" बुद्धियोग और सकाम कर्म " by Swami Mrigendra Saraswati !! श्रीवासुदेव कृष्णाय नमः !!
" बुद्धियोग और सकाम कर्म "
by Swami Mrigendra Saraswati
!! श्रीवासुदेव कृष्णाय नमः !!
* भगवान श्रीवासुदेव कृष्ण गीतागायन करते हुये " धनञ्जय - अर्जुन " को संकेत करते अनुग्रह करते है कि " हे धनञ्जय , बुद्धियोग की अपेक्षा सकाम कर्म बहुत निकृष्ट है । फलतृष्णा से ही प्रेरिरत होने वाले दीन ही रहते हैँ तुम बुद्धि ही आश्रयण करो । *
" दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणा फलहेतवः ॥ "
" बुद्धियोग " और " सकाम कर्म " , इन्हे कभी भी आप एक नहीँ समझ लेँगे । यह भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण का तात्पर्य है । प्रायः लोग कर्म करने को ही " कर्मयोग " समझ लेते हैँ । भगवान् श्रीवासुदेव बार - बार जोर देकर अपने गीतागायन मेँ कहते हैँ कि कर्म करना " कमयोग " नहीँ है , वरन् समता की बुद्धि मेँ रहकर कर्म करना " कमयोग " है । कर्म इस बुद्धियोग की अपेक्षा निकृष्ट से निकृष्ट है क्योँकि वह संसार बंधन मेँ डालने वाला है । " कर्मयोग " संसार बंधन से छुड़ाने वाला है । कर्म और कर्मनिष्ठा एक चीज़ नहीँ है जैसे ज्ञान और ज्ञाननिष्ठा एक चीज़ नहीँ है । कर्म करते हुये भी कर्मनिष्ठा नहीँ होती क्योँकि आप कर्म को ही सब कुछ नहीँ मानते । इसी तरह बहुतोँ को ज्ञान करते हुए भी , सारे " वेदान्त " आदि शास्त्रोँ को पढ़ते हुये भी ज्ञाननिष्ठा नहीँ है , केवल जानना चाहते हैँ कि क्या लिखा है , ज्ञान मेँ नितरां स्थित ( ज्ञान निष्ठा ) नहीँ है। बड़े - बड़े दर्शनशास्त्र के प्रवक्ता होते हैँ , उनकी निष्ठा ज्ञान मेँ नहीँ होती है । जगत् मिथ्यात्व समझ - समझा देने वाले मात्र से स्वयं को यह जँच नहीँ जाता कि जगत्र सत्य नहीँ है । वैराग्यादि अनुबन्धनोँ के अभाव मेँ ज्ञान उद्देश्य नहीँ बन पाता , ज्ञान से अन्य जो कुछ मिल सके वही उद्देश्य रहता है । इसी प्रकार कर्म कर रहे हैँ तो " कर्मनिष्ठा " है - यह जरूरी नहीँ है ।
कर्म तो भक्त भी करता है लेकिन निष्ठा उसकी भगवान् मेँ होती है । वेदान्त के बड़े भारी तत्त्वज्ञ आचार्य हुए हैँ श्री मधुसूदन सरस्वती उन्होँने बड़ा ही सुन्दर सुस्पष्ट करते हुए लिखा है कि प्रवृत्ति कर्म करने वाला भी निवृत्ति मार्गी हो सकता है , निवृत्ति कर्म करने वाला भी प्रवृत्ति मार्गी हो सकता है । रावण आदि ने घोर तपस्या आदि निवृत्ति धर्म किया लेकिन उनकी निवृत्ति , प्रवृत्ति के लिये थी कि " इसरे ताकत मिलेगी तो देवताओँ का राज्य जीतेँगे । " यह प्रवृत्ति मार्ग है जिसमेँ निवृत्ति कररहे है प्रवृत्ति के लिये । इसी प्रकार यदि प्रवृत्ति कर रहे हैँ निवृत्ति के लिये तो वह निवृत्ति मार्ग है । इसलिये भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण ने कहा कि कर्म और कर्मयोग मेँ बहुत बड़ा अन्तर है।
भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण नतीजा निकालते हैँ " हे अर्जुन ! यह जो बुद्धियोग तुम्हेँ हमने बताया है , इसीका सहारा लो । भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण ने बड़ी विचित्र बात कह कि " बुद्धि की शरण लो । " शरण " का अर्थ घर होता है क्योँकि उसमेँ सर्दी - गर्मी से बचकर रहते हैँ , या विपत्ति आई हो और कोई उससे रक्षा करे तो उसे शरण कहते हैँ । वस्तुतः तो दोनोँ जगह अर्थ एक ही हैं । घर जड रक्षक है । सभी से बचाता तो है पर जड है । रक्षा करने वाला भी हमेँ विपत्ति से बचाता है परन्तु चेतन है । शरण का मुख्य अर्थ " बचाने वाला " होता है । ऐसे बुद्धि कोई चीज़ तो है नहीँ जो आपको बचायेगी । बुद्धि अर्थात् आपका निश्चय । फिर भगवान् ने कैसे कहा कि " बुद्धि का शरण लो ! " तात्पर्य है कि इस निश्चयात्मिका बुद्धि को करने पर आपकी रक्षा होती है । " बुद्धौ सत्यां " यह बुद्धि होने पर शरण की प्राप्ति होती है । इसलिये भगवान् ने कहा " बुद्धौशरणमन्विच्छ " । " कठोपनिषद् " ने कहा है - " आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु । बुद्धिं तु सारथिं विद्धि " अर्थात् शरीर को रथ समझेँ और बुद्धि को सारथि । अर्जुन के सामने श्रीवासुदेव कृष्ण सारथि बैठे हैँ इसलिये बुद्धि रूपी जो परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण हैँ उनकी शरण लेँ । अथवा बुद्धि का मतलब ज्ञान भी होता है इसलिये ज्ञान को बताने वाले जो हमारे पूज्य गुरुजन उनकी शरण लेँ । तात्पर्य है कि बुद्धि रक्षा करने वाली है अथवा सारथि रूप से श्रीवासुदेव कृष्ण रक्षा करने वाले हैँ अथवा ज्ञान को देने वाले पूज्य गुरुजन हैँ । इनमेँ से किसी एक की शरण ले ही लेँ ।
शरण लेने का मतलब होता है जिसकी शरण लेते हैँ उनके सर्वथा अनुकूल अपने को चलाना । कोई पाकिस्तान से आये , शरण मांगे , आप उसे शरण दे दो , वह शरण लेकर पाकिस्तान की गुप्तचरी का काम करने लगे तो क्या उसे बचाओगे या कहोगे कि शरण ली है तो यहीँ का बनना पड़ेगा ? इसी प्रकार बुद्धि का शरण ले अर्थात् समता मेँ शरण ले तो कभी भी विषमता नहीँ आने देँ । अथवा भगवान् की शरण लो अर्थात् प्रभु की आज्ञा का पालन करेँ । अथवा गुरु की शरण ले तो गुरु की आज्ञा का पालन करेँ । यह शरणकौन ले सकता है ? जो फल को कारण बनाना छोड़ देता है । समता मेँ रहने का मतलब बेवकुफी नहीँ समझेँगे । मैने दूकान खोली लेकिन घाटा हो रहा है , फायदे की सम्भावना भी नहीँ दीख रही है तो फिर मैँ क्या अपना धन्धा बंद करके दूसरा करूँ या न करूँ या सिद्धि - असिद्धि मेँ सम रहूँ और घाटा खाता रहूँ ? भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण यह नहीँ कह रहे हैँ कि नफे - नुकसान मेँ सम रहकर दिवालिये हो जाओ । यदि शास्त्रीय कर्म हैँ तो शास्त्रानुसार समझ कर करेँ , लेकिन कर्म है तो लौकिक दृष्टि से विचार करके करेँ । सिद्दि और असिद्धि मेँ समता अर्थात् फल उत्पन्न होने के बाद " यह मेरा ही है " ऐसी बुद्धि न होना योगबुद्धि मेँ स्थिर रहना है ।
जो फलबुद्धि वाले होँगे वे इस योग - बुद्धि मेँ स्थिर कभी नहीँ हो पायेँगे । इसी प्रकार फलहेतु वाले भगवान् की शरण मेँ भी कभी स्थिर नहीँ रह पायेँगे । फलहेतु वाले बुद्धि की शरण नहीँ ले सकते क्योँकि कृपण हैँ । कंजूस को कृपण कहते हैँ । घी मेँ मख्खी पड़ जाये तो मख्खी को अच्छी तरह निचोड़ कर फेँकते हैँ ताकि उसमेँ से घी निकल जाये , चाहे थोड़ा मख्खी का हिस्सा भी निकल आये । ठीक इसी प्रकार जो कृपण लोग हैँ वे कहते हैँ कि कर्म का फल मुझे ही मिले , कुछ और ज्यादा मिल जाये । इसलिये कई लोग कहते हैँ कि " श्रीकूष्णार्पणमस्तु " कहकर भगवान् को जो दिया जाता है वह सौ गुना होकर मिलता है इसलिये भगवान् को अर्पण करना चाहिये । ऐसे कूपण न भगवान् " सदाशिव " की और न श्री गुरु की शरण ले सकते हैँ । न उनकी बुद्धि समता मेँ स्थिर रह सकती है ।
श्री नारायण हरिः ।
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