Asthavakra:
मुक्ताभिमानी मुक्तो हि, बद्धो बद्धाभिमान्यपि।
किवदन्तीह सत्येयं,
या मतिः सा गतिर्भवेत्॥१-११॥
मुक्त माने मुक्त रहे,
बद्ध सोच बंध जाय।
है कहावत सत्य यही,
मति जैसी गति पाय॥१-११॥
आत्मा साक्षी विभुः,
पूर्ण एको मुक्तश्चिदक्रियः।
असंगो निःस्पृहः शान्तो, भ्रमात्संसारवानिव॥१-१२॥
साक्षी आत्मा सब जगह, पूर्ण, सजीव, निष्काम।
मुक्त, शांत, इच्छारहित, लौकिक भ्रमित तमाम॥१-१२॥
पूर्ण एको मुक्तश्चिदक्रियः।
असंगो निःस्पृहः शान्तो, भ्रमात्संसारवानिव॥१-१२॥
साक्षी आत्मा सब जगह, पूर्ण, सजीव, निष्काम।
मुक्त, शांत, इच्छारहित, लौकिक भ्रमित तमाम॥१-१२॥
निःसंगो निष्क्रियोऽसि,
त्वं स्वप्रकाशो निरंजनः।
अयमेव हि ते बन्धः, समाधिमनुतिष्ठति॥१-१५॥
असंग, आप स्थिर सदा, स्वयं दीप निर्दोष।
करे ध्यान मन शांत ये, हैं बंधन का दोष ॥१-१५॥
त्वया व्याप्तमिदं विश्वं, त्वयि प्रोतं यथार्थतः।
शुद्धबुद्धस्वरुपस्त्वं मा, गमः क्षुद्रचित्तताम्॥१-१६॥
विश्व यह तुमने रचा, तुम ही इसके नाथ।
ज्ञान-रूप तुम शुद्ध भी, हीन भाव ना साथ॥१-१६॥
यथैवेक्षुरसे क्लृप्ता,
तेन व्याप्तैव शर्करा।
तथा विश्वं मयि क्लृप्तं, मया व्याप्तं निरन्तरम्
॥२-६॥
रस गन्ने का रूप हैं,
चीनी भी रस-रूप।
वैसे जग मुझसे बना,
मैं ही जगत-स्वरुप |
॥२-६॥
प्रकाशो मे निजं रूपं, नातिरिक्तोऽस्म्यहं ततः।
यदा प्रकाशते विश्वं, तदाऽहंभास एव हि |
२-८॥
मेरा रूप प्रकाश है,
नहीं परे पहचान।
ज्यूँ प्रकाशित जग करे, "मै" की भी पहचान |
॥२-८॥
Raja Janak asks:
अहो विकल्पितं, विश्वंज्ञानान्मयि भासते।
रूप्यं शुक्तौ फणी रज्जौ, वारि सूर्यकरे यथा |
(२-९)
कल्पित जग मुझ में दिखे, कारण है अज्ञान।
रस्सी सर्प, सीप रजत,
सूर्य किरण जल भान |
॥२-९॥
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