Tuesday, January 12, 2021

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 *गर्ग ऋषि* को उद्धृत कर *'शेष ज्योतिष'* (याजुष् ज्योतिष की टीका ) में लिखा है


*'तथा च गर्गः'*

*'तेषां च सर्वेषां नक्षत्राणां कर्मसु कृत्तिकाः प्रथममाचक्षते। श्रविष्ठा तु संख्यायाः पूर्वा लग्नानाम्। अनुराधं पश्चिमम्। विद्वानां रोहिणी सर्वनक्षत्राणाम्। मघाः सौर्याणाम्, भोग्यानां चार्यमा, नक्षत्राणां सर्वासां षड्राशीतानामादिः श्रविष्ठा एवं पञ्चवर्षस्य युगस्यादिः संवत्सरः*

*वसन्त ऋतूनाम् माघो मासानाम् पक्षाणां शुक्लः*

*अयनयोरुत्तरम् दिवसानां शुक्लप्रतिपत् मुहूर्तानां रौद्रः करणानां किंस्तुघ्नः ग्रहाणां ध्रुवः।'*


{ऋषि गर्ग को प्रायः सभी प्राचीन ज्योतिषियों ने अपने ग्रन्थों मे स्मरण कर उनके वचन प्रमाणस्वरूप दिये।

*वृद्धगर्गसंहिता*, Greek Indica जैसी विलुप्त है। भारत में तथा Cambridge में गर्गसंहिता की हस्तलिखित प्रतिलिपि (पाण्डुलिपि) होने के दावे हैं किन्तु गर्गसंहिता का स्वरूप अभी अज्ञात है।}


*'तेषां च सर्वेषां नक्षत्राणां कर्मसु कृत्तिकाः प्रथममाचक्षते।'*


"उन सभी नक्षत्रों के कर्मों में *कृत्तिका* को प्रथम कहा गया है।"


*'श्रविष्ठा तु संख्यायाः पूर्वा लग्नानाम्।'*


"श्रविष्ठा (धनिष्ठा) तो पूर्वा लग्न है अर्थात् उत्तरायणारम्भ है।"


जब हमारी नक्षत्र गणना कृत्तिका से आरंभ होती थी। महर्षि गर्ग ने वैदिककाल में दो स्वतन्त्र नक्षत्र गणनाओं का उल्लेख किया है - एक *कृत्तिकादि* और दूसरी *धनिष्ठादि*। गर्ग वाक्य है कि - *तेषां सर्वेषां नक्षत्राणां कर्मसु कृत्तिका प्रथममाचचक्षते श्रविष्ठा तु संख्याया: पूर्वा लग्नानाम्*


"सभी नक्षत्रों में अग्न्याधान आदि कर्मों में कृत्तिका की गणना प्रथम कही जाती है किंतु धनिष्ठा क्षितिज में लगनेवाले नक्षत्रों में प्रथम है।"


*श्रविष्ठाभ्यो गुणाभ्यस्तान् प्राग्विलग्नान् विनिर्दिशेत्।*


"गुण (तीन) तीन की गणना कर धनिष्ठा से पूर्व क्षितिज में लगे नक्षत्रों को बताना चाहिए।"


इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उस समय २७ नक्षत्रों में तीन-तीन भाग करके नक्षत्र चक्र के नव भाग किए गए थे। *अथर्व ज्योतिष* के नव विभागों का सामंजस्य इससे हो जाता है।


*'अनुराधं पश्चिमम्।'*


"अनुराधा में शरद् विषुव है।"

 

*'विघ्नानां रोहिणी सर्वनक्षत्राणाम्।'*


"विघ्न नक्षत्रों में ज्येष्ठा प्रथम स्थानीय है।"


*तैत्तिरीय संहिता* तथा *तैत्तिरीय ब्राह्मण (१.५)* में ज्येष्ठा को रोहिणी कहा गया है। *अथर्वसंहिता ६.११०.२* में ज्येष्ठाघ्नि, आथर्वण ज्योतिष के अनुसार १६ वाँ नक्षत्र *निधन नक्षत्र* है , कृत्तिका से ज्येष्ठा भी १६वाँ है।


*'मघाः सौर्याणाम्।'*

"सिंह राशि का स्वामी सूर्य है। अतः सिंह राशिगत नक्षत्र *'सौर्य'* सञ्ज्ञक होते हैं जिनमें प्रथम स्थानीय नक्षत्र *मघा* है।"


*'भोग्यानां चार्यमा।'*

"कन्या राशि के अपर नाम *युवती, रमणी* तथा *भोग्या* भी हैं। अतः कन्याराशिगत नक्षत्र *भोग्या* सञ्ज्ञक होते हैं, जिनमें *अर्यमा (उ० फाल्गुनी)* प्रथमस्थानीय नक्षत्र है।"


*'नक्षत्राणां सर्वासां षड्राशीतानामादिः श्रविष्ठा'*

यदि यहाँ सर्वासां के स्थान पर सर्वेषां पाठ का आग्रह हो तो *सर्वेषां पद नक्षत्राणां* का विशेषण होगा, यदि सर्वासां पाठ यथावत् लिया जाये तो वह *षड्राशीतानां* ( साधु पाठ 'षड्राशीनाम्') का विशेषण होगा । 

आशय यह है कि एक अयन की छः राशियों के सभी नक्षत्रों अथवा एक अयन की सभी छः राशियों के नक्षत्रों में प्रथमस्थानीय नक्षत्र *श्रविष्ठा (धनिष्ठा)* है।


*'एवं पञ्चवर्षस्य युगस्यादिः संवत्सरः'*


"पाँच वर्षों के युग के प्रथम वर्ष का आरम्भ सम्वत्सर से है।"


*'वसन्त ऋतूनाम्'*


"ऋतुओं में प्रथम स्थानीय ऋतु वसन्त है।"


*'माघो मासानाम्'*


"प्रथमस्थानीय मास माघ है।"


*'पक्षाणां शुक्लः'*


"पक्षों में प्रथमस्थानीय पक्ष शुक्ल है।"


*'अयनयोरुत्तरम्'*


"अयनों में 'उत्तर' अयन प्रथम है।"


*'दिवसानां शुक्लप्रतिपत्'*


"दिवसों में प्रथमस्थानीय दिवस शुक्ल प्रतिपदा वाला है।"


*'मुहूर्तानां रौद्रः'*


"मुहूर्त्तों में प्रथमस्थानीय मुहूर्त्त 'रौद्र' है।" 


*'करणानां किंस्तुघ्नः'*


"करणों (तिथ्यर्द्ध) में प्रथमस्थानीय करण 'किंस्तुघ्न' है।" *आथर्वण ज्योतिष* में इसे *कौस्तुभ* कहा गया है। 


*'ग्रहाणां ध्रुवः'*

"ग्रहों (खगोलीय पिण्डों) में प्रथम स्थान *ध्रुव* तारे का है।" 

1 comment:

  1. One Friend shared the following explanation. It is only to show the continuous changes occurring. It is very humbly submitted that this is not an explanation to the word's of Garg Rishi dictums.Please. BN Shukla


    Declination.
    In astronomy, declination (abbreviated dec; symbol δ) is one of the two angles that locate a point on the celestial sphere in the equatorial coordinate system, the other being hour angle. Declination's angle is measured north or south of the celestial equator, along the hour circle passing through the point in question.
    The root of the word declination (Latin, declinatio) means "a bending away" or "a bending down". It comes from the same root as the words incline ("bend toward") and recline ("bend backward").
    In some 18th and 19th century astronomical texts, declination is given as North Pole Distance (N.P.D.), which is equivalent to 90 – (declination). For instance an object marked as declination −5 would have an N.P.D. of 95, and a declination of −90 (the south celestial pole) would have an N.P.D. of 180.
    The Earth's axis rotates slowly westward about the poles of the ecliptic, completing one circuit in about 26,000 years. This effect, known as precession, causes the coordinates of stationary celestial objects to change continuously, if rather slowly. Therefore, equatorial coordinates (including declination) are inherently relative to the year of their observation, and astronomers specify them with reference to a particular year, known as an epoch. Coordinates from different epochs must be mathematically rotated to match each other, or to match a standard epoch.

    The currently used standard epoch is J2000.0, which is January 1, 2000 at 12:00 TT. The prefix "J" indicates that it is a Julian epoch. Prior to J2000.0, astronomers used the successive Besselian Epochs B1875.0, B1900.0, and B1950.0

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