" वास्तु - विद्या "
by Swami Mrigendra Saraswati
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आज सर्वत्र वास्तु विद्याकी चर्चा और उसकी उपयोगिता बढ़ती जा रही है , लोगोँको अच्छे अनुभव रहे है , इसलिए धर्म - जाति व अन्य सभी तरह की सीमाओँको लाँघता हुआ यह विषय हर स्तर पर , हर माध्यमसे दस्तक दे रहा है , पर आज , इसे संकट या परेशानीसे छूटनेके लिए विशेष परिस्थितिमेँ विशेष मानसिकतासे ही याद किया जाता है , जो कि उचित नहीँ है , वास्तवमेँ तो इस विज्ञानके सिद्धान्तोँका पालन पहले दिनसे ही होना चाहिए ताकि वास्तुदोषका कोई भी दुष्प्रभाव हमारे भावी जीवनको रंच मात्रमेँ भी स्पर्श न कर सके ।
वास्तु विज्ञानको मानना एक ऐसे अनुष्ठानका आयोजन करना है जिसमेँ जीवनके प्रत्येक क्षेत्रकी सफलता उस हद तक सहज प्राप्त हो सकती है , जिसके कि आप अधिकारी हैँ , वास्तु विज्ञानको अपनानेका मतलब यह नहीँ है कि जो हमारे भाग्यमेँ नहीँ है , वह भी प्राप्त हो जायेगा , बल्कि यह है कि , जो हमेँ मिलना चाहिए , उसकी राहमेँ किसी भी तरहका व्यवधान उपस्थित न हो ।
ध्यान रहे , वास्तु विज्ञानको नहीँ माननेसे दो स्वरूपसे हानि होती है , पहले स्वरूपके अनुसार जो हमेँ सहजता व सरलतासे बिना किसी व्यवधानके मिलना चाहिए , वह नहीँ मिलता । दूसरे स्वरूपके अनुसार बिना कारण कोई - न - कोई संकट अपने अनेकानेक रूप धारण करके जीवन को हिलाकर रख देता है । आप उन संकटोँसे उबरनेके लिए लाख उपाय कर लेँ उन उपायोँसे कुछ समयके लिए ही आंशिक राहत मिलेगी सदैवके लिए नहीँ । उन उपायोँका प्रभाव ज्योँ - ज्योँ शिथिल पड़ने लगता है । त्योँ - त्योँ संकट फिर आ घेरते हैँ तो हम फिर विचलित हो जाते हैँ ।
इन परिस्थितयोँसे बचनेके लिए हमारे भारतीय मनिषियोँने सूक्ष्मातिसूक्ष्म परीक्षण व निरीक्षण करके महत्वपूर्ण शोधके प्रकाशमेँ वास्तु - संस्कारोँसे परिचय कराया है ठीक वैसे ही जैसे मनुस्मृति ( 2 . 27 . 28 ) के अनुसार द्विजातियोँमेँ माता - पिताके वीर्य एवं गर्भाशयके दोषोँको गर्भाधान - समयके होम तथा जातककर्मसे , चौल ( जन्मके समयके संस्कार ) से तथा मूँजकी मेखला पहनने ( उपनयन ) से दूर किया जाता है । वेदाध्ययन , व्रत , होम , त्रैविद्य व्रत , पूजा , सन्तानोत्पत्ति , पंचमहायज्ञोँ तथा वैदिक यज्ञोँसे मानवशरीर ब्रह्म - प्राप्तिके योग्य बनाया जाता है । " महर्षि याज्ञवल्यक्य " का मत है कि संस्कार करनेसे बीज - गर्भसे उत्पन्न दोष मिट जाते हैँ , निबन्धकारोँ तथा व्याख्याकारोँने इन बातोँको कई प्रकारसे कहा है । " संस्कारतत्त्व " मेँ उद्धृत " महर्षि हारित " के अनुसार जब कोई व्यक्ति गर्भाधानकी विधिके अनुसार संभोग करता है , तो वह अपनी पत्नीमेँ वेदाध्ययनके योग्य भ्रूण स्थापित करता है , बीज , रक्त एवं भ्रूणसे उत्पन्न दोष जातकर्म , नामकरण , अन्नप्राशन . चूड़ाकरण एवं समावर्तनसे दूर होते हैँ । इन आठ प्रकारके संस्कारोँसे अर्थात् गर्भाधान , पुंसवन , सीमान्तोन्नयन , जातकर्म , नामकरण , अन्नप्राशन , चूड़ाकरण एवं समावर्तनसे पवित्रताकी उत्पत्ति होती है ।
यदि हम संस्कारोँकी संख्या पर ध्यान देँ तो पता चलेगा कि उनके उद्येश्य अनेक थे । उपनयन जैसे संस्कारोँका सम्बन्ध था आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक उद्येश्योँसे . उनसे गुणसम्पन्न व्यक्तियोँसे सम्पर्क स्थापित होता था , वेदाध्ययनका मार्ग खुलता था तथा अनेक प्रकारकी सुविधाएँ प्राप्त होती थी । उनका मनोवैज्ञानिक महत्त्व भी था , संस्कार करानेवाला व्यक्ति एक नये जीवनका आरम्भ कराता था , जिसके लिए वह नियमोँ के पालन के लिए प्रतिश्रुत होता था । नामकरण , अन्नप्राशन एवं निष्क्रमण ऐसे संस्कारोँका केवल लौकिक महत्त्व भी था . उनमेँ केवल प्यार , स्नेह एवं उत्सवोँकी प्रधानता मात्र झलकती है । गर्भाधान , पुंसवन , सीमान्तोन्नयन ऐसे संस्कारोँका महत्त्व रहस्यात्मक एवं प्रतिकात्मक था । विवाह - संस्कारका महत्त्व था , दो व्यक्तियोँको आत्मनिग्रह , आत्म - त्याग एवं परस्पर सहयोग की भूमी पर लाकर समाजको चलते जाने देना ।
ऐसे ही - मेरे नारायण । " वास्तु " मेँ भी दोषोँको मार्जन करनेके लिए प्रारम्भसे ही अत्यन्त प्रभावशाली संस्कार किये जाते हैँ ।
आप वास्तु दोषोँकी सूचीसे उनके मार्जनके लिए संस्कारोँके महत्वको सहजता से समझ सकते हैँ जैसे दिशा दोष , शल्य दोष , भवन दोष , गृहारम्भ दोष , भूमि दोष , गृहारम्भ विधि दोष , शालाओँका स्वरूप दोष व नाम भेद दोष , गृह वाटिका दोष , वर्ग विचार दोष , भवन वेध दोष , राशि ज्ञान दोष , भूमिकी ढलान दोष , मर्म स्थान दोष , सूर्य - चन्द्र साधन दोष , पिण्ड साधन दोष , आयादि दोष , निर्माण दोष , राहु मुख चन्द्र दोष , द्वार दोष , आन्तरिक दोष , वाह्य दोष , द्वार वेध दोष , कपाट दोष , कुम्भचक्र दोष , देवमूर्ति स्थापना दोष , जल प्रतिष्ठा दोष आदि आदि दोष होते हैँ । इन दोषोकी एक रचना किस प्रकार की हो , उससे भी आगे यह भी ध्यान देना होता है कि किसी स्थानको किस कार्यके लिए आरक्षित रखा जाये , खिड़की दरबाजोँमेँ न सिर्फ आकार - प्रकारका महत्व है बल्कि यह भी देखना होता है कि उसमेँ आपसमेँ डिग्रीके आधार पर कितना तालमेल है । रंगरोगन , पथ्थर एवं हवा व प्रकाशके स्तोत्रोँ पर भी ध्यान देना आवश्यक होता है ।
निष्कर्ष पर पहुँचनेके लिए यह भी देखना होता है कि भवनके आसपास किस तरहके भवन हैँ या क्या स्थिति है । बने हुए भवनोँ की न सिर्फ उनकी आकृति व ऊँचाई आदि महत्त्व परखा जाता है , बल्कि वहाँ होनेवाली गतिविधियोँके प्रभावसे हमारा भवन किस तरहसे प्रभावित होगा , इस पर भी ध्यान देना होता है । कहनेका अभिप्राय यह है कि मनुष्य जन्म समयसे जैसे संस्कारित आदि हो , वैसे ही वह जहाँ रहने वाला है या अपना कार्य करने वाला है , वह जगह भी हर दृष्टि से दोष रहित हो । यहाँ साथ ही साथ एक बात स्पष्ट करते जायेँ कि उपर बताए गए समस्त वास्तु दोष किसी एक ही जगह विद्यमान नहीँ होते । पर दोषोकी इस सूचीमेँ से एकाध भी दोष हमारी जगह पर है तो वह हमेँ वह दोष अपने स्वभावके अनुसार नित्य निरंतर परेशान करता रहता है । इसका मतलब यह भी है कि वास्तु अपनानेसे समस्याओँका समाधान हो जायेगा ।
समस्याओँका नाम ही जीवन है , जीवन है तो समस्यायेँ जीवनका अभिन्न अंश है , जिनका कभी अन्त नहीँ होगा । इतिहास उठाकर देख ले - नारायण । ऐसा कभी नहीँ हुआ कि समस्या नहीँ रही हो । कितना भी बड़ा कितना भी शक्तिशाली व्यक्तित्व रहा हो , समस्या तो उसके भी मस्तिष्क आंगनमेँ नृत्य करती रही है क्योँकि जो कुछ हमसे या हमारे उपर घटित हो रहा है उसके पीछे अनेकानेक शक्तियोँका प्रभाव रहता है । और तो और ग्रह नक्षत्रोँके प्रभावसे भी हम सदासर्वदा प्रभावित होते रहते है ।
यहाँ यह बात विशेष रूपसे ध्यान देने योग्य है कि वास्तु भी ज्योतिषका ही एक अभिन्न अंग है । इसमेँ किसी भी तरहका संशय नहीँ होना चाहिए क्योँकि हम और हमारी दुनिया कालके चक्रमेँ घूमते रहते हैँ । यह ब्रह्माण्ड जड़ नहीँ वरन् चेतन है और हर क्षण यह परिवर्तित होता रहता हैँ । अत्यंत तीव्र वेगसे चल रहे शक्ति प्रवाह हर क्षणको एक अलग रूप देते हैँ । एक अलग आयाम देते हैँ । घड़ी , पल , क्षण , सेकेण्ड , मिनट , घंटे , दिन , रात , महीनेँ और साल नित नूतन होते चले जाते हैँ । समयकी गति अबाध है । परन्तु समयका यह प्रवाह बिल्कुल सीधा नहीँ है । प्राचीन मनिषियोँ और आधुनिक विज्ञानके अनुसार इस प्रवाहकी लय है । ताल है । छन्द है । यह पूरी सृष्टि लय , ताल और छन्दोँमेँ चलती है । वैदिक परम्पराके ऋषियोँका सदासे ही मत रहा है कि मनुष्य ब्रह्माण्डसे स्वतंत्र नहीँ है बल्कि उसीमेँ गुँथा हुआ है । पर पाश्चात्यकी भौतिक सभ्यतच ब्रह्माण्डके विभिन्न उपादानोँके आपसी सम्बन्धको समझ न पाई ।
परन्तु अब इस 20 वीँ शदीके अन्ततक पाश्चात्य वैज्ञानिकोँको यह एहसास हो चुका है कि इस पाशविक संस्कृतिसे छुटकारा पाना बहुत जरूरी है । Quantum Physics की अभूतपूर्व खोजोँने यह साबित कर दिया कि पूरा ब्रह्माण्ड एक प्राणीकी भाँति है और मनुष्य सहित इसके सभी उत्पादन एक दूसरेसे जुड़े हुए हैँ । अंतरिक्ष शून्य नहीँ है वरन् सूक्ष्म उर्जा - प्रवाहोँ आदिसे भरा पड़ा है और इन्हीँ पहलुओँ पर ध्यान देकर वास्तु संस्कारोँकी एक लम्बी श्रृंखला है , जो हमेँ सुख - शान्ति और समृद्धिके दर्शन कराती है ।
समाप्त ।
श्री नारायण हरिः ।
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