शरीर का सूक्ष्म
ढाँचा बिल्कुल सितार जैसा है। मेरूदंड में इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना के तार लगे है।
यह तार मूलाधार
स्थित कुंडलिनी से बँध गए हैं।
आज्ञा चक्र से
मूलाधार तक के ६ चक्र इसके वाद्य स्थान हैं।
इसमें लँ, वँ, रँ, षँ, हँ और 'ओम्' की ध्वनियाँ प्रतिध्वनित
होती रहती हैं।
अब स्थूल जगत् में
सा, रे, ग, म, प, ध, नी, यह स्वर जब वाद्ययंत्र से ध्वनियाँ निकालते हैं और शरीरस्थ
ध्वनियों से टकराते हैं, तो इस संघर्षण और सम्मिलन से मनुष्य का अंतर्जगत् संगीतमय हो जाता
है इन तरंगों में असाधारण शक्ति भरी पड़ी है।
इन तरंगों के
प्रवाह से शारीरिक और मानसिक जगत् के सूक्ष्म प्राण गतिशील होते हैं, तदनुसार विभिन्न
प्रकार की योग्यता रुचि, इच्छा, चेष्ठा, निष्ठा, भावना, कल्पना, उत्कंठा, श्रद्धा आदि का आविर्भाव होता है। इनके आधार पर गुण, कर्म और स्वभाव का
सृजन होता है और उसी प्रकार जीवन की गतिविधियों से सुख-संतोष भी मिलता रहता है।
तात्पर्य यह है कि
शास्त्रीय संगीत की रचना एक ऐसी वैज्ञानिक प्रक्रिया पर आधारित है कि उसका लाभ
मिले बिना रहता नहीं।
इसी कारण संगीत को पिछले युग में
धार्मिक और सार्वजनिक समारोहों की अविच्छिन्न अंग माना जाता था। आज भी
विवाह-शादियों और मंगल पर्वों पर उसकी व्यवस्था करते और उसके लाभ प्राप्त करते
हैं।
हम देखते नहीं पर
अदृश्य रूप में ऐसे अवसर पर प्रस्फुटित स्वर-संगीत से लोगों को आह्लाद, शांति और प्रसन्नता
मिलती है लोग अनुशासन में बने रहते हैं।
मिलिट्री की कुछ विशेष परेडों में
वाद्य यंत्र प्रयुक्त होते हैं। उससे नौजवानों को कदम तोलने और मिलाकर चलने में
बड़ी सहायता मिलती है। कारण उस समय सबके अंतर्जगत् एक-सी विचार तरंगों से आविर्भुत
हो उठते हैं। ऐसे लाभों को देखकर विवाह-शादीयों, व्रत, त्यौहारों, मंदिरों में पूजन
आदि के समय कथा-कीर्तन की व्यवस्था की गई थी। अब भी उनका लाभ उठाया जाना चाहिए।
जहां यह व्यवस्था
प्रतिदिन हो सके, वहां दैनिक व्यवस्था रहे, तो उससे स्थानीय लोगों की अदृश्य रूप
में आत्मिक और आध्यात्मिक सेवा की जा सकती है। संयोजनकर्ताओं को तो दोहरा लाभ
मिलता ही है।
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