न देख।
निराकार संगी नहीं,
साक्षी भाव से देख ॥१-५॥
धर्माधर्मौ सुखं दुखं, मानसानि न ते विभो।
न कर्तासि न भोक्तासि,
मुक्त एवासि सर्वदा॥१-६॥
धर्म-अधर्म,
सुख-दुःख मनके,
तुझसे जुड़े न जान।
ना तू भोगे ना करे,
मुक्त सदा तू मान
॥१-६॥
एको द्रष्टासि सर्वस्य, मुक्तप्रायोऽसि सर्वदा।
अयमेव हि ते बन्धो, द्रष्टारं पश्यसीतरम्॥१-७॥
सकल जगत के हो द्रष्टा, सदा मुक्त हो आप।
किन्तु अन्य को बंधन में, द्रष्टा समझे आप ॥१-७॥
You are the Solitary Witness of All That Is, forever free.
Your only bondage is not seeing this.
Be witness
अहं कर्तेत्यहंमान, महाकृष्णाहिदंशितः।
नाहं कर्तेति विश्वासामृतं, पीत्वा सुखं भव॥१-८॥
"मैं कर्ता हूँ" मानता, महासर्प अहंकार।
"ना कर्ता मैं" जानता, अमृत-सुख का द्वार ॥१-८॥
एको विशुद्धबोधोऽहं, इति निश्चयवह्निना।
प्रज्वाल्याज्ञानगहनं, वीतशोकः सुखी भव॥१-९॥
मैं ही ज्ञान विशुद्ध हूँ, निश्चित जब ले जान।
जलता वन अज्ञान का, शोकरहित सुख मान ॥१-९॥
यत्र विश्वमिदं भाति, कल्पितं रज्जुसर्पवत्।
आनंदपरमानन्दः स, बोधस्त्वं सुखं चर॥१-१०॥
रस्सी जैसे सर्प लगे,
जग ये माया जान।
अनुभव परमानन्द करे, उसको ही सुख मान॥१-१०॥
This will expand the understandings of Ashtavakr Smhita. अष्टावक्र गीता
अष्टावक्र उवाच -
मुक्तिमिच्छसि चेत्तात्, विषयान विषवत्त्यज।
क्षमार्जवदयातोष, सत्यं पीयूषवद्भज॥१-२॥
मुक्ति की जो चाहत हो, विषय विष को त्याग।
सत्य संतोष क्षमा दया, सरलता अमृत मार्ग ॥१-२॥
न पृथ्वी न जलं नाग्निर्न, वायुर्द्यौर्न वा भवान्।
एषां साक्षिणमात्मानं, चिद्रूपं विद्धि मुक्तये॥१-३॥
धरती जल ना आग है, पवन न तू आकाश।
चेतन साक्षी आत्मा, तू है मुक्त प्रकाश ॥१-३॥
न त्वं विप्रादिको वर्ण:,
नाश्रमी नाक्षगोचर:।
असङगोऽसि निराकारो, विश्वसाक्षी सुखी भव॥१-५॥
वर्ण आश्रम तू नहीं,
कोई सके न देख।
निराकार संगी नहीं,
साक्षी भाव से देख ॥१-५॥
धर्माधर्मौ सुखं दुखं, मानसानि न ते विभो।
न कर्तासि न भोक्तासि,
मुक्त एवासि सर्वदा॥१-६॥
धर्म-अधर्म,
सुख-दुःख मनके,
तुझसे जुड़े न जान।
ना तू भोगे ना करे,
मुक्त सदा तू मान
॥१-६॥
एको द्रष्टासि सर्वस्य, मुक्तप्रायोऽसि सर्वदा।
अयमेव हि ते बन्धो, द्रष्टारं पश्यसीतरम्॥१-७॥
सकल जगत के हो द्रष्टा, सदा मुक्त हो आप।
किन्तु अन्य को बंधन में, द्रष्टा समझे आप ॥१-७॥
You are the Solitary Witness of All That Is, forever free.
Your only bondage is not seeing this.
Be witness
अहं कर्तेत्यहंमान, महाकृष्णाहिदंशितः।
नाहं कर्तेति विश्वासामृतं, पीत्वा सुखं भव॥१-८॥
"मैं कर्ता हूँ" मानता, महासर्प अहंकार।
"ना कर्ता मैं" जानता, अमृत-सुख का द्वार ॥१-८॥
एको विशुद्धबोधोऽहं, इति निश्चयवह्निना।
प्रज्वाल्याज्ञानगहनं, वीतशोकः सुखी भव॥१-९॥
मैं ही ज्ञान विशुद्ध हूँ, निश्चित जब ले जान।
जलता वन अज्ञान का, शोकरहित सुख मान ॥१-९॥
यत्र विश्वमिदं भाति, कल्पितं रज्जुसर्पवत्।
आनंदपरमानन्दः स, बोधस्त्वं सुखं चर॥१-१०॥
रस्सी जैसे सर्प लगे,
जग ये माया जान।
अनुभव परमानन्द करे, उसको ही सुख मान॥१-१०॥
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