Friday, October 30, 2020

 This one for Astro seekers.

A little bird told me,"" some times one finds it difficult to know the real reason for whats happening to a Native..those times PRASANA chart will help.

=The Prasana chart can be made for the Time, like regular chart prepaeation or the following method.

= Take a book ask the Native to open the book and see the page number, left side for the female Native and right for the male. Divide the number by 9 (Navamsa) and locate the Prsana lag.( ex..number is 76. divided 9 (one rasi) give

8 times and4 reminder. that means 8 rasi are over and 9 rasi that is DHANUS.(Kalapurusha) note.multiplies of 108 should be removed..ex 206.. remove 108 reminder 98 divide this by 9 ,,10 times reminder 8. 10 rasis are over then its Kumbha.IMPORTANT if there is no Reminder like 36,45,72 etc. Then its not Time to know, drop the checking.


= look for Planets in the 6,8,12 .

=Planet in the 6 house indicates the DOSHA. (Self mistake)

=Planet in the 8 house indicates the KOPHA (Anger) oft others.

= Planet in the 12 indicates the SAPHA (Curse) of others.


=The others includes the Family deity, parents, gurus,people dead,enimies, birds, animals, snakes etc.

If No planets are there, then nothing is wrong...""


Courtsey

Prof  Av Sundaram


 केतु


केतु के नाम से इतना भय उत्पन्न नहीं होता जितना राहु के नाम से होता है। राहु की छवि ही ऐसी गढ़ी गई है। यह अकारण नहीं है, क्योंकि ज्योतिष में राहु का नैसर्गिक बल सूर्य से भी अधिक माना गया है। प्रसिद्ध ऋषि जैमिनी ने तो केतु को बहुत अधिक प्रतिष्ठा दी है और वे उसे मोक्ष कारक भी मानते हैं। जैमिनी ने अपने जैमिनीसूत्रम् में यह बताया है कि जन्म पत्रिका के 12वें भाव में अगर बृहस्पति और केतु एक साथ स्थित हों तो मोक्ष करा देते हैं। ऐसा तब भी संभव है जब 12वें भाव के स्वामी या 12वें भाव को बृहस्पति और केतु एक साथ प्रभावित कर रहे हों। परन्तु इनमें से एक भी 12वें भाव या 12वें भाव के स्वामी को प्रभावित करें तो अगला जन्म अच्छी योनि में होता है और व्यक्ति मोक्ष मार्ग प्राप्त करने के लिए उचित उपाय करने लगता है। 

समुद्र मंथन की प्रक्रिया में जब अमृत का वितरण हो रहा था, तो दैत्य स्वरभानु देवताओं की पंक्ति में जाकर बैठ गये। सूर्य और चन्द्रमा ने भगवान विष्णु को इसका बोध करवाया तो उन्होंने स्वरभानु का सिर सुदर्शन चक्र से काट दिया। सिर तो राहु कहलाया और धड़ केतु। परन्तु चूंकि अमृत गले से नीचे उतर चुका था इसलिए राहु और केतु दोनों ही अमर हो गये। सूर्य और चन्द्रमा से कुपित होने के कारण राहु और केतु दोनों ही सूर्य ग्रहण या चन्द्र ग्रहण करा देते हैं। 

मत्स्यपुराण के अनुसार केतु बहुत से हैं। इनमें धूमकेतु प्रधान है। केतु का वर्ण धूम्र, आयुध गदा तथा वाहन गीध। सभी केतु द्विबाहु हैं, उनके मुँह विकृत हैं और वे वरदान देने की मुद्रा में रहते हैं। केतु के अधिदेवता चित्रगुप्त हैं जो कि प्राणियों के कर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं। इसका विवरण स्कन्द पुराण में मिलता है। 

ज्योतिष में केतु को आकस्मिक घटनाएँ देने वाला माना है। केतु ग्रहों के कारण दोषों का नाश भी करते हैं और जिस ग्रह के साथ होते हैं, उस ग्रह का परिणाम देते हैं। मनुष्य के शरीर में दाँत और त्वचा पर केतु का नियंत्रण होता है। जब केतु की दशा-अन्तर्दशा आती हैं, या तो दाँतों में चोट लगती है या नया दाँत लगता है या दाँतों पर कैप लगती है या दाँतों के रोग होते हैं। 

अगर जन्म पत्रिका के दूसरे भाव से केतु का सम्बन्ध हो और शुभ ग्रह की दृष्टि हो तो व्यक्ति की दंत पंक्ति बहुत सुन्दर होती है। जन्म पत्रिका के 12वें भाव या दूसरे भाव में केतु की स्थिति और केतु का प्रभाव दाँत से सम्बन्धित रोग उत्पन्न करता है। 

केतु का सम्बन्ध ज्योतिष में ध्वजा से भी जोड़ा जाता हैं। यदि जन्म पत्रिका में केतु शुभ अवस्था में हो तो व्यक्ति को सम्मान दिलाता है, पुरस्कार दिलाता है। केतु शुभ होने पर अचानक बहुत बड़ा धन भी दिलाता है। केतु पर शुभ ग्रहों का प्रभाव हो तो समाज में, संस्थाओं में या राष्ट्र में व्यक्ति शीर्ष स्थिति पर पहुँच सकता है परन्तु केतु यदि अशुभ हो, पाप ग्रहों के बीच में हो, या शनि, मंगल जैसे ग्रहों से पीडि़त हो तो व्यक्ति का पतन भी करा देता है। 

केतु की दशा-अन्तर्दशाओं में दाँत के रोग या त्वचा से सम्बन्धित रोग उत्पन्न होते हैं। केतु शल्य चिकित्सा के माध्यम से शरीर का कोई अंग निकाल देने में भी माध्यम बनते हैं। बैक्टीरिया या वायरस से होने वाले रोग त्वचा पर होते हैं और उनका इलाज मुश्किल हो जाता है। केतु का कुल महादशा काल 7 वर्ष का होता है और केतु के बारे में यह मान्यता है कि जिस ग्रह के साथ होते हैं, उस ग्रह का परिणाम देते हैं। परोपकार करने में केतु बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं और व्यक्ति को ईश्वर से नजदीक ले जाने में सहायक सिद्ध होते हैं। इस क्रम में व्यक्ति दान पुण्य और परोपकार अधिक मात्रा में करता है। दूसरे भाव से केतु का सम्बन्ध होना इसलिए विशेष है क्योंकि वह व्यक्ति सच्ची सलाह देता है और कटुवाणी में संकोच नहीं करता। इस कारण से उसके सम्बन्ध बहुत बड़ी संख्या में नहीं होते और लोग उससे कटने लगते हैं।


साभार श्री सतीश शर्मा जयपुर

 Random Class.( TRANSIT) 


Student : Master, please say something about Transits. 


Master: OK.. There are two kinds of Transits..

One with reference to Moon (Gochar), dealing with Vassana of last life.

Another with reference of all Planets.. (Grahachar).


Jyotish gave more importance to Gochar. Here you take the location of the Moon as base and Planets transiting in various houses and results there off.

You find these in any standard Jyotish books.


In Grahachar all Planets Transit with reference to the houses /Natal Planets are taken for results.


Today we take Transiting Planets with reference to Natal Planets.


A Transiting Planet influnces a Natal Planet.

Ex. Saturn in Transit in Trine over a Natal Jupiter gives a job or a new Physical activities.(Job) 

On the other hand Jupiter transits in trine, to Natal Saturn the Native makes a choice of a new physical activities. (Job) 


Saturn represents Fate.. All will be affected

Jupiter represents Desire of the Native. 

Rahu/Ket. Represents the Natives Karmpal.


The Transit of a Node in trine to Natal Saturn or Jupiter is an important transit.


Now an important Double Transit  I want you to CHECK. and Report. 


Transiting Rah should be in Trine to  Jupiter or Saturn at the same time Ket should be in Trine to Jupiter or Saturn.


Ex. Now Rah in Taurus../ Ket in Scorpio.

Jupiter should be in trine.. (Taurus /Virgo/Capricorn).

Saturn should be in trine.. (Scorpio /Pisces /Cancer)

If not..

Jupiter in Scrpoio /Pisces /Cancer and

Saturn in Taurus /Virgo/Capricorn..


Find out What major event of Karmpal  took place for the Native..when such Transits happened. 


My Note. This is possible only if in Natal chart Jupiter /Saturn is in 3/11 or 7/7 position only. 


Courtesy.

Sh Av Sundaram

Monday, October 19, 2020

 *पाण्डव पाँच भाई थे जिनके नाम हैं -*

*1. युधिष्ठिर    2. भीम    3. अर्जुन*

*4. नकुल।      5. सहदेव*


*( इन पांचों के अलावा , महाबली कर्ण भी कुंती के ही पुत्र थे , परन्तु उनकी गिनती पांडवों में नहीं की जाती है )*


*यहाँ ध्यान रखें कि… पाण्डु के उपरोक्त पाँचों पुत्रों में से युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन*

*की माता कुन्ती थीं ……तथा , नकुल और सहदेव की माता माद्री थी ।*


*वहीँ …. धृतराष्ट्र और गांधारी के सौ पुत्र…..*

*कौरव कहलाए जिनके नाम हैं -*

*1. दुर्योधन      2. दुःशासन   3. दुःसह*

*4. दुःशल        5. जलसंघ    6. सम*

*7. सह            8. विंद         9. अनुविंद*

*10. दुर्धर्ष       11. सुबाहु।   12. दुषप्रधर्षण*

*13. दुर्मर्षण।   14. दुर्मुख     15. दुष्कर्ण*

*16. विकर्ण     17. शल       18. सत्वान*

*19. सुलोचन   20. चित्र       21. उपचित्र*

*22. चित्राक्ष     23. चारुचित्र 24. शरासन*

*25. दुर्मद।       26. दुर्विगाह  27. विवित्सु*

*28. विकटानन्द 29. ऊर्णनाभ 30. सुनाभ*

*31. नन्द।        32. उपनन्द   33. चित्रबाण*

*34. चित्रवर्मा    35. सुवर्मा    36. दुर्विमोचन*

*37. अयोबाहु   38. महाबाहु  39. चित्रांग 40. चित्रकुण्डल41. भीमवेग  42. भीमबल*

*43. बालाकि    44. बलवर्धन 45. उग्रायुध*

*46. सुषेण       47. कुण्डधर  48. महोदर*

*49. चित्रायुध   50. निषंगी     51. पाशी*

*52. वृन्दारक   53. दृढ़वर्मा   54. दृढ़क्षत्र*

*55. सोमकीर्ति  56. अनूदर    57. दढ़संघ 58. जरासंघ   59. सत्यसंघ 60. सद्सुवाक*

*61. उग्रश्रवा   62. उग्रसेन     63. सेनानी*

*64. दुष्पराजय        65. अपराजित* 

*66. कुण्डशायी        67. विशालाक्ष*

*68. दुराधर   69. दृढ़हस्त    70. सुहस्त*

*71. वातवेग  72. सुवर्च    73. आदित्यकेतु*

*74. बह्वाशी   75. नागदत्त 76. उग्रशायी*

*77. कवचि    78. क्रथन। 79. कुण्डी* 

*80. भीमविक्र 81. धनुर्धर  82. वीरबाहु*

*83. अलोलुप  84. अभय  85. दृढ़कर्मा*

*86. दृढ़रथाश्रय    87. अनाधृष्य*

*88. कुण्डभेदी।     89. विरवि*

*90. चित्रकुण्डल    91. प्रधम*

*92. अमाप्रमाथि    93. दीर्घरोमा*

*94. सुवीर्यवान     95. दीर्घबाहु*

*96. सुजात।         97. कनकध्वज*

*98. कुण्डाशी        99. विरज*

*100. युयुत्सु*


*( इन 100 भाइयों के अलावा कौरवों की एक बहनभी थी… जिसका नाम""दुशाला""था,*

*जिसका विवाह"जयद्रथ"सेहुआ था )*


*"श्री मद्-भगवत गीता"के बारे में-*


*ॐ . किसको किसने सुनाई?*

*उ.- श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सुनाई।* 


*ॐ . कब सुनाई?*

*उ.- आज से लगभग 7 हज़ार साल पहले सुनाई।*


*ॐ. भगवान ने किस दिन गीता सुनाई?*

*उ.- रविवार के दिन।*


*ॐ. कोनसी तिथि को?*

*उ.- एकादशी* 


*ॐ. कहा सुनाई?*

*उ.- कुरुक्षेत्र की रणभूमि में।*


*ॐ. कितनी देर में सुनाई?*

*उ.- लगभग 45 मिनट में*


*ॐ. क्यू सुनाई?*

*उ.- कर्त्तव्य से भटके हुए अर्जुन को कर्त्तव्य सिखाने के लिए और आने वाली पीढियों को धर्म-ज्ञान सिखाने के लिए।*


*ॐ. कितने अध्याय है?*

*उ.- कुल 18 अध्याय*


*ॐ. कितने श्लोक है?*

*उ.- 700 श्लोक*


*ॐ. गीता में क्या-क्या बताया गया है?*

*उ.- ज्ञान-भक्ति-कर्म योग मार्गो की विस्तृत व्याख्या की गयी है, इन मार्गो पर चलने से व्यक्ति निश्चित ही परमपद का अधिकारी बन जाता है।* 


*ॐ. गीता को अर्जुन के अलावा* 

*और किन किन लोगो ने सुना?*

*उ.- धृतराष्ट्र एवं संजय ने*


*ॐ. अर्जुन से पहले गीता का पावन ज्ञान किन्हें मिला था?*

*उ.- भगवान सूर्यदेव को*


*ॐ. गीता की गिनती किन धर्म-ग्रंथो में आती है?*

*उ.- उपनिषदों में*


*ॐ. गीता किस महाग्रंथ का भाग है....?*

*उ.- गीता महाभारत के एक अध्याय शांति-पर्व का एक हिस्सा है।*


*ॐ. गीता का दूसरा नाम क्या है?*

*उ.- गीतोपनिषद*


*ॐ. गीता का सार क्या है?*

*उ.- प्रभु श्रीकृष्ण की शरण लेना*


*ॐ. गीता में किसने कितने श्लोक कहे है?*

*उ.- श्रीकृष्ण जी ने- 574*

*अर्जुन ने- 85* 

*धृतराष्ट्र ने- 1*

*संजय ने- 40.*


*कोटि = प्रकार।* 

*देवभाषा संस्कृत में कोटि के दो अर्थ होते है,*


*कोटि का मतलब प्रकार होता है और एक अर्थ करोड़ भी होता।*

 

*कुल 33 प्रकार के देवी देवता हैँ हिँदू धर्म मे :-*


*12 प्रकार हैँ*

*आदित्य , धाता, मित, आर्यमा,*

*शक्रा, वरुण, अँश, भाग, विवास्वान, पूष,*

*सविता, तवास्था, और विष्णु...!*


*8 प्रकार हे :-*

*वासु:, धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष।*


*11 प्रकार है :-* 

*रुद्र: ,हर,बहुरुप, त्रयँबक,*

*अपराजिता, बृषाकापि, शँभू, कपार्दी,*

*रेवात, मृगव्याध, शर्वा, और कपाली।*   


*एवँ*

*दो प्रकार हैँ अश्विनी और कुमार।* 


*कुल :- 12+8+11+2=  

            33 कोटी

* दो पक्ष-*


*कृष्ण पक्ष ,* 

*शुक्ल पक्ष !*


*तीन ऋण -*


*देव ऋण ,* 

*पितृ ऋण ,* 

*ऋषि ऋण !*


*  चार युग -*


*सतयुग ,* 

*त्रेतायुग ,*

*द्वापरयुग ,* 

*कलियुग !*


*चार धाम -*


*द्वारिका ,* 

*बद्रीनाथ ,*

*जगन्नाथ पुरी ,* 

*रामेश्वरम धाम !*


* चार पीठ -*


*शारदा पीठ ( द्वारिका )*

*ज्योतिष पीठ ( जोशीमठ बद्रिधाम )* 

*गोवर्धन पीठ ( जगन्नाथपुरी ) ,* 

*शृंगेरीपीठ !*


*चार वेद-*


*ऋग्वेद ,* 

*अथर्वेद ,* 

*यजुर्वेद ,* 

*सामवेद !*


*चार आश्रम -*


*ब्रह्मचर्य ,* 

*गृहस्थ ,* 

*वानप्रस्थ ,* 

*संन्यास !*


*चार अंतःकरण -*


*मन ,* 

*बुद्धि ,* 

*चित्त ,* 

*अहंकार !*


* पञ्च गव्य -*


*गाय का घी ,* 

*दूध ,* 

*दही ,*

*गोमूत्र ,* 

*गोबर !*


*पञ्च देव -*


*गणेश ,* 

*विष्णु ,* 

*शिव ,* 

*देवी ,*

*सूर्य !*


*पंच तत्त्व -*


*पृथ्वी ,*

*जल ,* 

*अग्नि ,* 

*वायु ,* 

*आकाश !*


*  छह दर्शन -*


*वैशेषिक ,* 

*न्याय ,* 

*सांख्य ,*

*योग ,* 

*पूर्व मिसांसा ,* 

*दक्षिण मिसांसा !*


*सप्त ऋषि -*


*विश्वामित्र ,*

*जमदाग्नि ,*

*भरद्वाज ,* 

*गौतम ,* 

*अत्री ,* 

*वशिष्ठ और कश्यप!* 


*सप्त पुरी -*


*अयोध्या पुरी ,*

*मथुरा पुरी ,* 

*माया पुरी ( हरिद्वार ) ,* 

*काशी ,*

*कांची* 

*( शिन कांची - विष्णु कांची ) ,* 

*अवंतिका और* 

*द्वारिका पुरी !*


* आठ योग -* 


*यम ,* 

*नियम ,* 

*आसन ,*

*प्राणायाम ,* 

*प्रत्याहार ,* 

*धारणा ,* 

*ध्यान एवं* 

*समाधि !*


* आठ लक्ष्मी -*


*आग्घ ,* 

*विद्या ,* 

*सौभाग्य ,*

*अमृत ,* 

*काम ,* 

*सत्य ,* 

*भोग ,एवं* 

*योग लक्ष्मी !*


*नव दुर्गा --*


*शैल पुत्री ,* 

*ब्रह्मचारिणी ,*

*चंद्रघंटा ,* 

*कुष्मांडा ,* 

*स्कंदमाता ,* 

*कात्यायिनी ,*

*कालरात्रि ,* 

*महागौरी एवं* 

*सिद्धिदात्री !*


  दस दिशाएं -*


*पूर्व ,* 

*पश्चिम ,* 

*उत्तर ,* 

*दक्षिण ,*

*ईशान ,* 

*नैऋत्य ,* 

*वायव्य ,* 

*अग्नि* 

*आकाश एवं* 

*पाताल !*


* मुख्य ११ अवतार -*


 *मत्स्य ,* 

*कच्छप ,* 

*वराह ,*

*नरसिंह ,* 

*वामन ,* 

*परशुराम ,*

*श्री राम ,* 

*कृष्ण ,* 

*बलराम ,* 

*बुद्ध ,* 

*एवं कल्कि !*


 बारह मास -* 


*चैत्र ,* 

*वैशाख ,* 

*ज्येष्ठ ,*

*अषाढ ,* 

*श्रावण ,* 

*भाद्रपद ,* 

*अश्विन ,* 

*कार्तिक ,*

*मार्गशीर्ष ,* 

*पौष ,* 

*माघ ,* 

*फागुन !*


*  बारह राशी -* 


*मेष ,* 

*वृषभ ,* 

*मिथुन ,*

*कर्क ,* 

*सिंह ,* 

*कन्या ,* 

*तुला ,* 

*वृश्चिक ,* 

*धनु ,* 

*मकर ,* 

*कुंभ ,*

*मीन!*


 बारह ज्योतिर्लिंग -* 


*सोमनाथ ,*

*मल्लिकार्जुन ,*

*महाकाल ,* 

*ओमकारेश्वर ,* 

*बैजनाथ ,* 

*रामेश्वरम ,*

*विश्वनाथ ,* 

*त्र्यंबकेश्वर ,* 

*केदारनाथ ,* 

*घुष्नेश्वर ,*

*भीमाशंकर ,*

*नागेश्वर !*


* पंद्रह तिथियाँ -*


*प्रतिपदा ,*

*द्वितीय ,*

*तृतीय ,*

*चतुर्थी ,* 

*पंचमी ,* 

*षष्ठी ,* 

*सप्तमी ,* 

*अष्टमी ,* 

*नवमी ,*

*दशमी ,* 

*एकादशी ,* 

*द्वादशी ,* 

*त्रयोदशी ,* 

*चतुर्दशी ,* 

*पूर्णिमा ,* 

*अमावास्या !*


* स्मृतियां -* 


*मनु ,* 

*विष्णु ,* 

*अत्री ,* 

*हारीत ,*

*याज्ञवल्क्य ,*

*उशना ,* 

*अंगीरा ,* 

*यम ,* 

*आपस्तम्ब ,* 

*सर्वत ,*

*कात्यायन ,* 

*ब्रहस्पति ,* 

*पराशर ,* 

*व्यास ,* 

*शांख्य ,*

*लिखित ,* 

*दक्ष ,* 

*शातातप ,* 

*वशिष्ठ !*

 Once again for the Freshers.:


A little bird told me :""  1,5,9 -are Dharma houses, 2,6,10 are  Karma (Artha) houses, 3,7,11 are Kama houses, 4,8,12 are Moksha houses.

1,4,7,10 are Physical houses, 2,5,8,11 are Mental houses, 3,6,9,12 are Spiritual / emotional houses..

Lets take KAMA  houses today. 3..Spiritual Kama, 7..Physical Kama and 11 .Mental KAMA.


 7 house ( Libra) indicates the Physical attachment (including sex) which is given to Spouse or person with whom attachment is there.This house is important more for Male.


3. house ( Gemini) indicates unconventional attachment  with out regard to age or sex (Gay, Lesbians, teacher/student etc.). watch out for lag.lord, 7 lord. Moon or Venus having connection with 3 house in young people, they can get involved in such relationships.


11..house is mental attachment (friends) this house is MORE important to FEMALE natives. for Male gets attracted to female Physically first but mostly Female gets attracted to male first Mentally before getting into Physical. This is the reason the 11 house of female native must free from affliction. 7 house has less effect on her. 

To give an example. lag lord in 7 for a male the relationship is spoiled,whereas for a female if the lag lord is in 11 she has problems in relationships. 

we hear 4 is the house of CHASTITY but its longevity is the 11 house

 In fact the affliction of 4 house( happiness) say by RAH. in female chart shows her happiness is shared meaning her partner is cheating her.!!1""


my note: check with SENIORS your findings.

Prof AvSundaram

 Random Thought..

House and Karaka. 

For Astro Research Students.


Its said there are Houses representing Relatives like 4 house is  for Mother,9 house is for Father.

Same way we have Planets representing the Relatives like Moon is for the Mother.. Sun is for Father.( Karaka). 


Now let's combine both (House lord and the Karaka) in Kalpursh Chart.


Aries.. 4 House Mother /lord Moon..Karaka.

             7.House Wife/ lord Venus.. Karaka


Taurus. 11 house elder brother /house lord Jupiter. Karaka.


Gemini. 11 elders./ House lord Mars.. Blood relations.


Cancer.. 3 house younger / house lord.. Mercury.. Cousins. Karaka.

5 house children.. House lord Mars blood relation children 


Leo.. 3 house younger/ house lord Venus. Younger sister. Karaka.

 5 house Children.. House lord Jupiter Karaka..

 9 house lord Mars father like blood relation. Karaka. 


Virgo.. 3 house younger /house lord Mars.. Karaka.

11..elder /house lord Moon.. Elder Sister.


Libra.. Xx


Scrpoio.. Xx


Sagittarius.. 5 house children.. House lord.. Mars. Blood relations children.

9 house Father.. House lord Sun.. Karaka.


Capricorn.. 5 house children.. House lord Venus.. Female children..

 11 house.. Elders. House lord Mars. Blood relations.. Elders..


Aquarius. 3 house Younger.. House lord Mars. Karaka.

11.house Elder.. House lord Jupiter. Karaka.


Pisces.. 3 house Younger.. House lord Venus.. Younger sister. Karaka.

 9 house. Father.. House lord Mars Father like blood relation..


Note. Mars taken out turn to indicate blood relations.


The concerned Planet becomes strong being  both Karaka and house lord.. Hence if they are in Trine or 6,8,12..the effect may be strongly felt or may not have any major change.


Check in a number of charts to know is it right or wrong.


My note: As usual I request, Take it or ignore..

It's just a thought.. 

Courtesy Prof Av Sundaram

Friday, October 16, 2020

 ✒ *ज्योतिष का अर्थ और इतिहास*


वेद में ३ विश्वों का सम्बन्ध है -आकाश की सृष्टि *(आधिदैविक)*, पार्थिव सृष्टि *(आधिभौतिक)*, इनकी प्रतिमा मनुष्य शरीर *(आध्यात्मिक)*। अतः वेद के ३ अर्थ होते हैं। ७ लोक भी मूलतः आकाश में हैं। इनकी प्रतिमास्वरूप पृथ्वी के उत्तर गोल के १/४ भाग *भारतदल* में भी *विषुव* से *ध्रुव* तक ७ लोक हैं। उत्तरगोल के अन्य ३ दल ( *भूपद्म* का दल कहा गया है) *भद्राश्व* (पूर्व में), *केतुमाल* (पश्चिम में), *कुरु वर्ष* (विपरीत दिशा में) तथा दक्षिण गोल के ४ दल मिलाकर ७ तल कहे गये हैं। भारत के पश्चिम *अतल* ( *केतुमाल दल* - इटली, उसके बाद अटलांटिक सागर), उसके *पश्चिम पाताल (कुरु दल)*, भारत के पूर्व *सुतल (भद्राश्व)* हैं। भारत दल के दक्षिण तल या *महातल*, अतल के दक्षिण *तलातल*, पाताल के दक्षिण *रसातल*, सुतल के दक्षिण *वितल* हैं। ये ८ खण्ड में पृथ्वी का मानचित्र बनाने के विभाग हैं। वास्तविक महाद्वीप अनियमित आकार के हैं - *जम्बू द्वीप* (एशिया), *प्लक्ष द्वीप* (यूरोप), *कुश द्वीप* (विषुव के उत्तर का अफ्रीका), *शाल्मलि द्वीप* (विषुव के दक्षिण का अफ्रीका), *शक* या *अग्नि द्वीप* (आस्ट्रेलिया-भारत से अग्नि कोण में), *क्रौञ्च द्वीप* (उत्तर अमेरिका, यह द्वीप तथा मुख्य रॉकी पर्वत उड़ते पक्षी या क्रौञ्च आकार के हैं), *पुष्कर द्वीप* (दक्षिण अमेरिका)। समतल मानचित्र बनाने में ध्रुव के पास माप दण्ड अनन्त हो जाता है। उत्तर ध्रुव जल भाग में है *(आर्यभट)* अतः वहाँ कोई समस्या नहीं होती। पर दक्षिण ध्रुव प्रदेश स्थल पर है तथा अनन्त आकार का मानचित्र पर हो जायेगा। अतः इसे *अनन्त द्वीप* (८वाँ) कहते हैं व अलग से मानचित्र बनता है। पुराणों में पृथ्वी के चारों तरफ ग्रह गति से वृत्त व वलय आकार के जो क्षेत्र बनते हैं ( *यूरेनस* तक) उनके नाम भी पृथ्वी के ७ महाद्वीपों के नाम पर हैं। आधुनिक युग में भी वैसे ही नाम रखे जाते हैं। इनके बीच का क्षेत्र भी पृथ्वी के समुद्रों के नाम पर हैं। इनके कारण महाभारत के बाद के संकलन कर्त्ताओं ने दोनों के एक मानकर वर्णन कर दिया क्योंकि उन्होंने पृथ्वी के सभी द्वीप नहीं देखे थे, न सौरमण्डल की ग्रह कक्षाओं की माप की थी। *नेपच्यून* तक की ग्रह कक्षा १०० कोटि योजन व्यास की चक्राकार पृथ्वी है। इसका भीतरी आधा भाग ५० कोटि योजन व्यास का लोक (प्रकाशित) भाग है। बाहरी भाग अलोक अन्धकार) है। आकाश में पृथ्वी *सहस्रदल कमल* है। अतः यहाँ *योजन* का अर्थ है पृथ्वी के विषुव व्यास का १००० भाग = *१२.८ किलोमीटर*।

मनुष्य शरीर के ७ कोष ७ लोकों की प्रतिमा हैं तथा इनके केन्द्र ७ चक्र हैं। *अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, ज्ञानमय कोष, विज्ञानमय कोष, चित्तमय कोष* तथा *आत्मामय कोष*। ७ चक्र हैं - *मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा* तथा *सहस्रार*।

आकाश के लोकों को जानने के लिए ज्योतिष का सृष्टि विज्ञान है। सूर्य सिद्धान्त का सृष्टि विज्ञान पुरुष सूक्त, पाञ्चरात्र दर्शन तथा सांख्य दर्शन का समन्वय है। तीनों एक ही तत्त्व को अलग शब्दों से पारिभाषित करते हैं। पृथ्वी के लोकों की माप ज्योतिष के त्रिप्रश्नाधिकार से होती है जिसमें दिक्-देश-काल की माप होती है। *दिक्* का अर्थ है उत्तर दिशा का निर्धारण। चुम्बक की सूई चुम्बकीय उत्तर ध्रुव दिखाती है। इसमें स्थानीय चुम्बकीय प्रभाव के कारण भूल भी होती है। भौगोलिक उत्तर दिशा जानने का एकमात्र उपाय है नक्षत्र वा सूर्य की गति से निर्धारण करना। प्रचलित विधि है कि एक स्तम्भ (१२ माप का शंकु) की छाया स्थानीय मध्याह्न से समान समय पूर्व तथा बाद में देखी जाय। दोनों छाया दिशा की मध्य रेखा *उत्तर-दक्षिण (याम्योत्तर)* रेखा होगी। *वटेश्वर सिद्धान्त* में इस २-३ घण्टे की अवधि में सूर्य की उत्तर दक्षिण दिशा (क्रान्ति) में अन्तर का भी संशोधन किया गया है, जो आधुनिक ज्योतिष में नहीं है। देश या स्थान की माप *अक्षांश-देशान्तर* द्वारा होती है। अक्षांश की गणना भी शंकु की छाया से है। सूर्य की क्रान्ति के अनुसार मध्याह्न छाया के अनुसार उत्तर दक्षिण दिशा में संशोधन होता है। देशान्तर गणना कठिन है। इसके लिए काल की सूक्ष्म माप करनी पड़ती है। दो स्थानों के बीच सूर्योदय या मध्याह्न काल का अन्तर ही देशान्तर है। २४ घण्टे का अन्तर ३६० अंश में है, अतः १ अंश का अन्तर ४ मिनट या १० पल में होगा। *देशान्तर विधि भारत के बाहर पता नहीं थी।* *फाहियान* पश्चिम हिमालय मार्ग से ३०० ई. में भारत आया था। उस मार्ग से पुनः लौटने का साहस नहीं हुआ तो लोगों की सलाह पर वह *ताम्रलिप्ति* से जहाज द्वारा *चीन* के *कैण्टन* गया। उसे २ आश्चर्य हुए। जहाज इतना बड़ा था कि उसमें १५०० व्यक्ति थे तथा उनके १ मास के भोजन पानी की व्यवस्था थी। वर्त्तमान भारत में अण्डमान जानेवाले सबसे बड़े जहाज में ६०० व्यक्ति बैठते हैं। दूसरा आश्चर्य था कि जहाजी लोगों को *समुस्र* का सटीक मानचित्र ज्ञात था तथा वे तट से नहीं, सीधा समुद्र में जा रहे थे। समुद्र में अपनी स्थिति ठीक तरह निकाल रहे थे। *तुर्की* के माध्यम से देशान्तर विधि का ज्ञान १४८० में *स्पेन* पहुँचा जिसके १२ वर्ष ब्द कोलम्बस की यात्रा सम्भव हुई। पृथ्वी की कागज पर परिलेख द्वारा माप होती है। अतः उसे *माप (Map)* कहते हैं। इसके लिए नक्षत्र देखना पड़ता है, अतः इसका नाम *नक्शा* हुआ।

वेद के ३ विश्वों के सम्बन्ध को समझने के लिए ज्योतिष के ३ खण्ड या *स्कन्ध* हैं। इसका ज्ञान होने के बाद ही मन्त्रों का अर्थ सम्भव है। अतः प्रथम व्यास स्वायम्भुव मनु के पूर्व ज्योतिष ज्ञान हो चुका था। तभी वेद का प्रथम संकलन या *संहिता* हुयी।


गणित ज्योतिष में सृष्टि विज्ञान, आकाश के लोकों की माप, ग्रह गति, पृथ्वी की माप (नक्शा, देश-काल-दिक्), कालगणना तथा पञ्चाङ्ग, पृथ्वी पर आकाशीय दृश्य (सूर्य का उदय-अस्त, ग्रहण, ग्रह-नक्षत्र युति, पात), यन्त्र द्वारा वेध तथा गणितीय पद्धति हैं।

गणित ज्योतिष के ३ खण्ड हैं। इसके सभी तत्त्व सिद्धान्त ज्योतिष में हैं। इसमें सृष्टि आरम्भ से ग्रह गति कि गणना होती है। यहाँ सृष्टि का अर्थ है कि उस समय से आज जैसी सौरमण्डल के ग्रहों की गति थी। पृथ्वी का निर्माण उससे बहुत पहले हो चुका था।


*तन्त्र ज्योतिष* में कलि आरम्भ से ग्रह गणना होती है। इसके लिए आवश्यक गणित तथा वेध का वर्णन रहता है।


*करण ग्रन्थ* में निकट पूर्व के किसी शक से गणना होती है। *शक* का अर्थ है दिनों का समुच्चय (अहर्गण, Day-count) - _शकेन समवायेन सचन्तः_। १ का चिह्न हर भाषा में कुश है। उनको मिलाकर गट्ठर बनाने से वह शक्तिशाली होता है। अतः उसे शक कहते हैं। दिन की क्रमागत गणना के लिए सौर मास वर्ष सुविधा जनक है। यह पद्धति शक वर्ष है। चान्द्र तिथि क्रमागत दिन में नहीं है, तिथि अधिक या क्षय हो सकती है। चान्द्र तिथि, मास वर्ष का सौर वर्ष से समन्वय को *संवत्सर* कहते हैं। _सं-वत्-सरति_ = एक साथ चलता है। सौर वर्ष के साथ चलता है (अधिक मास व्यवस्था से) या समाज भी इसके अनुसार चलता है।


मनुष्य पर ग्रहों का प्रभाव होरा या जातक स्कन्ध है। इसका विस्तृत वर्णन वाजसनेयि यजु (१५/१५-१९, १७/५८, १८/४०), ब्रह्मसूत्र (४/२/१७-२०), बृहदारण्यक उपनिषद् (४/४/८,९), छान्दोग्य उपनिषद् (८/६/१,२,५), कूर्म पुराण (भाग १, ४३/२-८), मत्स्य पुराण (१२८/२९-३३), वायु पुराण (५३/४४-५०), लिङ्ग पुराण (१/६०/२३), ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२४/६५-७२) में हैं। पराशर होरा इसका प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ है। उसके बाद *वराहमिहिर* का *बृहज्जातक* है।


मनुष्य पर प्रभावों का योग या पृथ्वी पर प्रभाव *संहिता ग्रन्थ* हैं। वेद मन्त्रों का संकलन भी संहिता है। यह पृथ्वी तथा आकाश का सम्बन्ध है। वराहमिहिर की *वृहत्संहिता* सबसे पुराना उपलब्ध ग्रन्थ है।

सर्वप्रथम स्वायम्भुव मनु ने ज्योतिष सिद्धान्त स्थिर किया। वे प्रथम व्यास या मनुष्य ब्रह्मा थे। अतः उनका सिद्धान्त *ब्रह्म* या *पितामह सिद्धान्त* कहते हैं। महाभारत के समय २ सिद्धान्त प्रचलित थे - *पराशर* तथा *आर्य सिद्धान्त* (आर्यभट का महासिद्धान्त, २/१-२)। इसमें पराशर मत का वर्णन विष्णु पुराण में है (अंश २ में मैत्रेय का उपदेश)। पितामह मत के संशोधन के लिए कलि के कुछ बाद (कलि संवत् ३६० = २७४२ ईपू) में आर्यभट ने *आर्यभटीय* लिखा। उसके दीर्घकालिक माप उसी काल के हैं। उन्होंने कभी ध्रुव प्रदेशों की यात्रा नहीं की थी, न कभी केतुमाल कुरु देश गये या वहां की माप की थी। उनका पूरा ज्ञान स्व्यम्भुव मनु काल से संकलित था। महाभारत काल के बाद गणित के १६ खण्डों में ४ खण्ड बचे हुए थे, जिनके कुछ सूत्रों का आर्यभट ने प्रयोग किया है (भास्कर १ की आर्यभटीय टीका) - *मस्करि* (algorithm, log = *लाठी, मस्करि*), *पूरन* (Integral Calculus, Algebra), *पूतन* (Differential calculus, Number system), *मुद्गल* (Discrete mathematics)। पितामह सिद्धान्त को *आर्य सिद्धान्त* कहते थे, अतः आर्य का अर्थ पितामह प्रचलित है (अजा, आजी)। १९०९ में *जार्ज थीबो* तथा *सुधाकर द्विवेदी* ने आर्यभट का काल ३६० कलि में १ शून्य जोड़कर ३६०० कलि कर दिया। आर्यभटीय की कोई गणना उस काल की नहीं है, न उस समय मगध में कोई केन्द्रीय सत्ता थी जिसका आश्रय लेने वे *कुसुमपुर* आते। उस समय पाटलिपुत्र भी नहीं बना था, केवल वहाँ कुसुमपुर (वर्तमान फुलवारी शरीफ, Kindergarten = बच्चों की फुलवारी) नामक शिक्षा-केन्द्र था। इस परम्परा में *महासिद्धान्त, लल्ल* का शिष्य *वृद्धिद तन्त्र, वटेश्वर सिद्धान्त* हैं।

ब्रह्माण्ड, मत्स्य पुराणों के अनुसार स्वायम्भुव मनु का काल २९,१०२ ई. पू. तथा वैवस्वत मनु का काल १३,९०२ ई. पू. था। वैवस्वत मनु के पिता विवस्वान् ने सूर्य सिद्धान्त प्रचलित किया। उस नाम के ग्रन्थ के कारण उनका नाम *विवस्वान्* हो सकता है। वर्तमान युग व्यवस्था तथा calendar उसी समय का है। अतः इस गणना से स्वायम्भुव मनु आद्य त्रेता में थे (वायु पुराण, ३१/३ आदि)। इनके बाद *वैवस्वत यम* के काल में जल प्रलय का आरम्भ हुआ। उसके कारण *श्रीजगन्नाथजी* की इन्द्रनीलमणि की मूर्ति मिट्टी में दब गयी (ब्रह्म पुराण)। पुराण तथा आधुनिक भूगर्भशास्त्र दोनों अनुमान से यह जल प्रलय १०,००० ई.पू. में प्रायः ७०० वर्ष तक था। इसके कारण गणना में अशुद्धि आयी तथा *मेक्सिको* के मय असुर ने *रोमक पत्तन* (उज्जैन से ०° पश्चिम) में इसका संशोधन किया। आज की भाषा में यह अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन था। अतः पूरे विश्व में राशि व्यवस्था एक ही है।


सूर्य सिद्धान्त के सन्दर्भ नगर हैं - *लंका या उज्जैन* (शून्य देशान्तर), ९०° पूर्व *यमकोटि पत्तन* (न्यूजीलैण्ड का दक्षिण पश्चिम तट या पूर्व जीलैण्डिया का कोई स्थान), १८०° पूर्व *सिद्धपुर* (कैलिफोर्निया के निकट) तथा ९०° पश्चिम *रोमकपत्तन* (वहाँ सूर्य क्षेत्र *कोनाक्री* है, ओड़िशा के कोणार्क की तरह, सूर्य की सिंह राशि के अनुसार वहाँ *सिंहद्वार* = Sierraleon भी है)। महाभारत के बाद इन नगरों से कोई सम्पर्क नहीं था। इससे स्पष्ट है कि ज्योतिष का ज्ञान महाभारत से बहुत पूर्व का है। बाद में केवल उसका संकलन व संक्षेप हुआ है। आर्यभट की गणना कलि आरम्भ से है। उस समय पितामह सिद्धान्त के अनुसार १३वाँ गुरु वर्ष *प्रमाथी* चल रहा था। भारत में भगवान् श्रीकृष्ण के स्वधाम गमन से कलियुग मानते हैं। पर *मेक्सिको (मय)* में गुरु वर्ष चक्र आरम्भ (३०१४ ई.पू.) से calendar का आरम्भ मानते हैं। पितामह तथा सूर्य सिद्धान्त - दोनों के चक्र ५१०० वर्ष में मिलते हैं। पितामह सिद्धान्त में सौर वर्ष ही गुरु वर्ष है। सूर्य सिद्धान्त में गुरु की १ राशि में मध्यम गति (३६१ दिन ४ घण्टा प्रायः) को गुरु वर्ष मानते हैं। अतः ८५ सौर वर्ष में ८६ गुरु वर्ष होते हैं। इनका संयुक्त चक्र ८५ x ६० = ५१०० वर्ष का होगा। अतः मय कैलेण्डर ३०१४ ई.पू. से ५१०० वर्ष का था। पृथ्वी व्यास १००० योजन मानने पर आकाशगङ्गा व्यास १८ अंक की संख्या होगी। इससे बाहर की गणना नहीं होती। अतः मय ज्योतिष तथा आर्यभट दोनों ने १८ अंक की संख्या का ही प्रयोग किया है। अन्य मुख्य गणना भी प्रायः समान है।

इसके पूर्व स्वायम्भुव मनु काल के नगर थे - यम की *संयमनी पुरी* (मृत सागर के निकट, *यमन, सना, अम्मान* आदि), उसके ९०° पूर्व इन्द्र की *अमरावती* (रामायण, किष्किन्धा काण्ड, अध्याय ४० के अनुसार *इण्डोनेशिया* या *यवद्वीप* सहित सप्तद्वीप के पूर्व भाग में इन्द्र तथा गरुड़ के नगर थे), अमरावती से ९०° पूर्व वरुण की *सुखा नगरी (हवाई द्वीप या फ्रेञ्च पोलिनेसिया)*, १८०° पूर्व सोम की *विभावरी (न्यूयार्क या सूरीनाम)* थी।

महाभारत से कुछ पूर्व विष्णुपुराण अंश २ में मैत्रेय के उपदेश रूप में ज्योतिष वर्णन है। सूर्य सिद्धान्त परम्परामें होने के कारण उनको *मैत्रेय* कहा गया है।


विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक *वराहमिहिर* ने उस समय के प्रचलित ६१२ ई.पू. के चाप शक (बृहत् संहिता १३/३) के अनुसार गणना की है। वही आधार *ब्रह्मगुप्त* तथा *कालिदास (ज्योतिर्विदाभरण)* ने लिया है। वराहमिहिर के समकालीन *जिष्णुगुप्त* के पुत्र ने विष्णु पुराण के परिशिष्ट विष्णुधर्मोत्तर पुराण के ज्योतिष वर्णन की व्याख्या के लिए *ब्राह्म-स्फुट सिद्धान्त* ५५० शक (६२ ई.पू.) में लिखा। इसी के अनुसार विक्रम संवत् की गणना हुयी (५७ ईपू में)। वराहमिहिर ने भी पञ्च सिद्धान्तिका में संक्षिप्त सूर्य सिद्धान्त का वर्णन किया है और उसे सर्वश्रेष्ठ माना है। ब्राह्म-स्फुट सिद्धान्त के अनुसार ही ६२२ ई. के हिजरी सन् की गणना हुई। अतः *खलीफा अल मन्सूर* के समय इसका अरबी में अनुवाद हुआ - *अल जबर उल मुकाबला*। इसी से *अलजब्रा (Algebra)* शब्द हुआ जो इसका गणितीय भाग है। वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त आदि की मृत्यु के बहुत बाद ७८ ई. में *शालिवाहन* शक आरम्भ हुआ। उसके अनुसार गणना कर लोग ६२८ ई. में ब्रह्मगुप्त पुस्तक का काल मानते हैं। पर इस आधार पर इससे ६ वर्ष पूर्व हिजरी सन् नहीं आरम्भ हो सकता था।


सूर्यसिद्धान्त परम्परा के मुख्य ग्रन्थ हैं - भास्कर-१ का महा तथा लघु भास्करीय, भास्कर-२ का सिद्धान्त शिरोमणि, श्रीपति का सिद्धान्त शेखर, नीलकण्ठ सोमयाजी का सिद्धान्त दर्पण, मुनीश्वर का सिद्धान्त सार्वभौम, कमलाकर भट्ट का सिद्धान्त तत्त्व विवेक, चन्द्रशेखर सामन्त का सिद्धान्त दर्पण (१९०४)।

कुछ मुख्य *करण ग्रन्थ* हैं - ब्रह्मगुप्त का खण्डखाद्यक (मिठाई), भास्कर-२ का करण कुतूहल, गणेश दैवज्ञ का ग्रहलाघव।


ओड़िशा में *शतानन्द* ने १०९९ ई. के आधार पर *भास्वती* लिखी जो वराहमिहिर के सूर्य सिद्धान्त पर आधारित है। *वराहमिहिर* की *पञ्चसिद्धान्तिका* तथा *पञ्चाङ्ग पद्धति* जानने पर ही इसका अर्थ समझा जा सकता है। उस काल में कौन/सा शक आरम्भ हुआ यह पता नहीं है, पर *कपिलेन्द्रदेव* के शक आरम्भ के समय उसके अनुसार गणना के लिए *कपिलेन्द्र भास्वती* लिखी गयी।

अन्तिम ग्रन्थ *सिद्धान्त दर्पण* में सभी पूर्व ग्रन्थों का संकलन तथा निर्णय है। सूर्य आकर्षण के कारण चन्द्र गति में ४ प्रकार का संशोधन, मंगल, शनि में बृहस्पति आकर्षण के कारण अन्तर, अथर्व संहिता के अनुसार सूर्य व्यास ६५०० से बढ़ाकर ७२,००० योजन करना, सौरमण्डल के क्षेत्रों, सूर्य-पृथ्वी केन्द्रित गतियों की समीक्षा आदि हैं। सरल पञ्चाङ्ग गणना के लिए सारणी, सौरमण्डल के ताप-तेज-प्रकाश क्षेत्रों की माप (अग्नि-वायु-रवि, विष्णु के ३ पद) आदि भी हैं। 

Thursday, October 15, 2020

 Again on Feelings and Emotions.


THIS IS MY TAKE.


MARS..is for Feelings..if in 6,8,12 indicates hidden feelings..the House it's placed and aspecting houses are important.


MOON... is for Emotions...Its connection with Mars will turn FEELINGS INTO EMOTIONS .

Again the house placement are important for area of expression. Moon in 6,8,12 hidden Emotions.. Mars Aspect gives immediate reaction.


The Planets can change the Emotions 


MOON when  associated with 


VENUS is for Sharing.

RAHU is for Violent and uncontrollable .

SATURN is for sadness, restrictions.

JUPITER Is for increasing.( Child going on Crying)

KETU is for difficult to express.( Spiritual Emotions)

MERCURY is for Analysis..( not good for Emotions)

SUN Is for self interest in Emotions.( In Kendra)


You have to modify with reference to the Lagna Lord.


This has no Classics reference.....Take or Ignore!!

Courtesy from

AvSundaram. Sir


 सम्मोहक हैं शनिदेव- पं. सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर, नेशनल दुनिया

साढ़े साती का नाम लेते ही लोग डरने लगते हैं। जबकि आधे मामलों में साढ़े साती कल्याणकारक होती है। जैसे इन दिनों जन्म कालीन कुम्भ राशि वालों के लिए शनि की पहली ढैय्या कल्याणकारक है। आने वाले वर्ष में लाभ देने वाली है। किसी भी साढ़े साती की अवधि में शनि जब मकर, कुम्भ या तुला राशि में होते हैं तो बुरे ही नहीं अच्छे परिणाम भी मिलते हैं। 

क्या है साढ़े साती- 

किसी भी राशि में जब चन्द्रमा होते हैं तो जन्म कालीन इस राशि को व्यक्ति की राशि माना जाता है। आज कल जन्म नक्षत्र के आधार पर नाम नहीं रखे जा रहे इसीलिए प्रचलित नाम से राशि मानना उचित नहीं है, प्रत्येक व्यक्ति को जन्मकालीन राशि का ज्ञान होना ही चाहिए। साढ़े साती में शनिदेव कुल मिलाकर 2800 दिन रहते हैं। औसतन तीन राशियों में शनि के भ्रमण काल को साढ़े साती बोला जाता है। ढाई वर्ष तक शनिदेव एक राशि में भ्रमण करते हैं। आपकी जन्म राशि से पहली वाली राशि में जब शनि आते हैं तब साढ़े साती शुरु होती है। ढाई साल उस राशि में रहकर उसके बाद की जिस राशि में जन्म कालीन चन्द्रमा हैं उस राशि में शनि ढाई साल भ्रमण करते हैं और उतरती हुई साढ़े साती में जन्म राशि से बाद वाली राशि में ढाई साल तक भ्रमण करते हैं। 

चढ़ती हुई साढ़े साती ज्यादा प्रभावशाली होती है और उतरती हुई साढ़े साती पैरों पर से उतरती है और साढ़े साती के परिणामों से धीरे-धीरे मुक्त करती है। साढ़े साती को ही ज्योतिषी लोग दीर्घ कल्याणी कहते हैं। शनि जब जन्म राशि से चौथे, 8वें और 12वें भाव में क्रमश: ढाई-ढाई साल के लिए भ्रमण करते हैं तो उसे लघु कल्याणी कहा जाता है। इससे भी लोग डरा करते हैं परन्तु अगर यही शनि मकर राशि, कुम्भ राशि, जो कि शनि की अपनी ही राशियाँ हैं और तुला राशि जो कि शनि की उच्च राशि में हों तो डरने की आवश्यकता नहीं है। इन राशियों के लिए शनि लाभप्रद है बल्कि उपरोक्त स्थितियों में कुछ अन्य राशियों को भी शनि लाभ पहुँचा सकते हैं। कभी-कभी शनि का कुछ नक्षत्रों में भ्रमण बड़े परिणाम लाता है। उदाहरण के तौर पर राजा दशरथ ज्योतिषियों की इस भविष्यवाणी से डर गये थे कि शनि रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश करने वाले थे और राज्य में 12 वर्षों तक अकाल पडऩे वाला था। महाराज स्वयं शनि से युद्ध करने पहुँच गये थे। 

साढ़े साती में तो शनि लगातार 7 वर्ष तक प्रभावित करते हैं जबकि लघु कल्याणी में एक बार शनि ढाई वर्ष तक प्रभावित करते हैं उसके कई वर्षों बाद अगली ढैय्या आती है।

राजपाठ भी छिनें हैं साढ़े साती में- 

इतिहास में बहुत सारे उदाहरण हैं जब साढ़े साती आने पर राजाओं के राजपाठ छिन गए और लोगों के व्यवसाय का पतन हो गया। शनि के द्वारा प्रदत्त नकारात्मक परिणामों का प्रचार अधिक हुआ है जिसके कारण लोग डरते हैं। जबकि यह पूरा सच नहीं है। 

महाधनी भी हो गये हैं साढ़े साती में - 

कई लोग साढ़े या ढैय्या आने पर असाधारण प्रगति पा गये हैं। शनि अपनी राशियों या उच्च राशियों में आने पर कई लोगों को मालामाल कर देते हैं। उदाहरण के लिए इन दिनों शनि उन लोगों की मौज कर देंगे जिनकी मकर राशि लग्न में, चतुर्थ भाव में, पंचम भाव में, नवम भाव में, दशम भाव में या एकादश भाव में भ्रमण कर रहे हों। इनमें नवम भाव में मकर के शनि अति श्ािक्तशाली परिणाम देंगे और शत्रु नाश करेंगे। शनि के साथ एक ही समस्या है कि जहाँ उनकी वर्तमान स्थिति जीवन के किसी एक विषय को बहुत अधिक लाभ पहुँचाती है तो किसी न किसी अन्य विषय में हानि भी पहुँचती है। ऐसा शनि की दृष्टि के कारण होता है। ज्योतिष में ग्रहों की दृष्टि विशेष प्रभाव रखने वाली होती है। शनि और मंगल की दृष्टियाँ सामान्य नियमों से थोड़ा हट कर होती हैं। 

साढ़े साती की गणित - 

1. मस्तिष्क - 10 महीना - शुभ परिणाम 

2. मुख - 3 महीना 10 दिन  - कष्टदायक, हानि 

3. दांहिना नेत्र - 3 महीना 10 दिन - शुभ परिणाम, प्राप्ति

4. बांया नेत्र - 3 महीना 10 दिन - शुभ परिणाम, प्राप्ति

5. दांहिनी भुजा - 1 वर्ष 1 महीना 10 दिन - शुभ समाचार 

6. बांयी भुजा - 1 वर्ष 1 महीना 10 दिन - नया कार्य, शुभ

7. हृदय - 1 वर्ष 4 महीना 20 दिन - आर्थिक लाभ 

8. दाहिना पैर - 10 महीना - तीर्थाटन, भ्रमण 

9. बांया पैर - 10 महीना - कठिन समय 

10. गुदा - 6 महीना 20 दिन - परेशानियों का समय 


परन्तु यदि साढ़े साती की आखिरी ढैय्या में शुभ राशियाँ हों तो शनि उत्तम परिणाम भी दे जाते हैं। आमतौर से जाती हुई साढ़े साती एक चीज लेती है और एक दे देती है। कई बार तो इतनी सांत्वना मिलती है जैसे कि सिर से बड़ा बोझ उतर गया हो। 

ऋषि मुनि करते थे इंतजार - 

ज्योतिष जगत में शनि को दण्ड नायक माना जाता है। अच्छे और बुरे कर्मों का दिग्दर्शन कराते हैं शनि और न्याय करते हैं। सूर्य के बाद शनि सबसे शक्तिशाली हो गये थे क्योंकि सूर्य पत्नी छाया से उत्पन्न होने के कारण ये काले थे और पिता की उपेक्षा नहीं सह पाए। इन्होंने घोर तपस्या की और शक्तिशाली हो गये। भगवान शिव से इन्होंने वरदान पाया कि पिता से भी अधिक शक्तिशाली हो जाएं। भगवान शिव ने इन्हें दण्डनायक अधिकारी नियुक्त किया। 

पत्नी ने दिया था श्राप - 

एक बार पुत्र प्राप्ति की इच्छा से शनि की पत्नी धामिनी जो कि गंधर्व चित्ररथ की पुत्री थी, इनके पास गई परन्तु शनि कृष्ण भक्त थे और उनकी तपस्या में लीन थे। बहुत प्रतीक्षा के बाद भी जब शनि ने ध्यान नहीं दिया तो वे क्रोधित हो गईं और शनि को श्राप दिया कि शनि जिसको देखेंगे वह नष्ट हो जाएगा। शनिदेव सिर नीचा करके रहने लग गये। ज्योतिष जगत में शनि की दृष्टि बहुत बदनाम है। जन्म पत्रिका में तीसरी, सातवीं और दसवीं दृष्टि प्रसिद्ध है। शनि जहाँ बैठे हैं उससे तीसरे, सातवें और दसवें स्थान में अगर शनि की अपनी राशि या उच्च राशि हो तब तो रक्षा हो जाती है और शुभ परिणाम मिलते हैं अन्यथा यह दृष्टि कष्टकारक होती है। वैसे शनि अपने मित्र ग्रहों की राशि को भी लाभ देते हैं। जैसे कि शुक्र ग्रह की राशि। 

पौराणिक किस्से - 

रावण ने शनि को बंदी बनाकर उल्टा लटका दिया, लंका जलाकर हनुमान जी ने उनके शरीर पर दर्द निवारण के लिए तेल की मालिश की। तब से शनि को तेल चढ़ाने की परम्परा शुरु हुई। इनकी शांति के लिए तिल, भैंस, तेल, काले कपड़े, चमड़ा इत्यादि दान किया जाता है। इनका रत्न नीलम है। 

इन दिनों धनु राशि, मकर राशि और कुम्भ राशि वालों की शनि की साढ़े साती चल रही है। शनि के लिए निम्न मंत्र का जप किया जा सकता है-

शनि का पौराणिक मंत्र -

ऊँ ह्रिं नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम। छाया मार्तण्डसम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्।।

शनि का वैदिक मंत्र - 

ऊँ शन्नोदेवीर- भिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये शंय्योरभिस्त्रवन्तुन:। औम स्व: भुव: भू: प्रौं प्रीं प्रां औम शनिश्चराय नम:

तांत्रिक शनि मंत्र- 

ऊँ प्रां प्रीं प्रौं स: शनैश्चराय नम:।

 सभी दिशाएँ होती हैं शुभ


शास्त्रों के अनुसार कुल मिलाकर 10 दिशाएँ मानी गई हैं - पूर्व दिशा, अग्रिकोण, दक्षिण दिशा, नैर्ऋत्य कोण, पश्चिम दिशा, वायव्य कोण, उत्तर दिशा, ईशान कोण, आकाश एवं पाताल। इन दिशाओं को लेकर कई तरह के भ्रम चल रहे हैं। दिशाएँ सभी शुभ होती हैं यदि उस दिशा के अनुकूल स्थापनाएँ उसमें की जाएँ। दक्षिणमुखी मकानों को लेकर लोग भ्रमित रहते हैं। वास्तुशास्त्र के अनुसार हर दिशा में 8-8 द्वारों की योजना होती है। उन द्वारों में से तीन द्वार उत्तर में, 2 द्वार पूर्व में, 2 द्वार पश्चिम में व केवल 1 द्वार दक्षिण दिशा में शुभ माना गया है। इन द्वारों के लिए निर्धारित स्थानों के अतिरिक्त अन्य स्थानों पर मुख्य द्वार बनाया जाये तो वह अशुभ परिणाम देता है। यह बात फ्लैट्स पर भी लागू होती है। जो मकान जमीन लेकर बनाये जाएं उनमें बाहरी बाउण्ड्री पर द्वार योजना लागू की जाती है। इसका अर्थ यह हुआ कि दक्षिण दिशा में यदि वास्तु शास्त्र में वर्णित स्थान वाला ही द्वार खोजा जाए तब तो अति शुभ परिणाम आते हैं और यदि दक्षिण के शेष 7 द्वारों में से कोई मुख्य द्वार हो जाए तो अत्यंत अशुभ परिणाम आते हैं। इनमें धोखा, फरेब, घात-प्रतिघात जैसे परिणाम भी शामिल हैं। 

जिन ऋषियों ने ये नियम गढ़े वे मकान को व्यवसाय स्थान नहीं बनाना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने दक्षिणमुखी और पश्चिम मुखी मकानों को ज्यादा पसन्द नहीं किया। दक्षिण और पश्चिम दिशाओं में व्यवसाय की प्रवृत्ति पाई जाती है। परन्तु आज के जमाने में इतना सब कुछ सम्भव नहीं है। दक्षिण और पश्चिम के द्वार तो शुभ या अशुभ हो सकते हैं परन्तु भूखण्ड या फ्लैट की दक्षिण दिशा में सोना, बैठना या गद्दी बनाना अति शुभ माना गया है। इसके बाद दूसरे महत्त्व की जगह पश्चिम दिशा है। भारत में ऐसे बहुत बड़े-बड़े कारखाने हैं जो दक्षिणमुखी हैं और सफलता से चल रहे हैं। यहाँ थोड़ा ज्योतिष भी काम आती हैं क्योंकि दक्षिण दिशा मंगल की मानी गयी है और वे मशीनों का काम सफल बना देते हंै। 

दिशाओं की रचना भगवान ने नहीं की है। उनका निर्धारण मनुष्य ने ही किया है। प्राचीन ऋषि जो कि उस समय के महान वैज्ञानिक थे, ने प्रकृति में व्याप्त ऊर्जा प्रणालियों को पहचान करके उन्हें मानव हित में प्रयुक्त करने की योजना बनाई, जो वास्तु शास्त्र का महत्त्वपूर्ण विषय है। ईश्वर ने तो ऊर्जा का समान वितरण किया है, यह हम पर निर्भर है कि हम उससे किस प्रकार लाभ उठा सकते हैं। इस आधार पर कोई भी दिशा वर्जित नहीं है, सभी दिशाओं से सुख और सम्पत्ति अर्जित की जा सकती है। हाँ, कुछ वर्जनाएँ अवश्य हैं जिनका ध्यान रखा जाना चाहिए। कम्पास से नापने के आधार पर ईशान, अग्नि, नैर्ऋत्य व वायव्य कोणों में न तो शौचालय हों और ना ही मुख्य द्वार। शौचालय तो मुख्य चार दिशाओं यथा उत्तर, पूर्व, दक्षिण व पश्चिम में भी नहीं होने चाहिए। परन्तु दिशा ज्ञान कम्पास के आधार पर ही किया जाना चाहिए।

 कुछ ग्रह तो केवल गैस ही हैं


आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि बृहस्पति, शनि, यूरेनस और नेपेच्यून ग्रह केवल गैस के बने हैं। पृथ्वी की कक्षा के बाहर मंगल ग्रह आता है, वहाँ तक तो सब ग्रह ठोस हैं और उसके बाद के सारे ग्रह गैस के रूप में हैं। प्रारम्भ में हमारी पृथ्वी भी गैस का एक गोला ही थी। बाद में वह धीरे-धीरे पहले तो तरल रूप में आई और बाद में ठोस रूप में आई।  इससे पहले पृथ्वी पर हजारों - लाखों वर्ष तक वर्षा होती रही। 

ग्रहों में सबसे छोटा बुध है। सूर्य के सबसे नजदीक होने के कारण दिन और रात में सबसे ठण्डा और गरम भी वही होता है। -173 डिग्री सेन्टीग्रेड तक नीचे चला जाता है और तेज धूप में 427 डिग्री सेन्टीग्रेड। इसकी धरती पर बहुत सारे के्रटर हैं और जीवन का कोई लक्षण नहीं है। वायु मण्डल भी नाम मात्र का ही है यद्यपि ऑक्सीजन 42 प्रतिशत तक है। वर्ष में कई बार पश्चिमी क्षिजित पर सूर्यास्त के बाद और पूर्वी क्षिजित पर सूर्यास्त से घण्टा-दो-घण्टा पहले चमकता दिखाई देता है। 

शुक्र - बुध के बाद सूर्य से दूसरे नम्बर पर शुक्र स्थित है। सूर्य और चन्द्रमा के बाद यदि सबसे चमकदार ग्रह यदि कोई हैं तो वह है शुक्र। ज्योतिष के अनुसार सूर्य और चन्द्रमा का शत्रु ग्रह हैं शुक्र। सूर्य और चन्द्रमा देवताओं के समूह में से हैं जबकि शुक्र को असुरों का गुरु माना गया है। सूर्यास्त के 2-3 घण्टे बाद यदि शुक्र दिखते हैं तो बहुत चमकदार दिखते हैं और सूर्यादय से 2-3 घण्टे पहले दिख जाएं तो भी अत्यधिक चमकदार दिखते हैं। तब इन्हें मॉर्निंग स्टार कहा जाता है। पृथ्वी से छोटे हैं। सतह ठोस है। शुक्र पर 96.5 प्रतिशत कार्बन डाइ ऑक्साइड है। गुरुत्वाकर्षण बल, रचना और आकृति के कारण पृथ्वी से समानता लिये हुए हैं। सल्फूरिक एसिड के बादल होने के कारण चमकदार दिखते हैं। ऐसा माना जाता है कि पहले शुक्र पर महासागर थे बाद में भाप बनकर उड़ गये। बड़ी-बड़ी चट्टानें और ज्वालामुखी के अवशेष शुक्र पर मौजूद हैं। 

चन्द्रमा - सौन्दर्य की तमाम उपमाएँ चन्द्रमा से सम्बन्धित हैं। है तो पृथ्वी का उपग्रह, परन्तु फलित ज्योतिष में ग्रह मानकर भविष्यवाणियाँ की जाती हैं। परन्तु अगर आप चन्द्रमा पर चले जाएं तो सारी पोल खुल जाएगी। अगर चन्द्रमा पर आप खड़े हो जायें तो पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती नजर आएगी। हर ग्रह के बहुत सारे चन्द्रमा हैं। परन्तु हमारे चन्द्रमा की बात ही कुछ और है। सोचिए ज्वार-भाटा के समय चन्द्रमा के आकर्षण से समुद्र की सतह भी कुछ फीट ऊपर तक उठ जाती है, तो मनुष्य शरीर में तो केवल कुछ लीटर पानी ही होता है। इसीलिए चन्द्रमा का प्रभाव मानव शरीर पर सबसे ज्यादा पड़ता है। सूर्य ग्रहण का कारण भी चन्द्रमा ही हैं। कुछ लोग मानते हैं कि साढ़े चार अरब वर्ष पहले पृथ्वी से टूट कर निकला है, तो कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि 1 ग्रह के टूकड़े होने के कारण बुध और चन्द्रमा बने। भारतीय ऋषियों ने चन्द्रमा को मामा बताया है। सम्भवत: उनकी यह धारण है कि चन्द्रमा और पृथ्वी एक ही खगोलीय पिण्ड से उत्पन्न हुए हैं अर्थात् सहोदर हैं। चट्टानों में टाइटेनियम धातु बहुत अधिक है। इसके दक्षिणी ध्रुव पर एक ऊँचा सा पर्वत है जिसकी ऊचाई 35 हजार वर्गफीट है। पहले चन्द्रमा धरती के बहुत पास था। अब हर वर्ष 3.78 सेन्टीमीटर दूर होता जाता है। एक दिन अन्तरिक्ष में गायब ही हो जाएगा। 

मंगल - मंगल की सतह भी ठोस है। इसकी कक्षा पृथ्वी की कक्षा से बाहर है। सूर्य से चौथे ग्रह हैं और लाल दिखते हैं। सौर मण्डल का सबसे ऊँचा पर्वत मंगल ग्रह पर ही है। अपने एवरेस्ट से तीन गुना ज्यादा ऊँचा। भारतीय ऋषियों ने मंगल को पृथ्वी का पुत्र बताया है। पुराणों में भगवान के वराह अवतार और पृथ्वी के मिलन से मंगल की उत्पत्ति बताई है। लगता है किसी खगोलीय पिण्ड के टकराने के कारण पृथ्वी का एक टुकड़ा अलग होकर मंगल ग्रह बन गया। इसीलिए जीवन की सबसे ज्यादा सम्भावनाएँ मंगल पर बताई गई हंै। इसके सबूत मिले हैं कि मंगल पर पहले काफी अधिक पानी था। मंगल के 2 चन्द्रमा हैं। मंगल का सम्बन्ध शौर्य, पराक्रम से जोड़ा गया है और मनुष्य के शरीर में रक्त पर मंगल का नियंत्रण है। मंगल का अधिकतम तापमान 30 डिग्री सेन्टीग्रेड तथा न्यूनतम -140 डिग्री सेन्टीग्रेड है। 

बृहस्पति - सूर्य से पाँचवा ग्रह हैं बृहस्पति। सौर मण्डल का सबसे बड़ा ग्रह, गैस दानव कहलाता है। सारे ग्रहों का मिलकर जितना वजन होता है उससे ढाई गुना अधिक अकेले बृहस्पति का है। इस ग्रह पर सबसे ज्यादा करीब 90 प्रतिशत हाईड्रोजन है और करीब 10 प्रतिशत हीलियम है। बृहस्पति का एक चन्द्रमा यूरोपा है, जो सबसे बड़ा है। परन्तु कुल 79 प्राकृतिक उपग्रह हैं। देवताओं के गुरु बृहस्पति का समीकरण बृहस्पति ग्रह से किया गया है, जिन पर एक विशाल तूफान है जिसका रंग लाल है। परन्तु इनके चन्द्रमा यूरोपा पर बर्फ से ढ़के तरल सागर हैं।  

शनि - शनि भी बृहस्पति की तरह गैस के रूप में ही हैं। नीले रंग के दिखते हैं, जिनके चारों और बहुत खुबसूरत नीले रंग के वलय हैं। पृथ्वी से 95 गुना भारी शनि 1.434 बिलियन किलोमीटर दूर हैं। इनके भी 82 चन्द्रमा हैं। 

शनि के अलावा अरुण और वरुण भी गैसीय ग्रह के रूप में हैं, जिनका मेदिनी ज्योतिष में भविष्यवाणियों के लिए उपयोग किया जाता है। ये सब गैस के बने हुए हैं। इनका तापमान बहुत नीचे हैं और पृथ्वी से काफी अधिक दूर हैं। जहाँ पृथ्वी से बुध 5 करोड़ 79 लाख किमी. दूर हैं, वहीं  नेपेच्यून सूर्य से 4.50 अरब किमी. दूर हैं। यह भी नीले दिखते हैं और सौर मण्डल के आखिरी ग्रह हैं। 

इस तरह से सूर्य से मंगल तक के सारे ग्रह ठोस हैं और मंगल के बाद के सारे ग्रह गैसीय रूप में हैं।

 हँस महापुरुष योग


जन्म पत्रिका के शक्तिशाली योगों में से एक हँस महापुरुष योग कहलाता है। यह योग बृहस्पति ग्रह के कारण बनता है।

जन्म पत्रिका में कुल 12 भाव होते हैं। उनमें से 4 भाव केन्द्र स्थान कहलाते हैं और 3 भाव त्रिकोण कहलाते हैं। लग्न स्थान, केन्द्र और त्रिकोण दोनों का दायित्व निभाता है। 

बृहस्पति की 2 राशियाँ हैं, एक धनु है और एक मीन। धनु को 9 के अंक से व्यक्त करते हैं और मीन को 12 से। कर्क राशि जिसे 4 के अंक से व्यक्त किया जाता है बृहस्पति की उच्च राशि कहलाती है। इन तीनों ही राशियों में जब बृहस्पति होते हैं तो शक्तिशाली परिणाम देते हैं, परन्तु इन तीनों में से भी जब बृहस्पति कर्क राशि अर्थात् 4 के अंक पर होते हैं तो सर्वाधिक शुभ फल देते हैं। 

जब बृहस्पति हँस महापुरुष योग बनाते हैं तो अति शक्तिशाली परिणाम देते हैं। इस योग वाले व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा बहुत ऊँची हो जाती है। व्यक्ति शिक्षा सम्बन्धी कार्य या प्रवचन करता है। लोग उससे सलाह लेने आते हैं। शास्त्रों के ज्ञाता होते हैं। गुणी और आत्म विश्वास से भरपूर होते हैं। धर्माचरण करते हुए सब के पूज्य हो जाते हैं और इस योग का श्रेष्ठ फल 50 से 60 वर्ष के बीच देखने में आता है। 

इस महायोग वाले व्यक्तियों को आसानी से फुसलाया नहीं जा सकता। इनका ज्ञान का खजाना बढ़ता ही चला जाता है। और यह व्यक्ति एवं समाज को सही मार्ग पर ले जाता है। 

इस योग में यदि विकृति आ जाए तो व्यक्ति अहंकारी हो जाता है। कब स्वाभिमान अहंकार में बदल गया पता ही नहीं चलता। जन्म पत्रिका के इस योग पर अन्य ग्रहों का कोई कुप्रभाव नहीं हो तो व्यक्ति दिव्य शक्तियों से सम्पन्न होता है और जगत कल्याण की सोचता है। 

हँस महापुरुष योग वाले व्यक्ति शिक्षण-प्रशिक्षण, लेखन-मुद्रण, वित्त, बैंकिंग, सामाजिक नेतृत्व, धर्म, ज्योतिष व अन्य वैदिक विद्याएँ जैसे कार्यों में रुचि लेते हैं और अपने विषय में प्रसिद्ध हो जाते हैं। यदि यह योग अपने उत्तम अंशों में स्थित हों, जो कि तभी सम्भव हो सकता जब शुक्र, चन्द्र और बुध जैसे ग्रह बृहस्पति पर दृष्टि कर रहे हों या बृहस्पति के साथ एक ही राशि में स्थित हों, तो वह व्यक्ति असाधारण गुणों से सम्पन्न होता है।

 वास्तुशास्त्र: वैदिक काल की मास्टर प्लानिंग


पं. सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर, नेशनल दुनिया


प्राचीन काल में ब्रह्मा ने विश्व की सृष्टि से पूर्व वास्तु की सृष्टि की तथा लोकपालों की कल्पना की। ब्रह्मा ने जो मानसी सृष्टि की उसे मूर्तरूप देने हेतु विश्वकर्मा ने अपने चारों मानस पुत्र जय, विजय, सिद्धार्थ व अपराजित को आदेशित करते हुए कहा कि 'मैंने देवताओं के भवन इत्यादि (यथा इन्द्र की अमरावती) की स्थापना अब तक की है। अब वेन पुत्र पृथु के निवास हेतु राजधानी का निर्माण मैं स्वयं करूंगा। तुम लोग समस्त भूलोक का अध्ययन करो। सामान्य जन की आवश्यकताओं के अनुरूप स्थापनाएं करो’ विश्वकर्मा के इस संवाद से उच्चकोटि के चिंतन योजना व प्रबंधन का संकेत मिलता है। एक तरफ नगर निवेशन व दूसरी तरफ आंतरिक रचनाओं में वास्तु पुरुष के देवत्व का आरोपण करते हुए भौतिक सृष्टि में दार्शनिक सौंदर्य की समष्टि करते हुए उससे चारों पुरुषार्थ की अभीष्ट सिद्धि की कामना की गई थी वृहत्संहिता के अनुसार जिस भांति किसी घर में वास्तुपुरुष की कल्पना करते हुए कार्य किया जाता है, उसी भांति नगर व ग्रामों में ऐसे ही वास्तुदेवता स्थित होते हैं व उस नगर ग्रामादि में ब्राह्मण आदि वर्णों को क्रमानुसार बसाने की व्यवस्था की गई। राजा भोज रचित समराङ्गण सूत्रधार के पुर निवेश प्रकरण में वर्गों के आधार पर बसावट करने के विस्तृत निर्देश दिये हैं। 

अग्नि कोण में अग्नि कर्मी लोग, स्वर्णकार, लुहार इत्यादि को बसाना चाहिए। दक्षिण दिशा में वैश्यों के सम्पन्न लोगों के, चक्रिकों अर्थात् गाड़ी वाले नट या नर्तकों के घर स्थापित करने चाहिए। सौकारिक (सूकरोपजीवी) मेषीकार (गडरिया), बहेलिया, केवट व पुलिस इत्यादि को नैऋत्य कोण में बसाना चाहिए। रथों, शस्त्रों के बनाने वालों को पश्चिम दिशा में बसाना चाहिए। नौकरों व दलालों को वायव्य दिशा में बसाना चाहिए। संन्यासियों को, विद्वानों को, प्याऊ व धर्मशाला को उत्तर दिशा में बसाना चाहिए। ईशान में घी, फल वालों को बसाना चाहिए। आग्नेय दिशा में वे बसें जो सेनापति, सामन्त या सत्ताधारी व्यक्ति हों। धनिक व व्यवसायी दक्षिण, कोषाध्यक्ष महामार्ग, दण्डनायक व शिल्पियों को पश्चिम दिशा में व उत्तर दिशा में पुरोहित, ज्योतिषी लेखक व विद्वान बसें। 

आजकल शहर योजनाओं में या बड़ी सोसायटियों में इस योजना पर ध्यान नहीं दिया जाता। वास्तु का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण पुराने जयपुर की बसावट में आज भी देखा जा सकता है। 


क्या हैं वास्तु पुरुष?

वास्तु पुरुष की कल्पना भूखण्ड में एक ऐसे औंधे मुंह पड़े पुरुष के रूप में की जाती है, जिसमें उनका मुंह ईशान कोण व पैर नैऋत्य कोण की ओर होते हैं। उनकी भुजाएं व कंधे वायव्य कोण व अग्निकोण की ओर मुड़ी हुई रहती हैं। देवताओं से युद्ध के समय एक राक्षस को देवताओं ने परास्त कर भूमि में गाड़ दिया व स्वयं उसके शरीर पर खड़े रहे। मत्स्य पुराण के अनुसार ब्रह्मा से प्रार्थना किए जाने पर इस असुर को पूजा का अधिकार मिला। ब्रह्मा ने वरदान दिया कि निर्माण तभी सफल होंगे जब वास्तु पुरुष मंडल का सम्मान करते हुए निर्माण किये जाएं। इनमें वास्तु पुरुष के अतिरिक्त 45 अन्य देवता भी शामिल हैं। इन 45 अतिरिक्त देवताओं में 32 तो बाहरी ओर भूखण्ड की परिधि पर ही विराजमान हैं व शेष 13 भूखण्ड के अन्दर हैं। 

पद वास्तु 

वास्तु पुरुष का आविर्भाव इतिहास में कब हुआ इसका समय ज्ञात नहीं हैं, परन्तु वैदिक काल से ही यज्ञवेदी का निर्माण पूर्ण विधान के साथ किया जाता था। क्रमश: यहीं से विकास कार्य शुरु हुआ। एक पदीय वास्तु (जिसमें वास्तुखण्ड के और विभाजन न किये जाएं) जिसे सकल कहते हैं, पेचक मण्डल जिसमें एक वर्ग के चार बराबर विभाजन किए जाएं, वर्ग को नौ बराबर भागों में विभाजित किया जाए उसे पीठ, फिर 16, 64, 81, 100 भाग वाले वास्तुचक्र का विकास हुआ। इसी क्रम में यह निश्चय भी किया गया कि चतु:षष्टिपद वास्तु या एकाशीतिपद वास्तु या शतपद वास्तु में क्रमश: किन वर्णों में बसाया जाए। समराङ्गण सूत्रधार के अनुसार मुख्य रूप से 64,81,100 पद वाले वास्तु का अधिक प्रचलन हुआ। उक्त ग्रंथ के अनुसार चतुषष्टिपद वास्तु का प्रयोग राजशिविर ग्राम या नगर की स्थापना के समय करना चाहिए। एकाशीतिपद वास्तु (81 पद) का प्रयोग सामान्यघरों में करना चाहिए। शतपद वास्तु का प्रयोग स्थपति (आर्किटेक्ट) को महलों, देवमंदिरों व बड़े सभागार इत्यादि में करना चाहिए। आजकल बहुत बड़ी सोसायटियों में भी इन नियमों का पालन किया जा सकता है। पद विभाजन की स्वीकृति 11 वीं शताब्दी तक वृत्त वास्तु, जो कि राजप्रासादों हेतु प्रयुक्त की जाती थी, में भी दी गई है। वृत्त वास्तु में मुख्यत: चतुषष्टि वृत्त व शतपद वृत्त वास्तु प्रचलन में बने रहे। त्रिकोण, षटकोण, अष्टकोण, सोलहकोण वृत्तायत  व अद्र्धचंद्राकार वास्तु में भी वृत्त वास्तु के समान पद विभाजन तथा तदनुसार ही वास्तु पुरुष स्थापन का प्रावधान रखा गया है। 

देवता 

एकाशीतिपद वास्तु में जो कि सर्वाधिक प्रचलन में है, 81 पद या वर्गाकार खानों में 45 देवता विराजमान रहते हैं। मध्य में 13 व बाहर 32 देवता निवास करते हैं। ईशान कोण से क्रमानुसार नीचे के भाग में शिखि, पर्जन्य, जयन्त, इन्द्र, सूर्य, सत्य, भृंश व अंतरिक्ष तथा अग्निकोण में अनल विराजमान हैं। नीचे के भाग में पूषा, वितथ, गृहत्क्षत, यम, गंधर्व, भृंगराज और मृग विराजमान हंै। नैऋत्य कोण से प्रारंभ करके क्रमानुसार दौवारिक (सुग्रीव), पुष्पदंत, वरुण, असुर, शोष और राजयक्ष्मा तथा वायव्य कोण से प्रारंभ करके रोग, नाग, भल्लाट, सोम, भुजंग, अदिति व दिति आदि विराजमान हैं। बीच के नवें पद में ब्रह्मा जी विराजमान हैं। ब्रह्मा की पूर्व दिशा में अर्यमा, उसके बाद सविता दक्षिण में विवस्वान्, इंद्र, पश्चिम में मित्र फिर राजयक्ष्मा तथा उत्तर में शोष व आपवत्स नामक देवता ब्रह्मा को चारों ओर से घेरे हुए हैं। आप ब्रह्मा के ईशान कोण में, अग्नि कोण में सावित्र, नैऋत्य कोण में जय व वायव्य कोण में रुद्र विराजमान हैं। इन वास्तु पुरुष का मुख नीचे को व मस्तक ईशान कोण में है। इनके मस्तक पर चरकी स्थित हंै। मुख पर आप, स्तन पर अर्यमा, छाती पर आपवत्स हैं। पर्जन्य आदि बाहर के चार देवता पर्जन्य, जयन्त, इन्द्र और सूर्य क्रम से नेत्र, कर्ण, उर:स्थल और स्कंध पर स्थित हैं। 

सत्य आदि पाँच देवता भुजा पर स्थित हैं। सविता और सावित्र हाथ पर विराज रहे हैं। वितथ और बृहदांत पाश्र्व पर हैं, विवस्वान उदर पर हैं, उरू पर गंधर्व, जानु पर भृंगराज जंघा पर और मृग स्फिक के ऊपर हैं। ये समस्त देवता वास्तुपुरुष के दायीं ओर स्थित हैं। बायें स्तन पर पृथ्वीधर नेत्र पर दिति, कर्ण पर अदिति, छाती पर भुजंग, स्कंध पर सोम, भुज पर भल्लाट, मुख्य, रोग व पापयक्ष्मा, हाथ पर रुद्र व राजयक्ष्मा, पाश्र्व पर शोष असुर, उरू पर वरुण, जानु पर, पुष्पदंत, जंघा पर सुग्रीव और स्फिक पर दौवारिक हैं। वास्तुपुरुष के लिंग पर इंद्र व जयंत स्थित हैं हृदय पर ब्रह्मा व पैरों पर पितृगण हैं। वराहमिहिर ने यह वर्णन परमशायिक या इक्यासी पद वाले वास्तु में किया है। इसी भांति मंडूक या चौसठ पद वास्तु का विवरण किया गया है। ये सभी देवता अपने-अपने विषय में गृहस्वामी को समृद्धि देते हैं। इन्हें संतुष्ट रखने में श्रीवृद्धि होती है, शान्ति मिलती है। इन देवताओं की उपेक्षा होने से वे अपने स्वभाव के अनुसार पीड़ा देते हैं। बिना योजना के निर्माणादि कार्य होने से कुछ देवताओं की तो तुष्टि हो जाती है, जबकि कुछ देवता उपेक्षित ही रहते हैं। इसका फल यह मिलता है कि गृह स्वामी को कुछ विषयों में अच्छे परिणाम तथा कुछ विषयों में बगड़े परिणाम साथ-साथ ही मिलते रहते हैं। 

वास्तु चक्र की आड़ी और खड़ी रेखाएँ देशान्तर रेखाओं व अक्षांश रेखाओं के समानान्तर होती हैं, तभी निर्माण सफल होते हैं। सभी दिक्पालों में आठ तो दिशाएँ हैं व नवीं और दसवीं दिशा के रूप में आकाश और पाताल होते हैं। इसका वैज्ञानिक अर्थ यह है कि अंतरिक्ष से आने वाली समस्त कॉस्मिक ऊर्जा, ग्रह -नक्षत्रों के प्रभाव, उसकी गतियाँ और अन्तरग्रहीय आकर्षण तथा पाताल का अर्थ भूगर्भीय ऊर्जा इत्यादि का समावेश है। एक वास्तु चक्र की रचना शुद्ध वैज्ञानिक नियमों पर आधारित है और इसके नियमों का आविष्कार वैदिक ऋषियों ने ही किया है। वैदिक विज्ञान का यह सर्वश्रेष्ठ नमूना है, जिसमें निर्जीव भूखण्डों में धर्म, दर्शन और आध्यात्म की प्रतिष्ठा की गई है।

 चित्रा नक्षत्र


भारतीय नक्षत्र गणना में चित्रा 14वाँ है। इस नक्षत्र के आधे भाग को कन्या राशि में लिया गया है और आधे भाग को तुला में। चित्रा नक्षत्र के स्वामी ग्रह मंगल माने गये हैं। नक्षत्र के देवता त्वष्टा हैं, जिनकी गणना द्वादश आदित्यों में की गई है। अंग्रेजी में इस नक्षत्र को स्पाइका या अल्फा-वर्जिनिस कहते हैं। नंगी आँखों से देखे जाने वाले सबसे चमकदार तारों में इसकी गणना होती है। यह अग्नि तत्त्व के हैं। तामसिक गुण हैं, पित्त प्रधान हैं और इनकी बीज ध्वनि पे, पो, रा, री है। अर्थात् पहले चरण का नामाक्षर पे पर रखा जाता है। नक्षत्र के दूसरे चरण में जन्मे व्यक्ति का नाम पो पर रखा जा सकता है। तीसरा चरण जो कि तुला राशि में पड़ता है, में जन्मे व्यक्ति का नाम रा पर रखा जा सकता है और चित्रा नक्षत्र के चौथे और आखिरी चरण में जन्मे व्यक्ति का नाम री अक्षर पर रखा जा सकता है। 

इस नक्षत्र में जन्मे व्यक्ति अत्यंत आकर्षक व्यक्ति के स्वामी होते हैं, ऊर्जावान, कलाकार, महान प्रेमी, शूरवीर, ज्ञानी, विवेकी, बहुत सारे गुणों से युक्त, साफ-सुथरा रहने वाले व जन्म स्थान से कहीं दूर उन्नति पाने वाले होते हंै। यह लोग अत्यंत प्रतिभाशाली होते हैं, आत्म विश्वास से परिपूर्ण होते हैं। जीवन में जोखिम लेते हैं। कभी -कभी बहुत प्रतिक्रियावादी होते हैं और जीवन में कई बार लीक से हटकर काम करते हैं। यह लोग कलाओं में कुशल, सौन्दर्यशास्त्र में कुशल, चिकित्सा का कार्य करने वाले, वाणी का उपयोग करने वाले, योजनाएँ बनाने वाले व प्रतिभा से प्रदर्शन करने वाले हो सकते हैं। इनकी मुख्य समस्या यह है कि एक से अधिक गतिविधियों में जुड़े रहते हैं, इसीलिए एकाग्रता बनाये रखने के लिए विशेष प्रयास करने पड़ते हैं। 

भारतीय ज्योतिष चित्रापक्षीय अयनांश पर आधारित है अर्थात् सूर्य का अपनी मूल कक्षा से जो विचलन हो रहा है उसकी गणना के लिए या सूर्य की वास्तविक स्थिति के ज्ञान के लिए चित्रा नक्षत्र को उपयोग में लाया जाता है। वैसे तो सूर्य को नग्न आँखों से देखा जाना संभव नहीं है, इसीलिए पुराने ऋषियों से एक विधि निकाली। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा चित्रा नक्षत्र पर होते हैं। जब वे चित्रा नक्षत्र के ठीक मध्य में स्थित होकर तुला राशि में प्रवेश करने वाले होते है, ठीक उसी समय उनसे 180 अंश पर सूर्य की स्थिति होती है, जो कि मीन राशि से मेष राशि में प्रवेश लेने को तत्पर होते हैं। इससे सूर्य की गति और स्थिति का पता लगाया जाता है। इस गणना पद्धति को ही विस्तार दिया जाकर सूर्य की गति का और ज्योतिष की गणनाओं का प्रयोग किया जाता है। चूँकि चित्रा नक्षत्र गणना का आधार बिन्दु है, इसलिए अयनांश गणना पद्धति चित्रा पक्षीय कहलाती है जो कि भारतीय ज्योतिष की विशेषता है। इसे भारत सरकार ने भी स्वीकार कर लिया है। आकाश में इन्हें पहचानने के लिए पहले तो सप्तऋषि मण्डल को पहचाना जाता है और उनके सम्मुख ही चित्रा नक्षत्र की पहचान की जा सकती है। 

चित्रा नक्षत्र में जन्मे व्यक्ति सुन्दर होते हैं, सौन्दर्य प्रेमी होते हैं, इन्हें सजना-संवरना अच्छा लगता है और 33 से 38 वर्ष की आयु में इनका भाग्योदय होता है। जब चित्रा नक्षत्र में जन्मे व्यक्ति का जन्म कन्या राशि में होता है तब ये जोखिम लेने वाले और पराक्रमी होते हैं और जब चित्रा नक्षत्र के बाद के 2 चरणों में जन्म होता है, जो कि तुला राशि के अन्तर्गत होते हैं, तो वे अत्यंत आकर्षक व कामुक होते हैं। 

मंगलवार के दिन 7 प्रकार के अनाज का दान तथा गुड़ व तिल का दान लाभकारी रहता है। इस नक्षत्र के लिए जब यज्ञ किया जाता है तो वैदिक मंत्र के साथ यज्ञ समिधा में तिल और घी के साथ-साथ पान के पत्ते की आहुति भी दी जाती है। वैदिक मंत्र विश्वकर्मा से सम्बन्धित है जो इस प्रकार है- 

ॐ त्वष्टा तुरीयो अद्भुत इन्द्राग्री पुष्टिवद्र्धनम्। 

द्विपदाछन्द ऽइन्द्रियमुक्षा गौत्रवयोदध: ॐ विश्वकम्र्मणे नम:।।

 उग्र मंगल व देश में अशांति


पं. सतीश शर्मा,  एस्ट्रो साइंस एडिटर, नेशनल दुनिया


इन दिनों जो देश में चल रहा है उसका ज्योतिष से घनिष्ठ सम्बन्ध है। ग्रहों की इच्छा के बिना कुछ भी नहीं होता। जब सारे ग्रह शांत हो गये हैं तो इन दिनों मंगल ग्रह वक्री हो गये हैं और मेष राशि से मीन राशि में आ गये है, जो कि युद्ध, रक्तपात, झगड़े, विवाद, दो राजा या दो शासनाध्यक्षों में युद्ध, विद्रोह, वर्ग युद्ध, सार्वजनिक हिंसा और मृत्यु का तांडव दे रहे हैं। जब मंगल वक्र गति से चलते हैं, जो कि इन दिनों चल रहे हैं, तो अति शक्तिशाली होते हैं और शासनाध्यक्ष या सेनापति को प्रभावित करते हैं। जिन लोगों की जन्म पत्रिका मंगल से प्रभावित हैं उन लोगों के जीवन में इन दिनों महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घटने की संभावना है। 

हमारे सूर्य से मंगल की औसत दूरी 23 करोड़ किमी. है। मंगल का दिन पृथ्वी के दिन से कुछ मिनट ही अधिक है। पृथ्वी की तरह ही मंगल का अपने अक्ष पर झुकाव 25.19 डिग्री है अर्थात् मंगल को ग्लोब के रूप में दिखाया जाए तो पृथ्वी के ग्लोब की तरह ही झुका हुआ दिखाया जाएगा। ऋतुएँ भी बिल्कुल पृथ्वी जैसी ही हैं परन्तु उनकी अवधि लगभग दुगुनी है। इस समय मंगल और पृथ्वी के बीच में सबसे कम दूरी है, जो कि अगले 25 हजार वर्ष तक चलेगी। 

देवता के रूप में मंगल के हाथों में चार शस्त्र हैं - त्रिशूल, गदा, कमल तथा एक शूल। वराह पुराण के वर्णन के अनुसार वे भगवान वराह अवतार और पृथ्वी के मिलन से उत्पन्न हुए हैं। यह तब की कथा है जब सारी पृथ्वी जल में डूब गई थी और भगवान ने वराह (शूकर) के रूप में अवतार लेकर अपने थूथन से पृथ्वी को जल से बाहर निकालकर उसका उद्धार किया था। पृथ्वी और वराह के मिलन से मंगल की उत्पत्ति हुई, इसलिए मंगल को भौम या भूमि पुत्र माना जाता है। परन्तु मंगल का स्वयं का विवाह नहीं हुआ था। इस घटना का समीकरण किसी खगोलीय घटना के साथ किया जा सकता है, जिसमें किसी बड़े खगोलीय पिण्ड ने पृथ्वी को टक्कर मार दी और पृथ्वी से एक टुकड़ा निकलकर मंगल ग्रह के रूप में निर्मित हो गया। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इसीलिए पृथ्वी और मंगल के गुणों में बहुत अधिक समानता है और अगर कहीं जीवन हुआ, तो पृथ्वी के अतिरिक्त मंगल ग्रह पर ही सबसे ज्यादा संभावना है। 

वैज्ञानिकों का एक समूह इस बुद्धि विलास में पड़ा हुआ है कि जीवन की उत्पत्ति के लिए कोई प्रथम सूक्ष्म जीव या तो पृथ्वी वाले भाग में था या मंगल वाले भाग में था। कभी यह बहुत गर्म ग्रह था परन्तु अब तप्त लाल ग्रह में बदल गया है। परन्तु मंगल पर अब वह सब कुछ है जो पृथ्वी पर है। बल्कि हमारे सम्पूर्ण सौर मण्डल का सबसे ऊँचा पर्वत भी मंगल पर ही स्थित है। उसका नाम ओलम्पस मून्स है। अन्य वैज्ञानिक शोध भी यह बताते हैं कि 3 ग्रह और भी ऐसे हैं जिन पर जीवन की सम्भावनाएँ हैं। नेचर जनरल में प्रकाशित एक शोध के अनुसार यह तीन ग्रह आकार में पृथ्वी और शुक्र जैसे हैं और पृथ्वी से 39 प्रकाश वर्ष दूर हैं। 

ज्योतिष में मंगल – 

मंगल देवताओं के सेनापति हैं, इनका समीकरण भगवान शिव के पुत्र स्कन्द या कार्तिकेय से भी किया जाता है तथा त्रेता युग के हनुमान जी और द्वापर युग में भीम के अंदर मंगल का अंश माना जाता है। 

मनुष्य शरीर में मंगल - 

मनुष्य के शरीर में मंगल का आधिपत्य रक्त पर माना जाता है। रक्त निर्माण, रक्त प्रवाह से मंगल का सम्बन्ध होता है। शरीर में जितने भी रक्त विकार होते हैं, वे मंगल के नीच राशि में होने से, अस्त होने से और वक्री होने से सम्भव होते हैं। रक्ताल्पता हो, रक्त चाप हो, खून का पतला या गाढ़ा होना हो, थ्रोम्बोसिस या डीवीटी जैसी बीमारी जिसमें रक्त के थक्के बनकर नालियों को अवरूद्ध कर देते हैं, इत्यादि दूषित मंगल के कारण होते हैं। पल्स रेट या हार्ट बीट का कम-ज्यादा होना भी मंगल पर निर्भर है। वर्जिश, व्यायाम, खेलकूद, मॉर्निंग वॉक, कुश्ती और मुष्टियुद्ध सब मंगल के विषय हैं। आप अच्छी सी मॉर्निंग वॉक करिए, आपका रक्त चाप बढ़ता हुआ नजर आएगा। आप थोड़ा सा गुस्सा कीजिए तो आपका चेहरा लाल हो जाएगा या आपकी भृकुटि तन जाएगी, या आँखों में लाल डोरे आ जाएंगे तो मंगल चेहरे पर नजर आने लगेंगे। आपके शरीर पर घाव लगा है तो मंगल के कारण है। पहले तलवार, तीर-कमान से युद्ध हुआ करते थे तो शरीर पर घाव आ जाते थे, वह दूषित मंगल के कारण आते थे। आजकल बाहरी घाव नहीं होते, परन्तु मंगल दूषित होने के कारण पित्त जनित अल्सर या आंतरिक व्रण मंगल के कारण होते हैं। 

दाम्पत्य जीवन में मंगल - 

जन्म पत्रिका के 12वें भाव, लग्न, चौथे भाव, सातवें भाव और आठवें भाव में यदि मंगल स्थित हों तो उसे मंगल दोष माना जाता हैं। इस दोष का वास्तविक नाम तो वैधव्य दोष है, क्योंकि इन स्थानों में बैठा हुआ मंगल जीवन साथी के आयु और स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। जीवन साथी की जन्म पत्रिका के इन्हीं भावों में यदि मंगल हो तो मंगल दोष का उपाय मान लिया जाता है। उच्च राशि का मंगल यद्यपि शुभ माना गया है और पंच महापुरुष योगों में से एक महायोग बनाता है, जिसका नाम रुचक महायोग है। परन्तु इस योग वाले बड़बोले और झूठ बोलते भी देखे गये हैं। पौरूष व अधिकारिता का सम्बन्ध मंगल से जोड़ा गया है। मंगल प्रधान व्यक्ति घर और चाहे बाहर, खुद ही शासन करना चाहते हैं। 

कर्ज मुक्ति और मंगल -

कर्ज का सम्बन्ध मंगल से जोड़ा गया है, इसलिए कर्जमुक्ति के जो उपाय किये जाते हैं, उनमें मंगल ग्रह के पूजा - पाठ बताये जाते हैं। वे ही खिलाड़ी सफल होते हैं, जिनकी कुण्डली में मंगल शानदार होते हैं। मंगल प्रधान व्यक्ति अत्यंत श्रमशील होते हैं, अत: धीरे-धीरे कर्जमुक्त हो ही जाते हैं। 

तर्क के देवता हैं मंगल - 

जैमिनी ऋषि ने मंगल को तर्कशास्त्र का प्रणेता ग्रह माना है। कारकांश लग्न में यदि मंगल हो तो व्यक्ति तार्किक होता है, चाहे वह न्यायाधीश हो, चाहे वकील हो, चाहे कम्पनियों के पैरोकार हों, चाहे लीगल एडवाइजर हों या चाहे मेडिकल रिप्रेन्टेटिव जैसे कर्मचारी हों। मंगल और बुध ग्रह का परस्पर ज्योतिष सम्बन्ध हो व्यक्ति निश्चित न्यायाधीश बनता है। 

वर्तमान सामाजिक अशांति और मंगल ग्रह - 

हाथरस जैसी घटना या ऐसी अनेकों घटनाओं के मूल में जहाँ सामाजिक मतभेद या वर्ग भेद जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, मंगल ग्रह की गतियाँ देशकाल को प्रभावित करती हैं। सितम्बर महीने से मंगल मेष राशि में आये हैं जो कि उनकी अपनी राशि है, फिर वे वक्री हो गये तो और भी शक्तिशाली हो गये। इसके बाद एक विचित्र बात हुई कि 4 अक्टूबर के दिन मंगल ग्रह मेष राशि से उल्टा चलकर मीन राशि में आ गये यानि कि करेला और नीमचढ़ा। प्रभावित वर्ग कौन हैं? राजपूत, जो कि मंगल ग्रह के प्रतिनिधि हैं। अत: शास्त्रों में वर्णित ग्रहों का प्रभाव सामाजिक जीवन में इस प्रकार देखा जा सकता है। अब यह मंगल 14 नवम्बर तक वक्री रहेंगे, तो एक भविष्यवाणी की जा सकती है कि 14 नवम्बर तक किसी न किसी रूप में आंदोलन चलते ही रहेंगे। झूठे तर्क गढ़े जाएंगे, षडय़ंत्र रच जाएंगे और सरकारें अपराधियों के पीछे भागती रहेंगी। मंगल के कारण लोगों के दिमाग में गर्मी भरी रहेगी और घटनाएँ घटती रहेंगी। राजशाहियों के जमाने में तो राजा लोग खुद ग्रहों की शान्ति करवा लेते थे। वर्तमान लोकतांत्रिक पद्धतियों में सरकारें तो ऐसा काम करती नहीं है। हाँ, व्यक्तिगत स्तर पर किये जा सकते हैं। अभी मंगल की बड़ी भूमिका शेष हैं क्योंकि थोड़े दिन बाद वे पुन: मेष राशि में 24 दिसम्बर को आने वाले हैं, जहाँ वे 22 फरवरी तक रहेंगे और उसके बाद वृषभ राशि में 14 अप्रैल तक रहेंगे। मंगल ग्रह के मीन, मेष और वृषभ राशि पर्यन्त भ्रमण के समय शासन के हाथ अपराधियों की गर्दन पर होंगे। चूंकि वृषभ राशि में रहते हुए मंगल, वृश्चिक राशि पर दृष्टिपात करेंगे, जो कि मुम्बई की राशि है, इसीलिए वहाँ पर भी अपराधियों की गर्दन पर कानून के हाथ पहुँच जाएंगे।

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रघुवीरगद्यम्

रामस्तोत्राणि

[[लेखकः :|]]

जयत्याश्रित संत्रास ध्वान्त विध्वंसनोदयः ।

प्रभावान् सीतया देव्या परमव्योम भास्करः ॥


जय जय महावीर !

महाधीर धौरेय !

देवासुर-समर-समय-समुदित-निखिल-निर्जर-निर्धारित-निरवधिक-माहात्म्य !

दशवदन-दमित-दैवत-परिषदभ्यर्थित-दाशरथिभाव !

दिनकर-कुल-कमल-दिवाकर !

दिविषदधिपति-रण-सहचरण-चतुर-दशरथ-चरम-ऋण-विमोचन !

कोसलसुता-कुमारभाव-कञ्चुकित-कारणाकार !

कौमारकेलि-गोपायित-कौशिकाध्वर !

रणाध्वर धुर्य भव्य दिव्यास्त्र बृन्द वन्दित !

प्रणत जन विमत विमथन दुर्ललितदोर्ललित !

तनुतर विशिख विताडन विघटित विशरारु शरारु ताटका ताटकेय !

जडकिरण शकलधरजटिल नट पतिमकुट नटनपटु

विबुधसरिदतिबहुल मधुगलन ललितपद

नलिनरजौपमृदित निजवृजिन जहदुपलतनुरुचिर

परममुनि वरयुवति नुत !

कुशिकसुतकथित विदित नव विविध कथ !

मैथिल नगर सुलोचना लोचन चकोर चन्द्र !

खण्डपरशु कोदण्ड प्रकाण्ड खण्डन शौण्ड भुजदण्ड !

चण्डकर किरणमण्डल बोधित पुण्डरीक वन रुचि लुण्टाक लोचन !

मोचित जनक हृदय शङ्कातङ्क !

परिहृत निखिल नरपति वरण जनकदुहित कुचतट विहरण

समुचित करतल !

शतकोटि शतगुण कठिन परशु धर मुनिवर कर धृत

दुरवनमतमनिज धनुराकर्षण प्रकाशित पारमेष्ठ्य !

क्रतुहर शिखरि कन्तुक विहृतिमुख जगदरुन्तुद

जितहरिदन्तदन्तुरोदन्त दशवदन दमन कुशल दशशतभुज

नृपतिकुलरुधिरझर भरित पृथुतर तटाक तर्पित

पितृक भृगुपति सुगतिविहति कर नत परुडिषु परिघ !

अनृत भय मुषित हृदय पितृ वचन पालन प्रतिङ्य़ावङ्य़ात

यौवराज्य !

निषाद राज सौहृद सूचित सौशील्य सागर !

भरद्वाज शासनपरिगृहीत विचित्र चित्रकूट गिरि कटक

तट रम्यावसथ !

अनन्य शासनीय !

प्रणत भरत मकुटतट सुघटित पादुकाग्र्याभिषेक निर्वर्तित

सर्वलोक योगक्षेम !

पिशित रुचि विहित दुरित वलमथन तनय बलिभुगनुगति सरभसशयन तृण

शकल परिपतन भय चरित सकल सुरमुनिवरबहुमत महास्त्र सामर्थ्य !

द्रुहिण हर वलमथन दुरालक्ष्य शर लक्ष्य !

दण्डका तपोवन जङ्गम पारिजात !

विराध हरिण शार्दूल !

विलुलित बहुफल मख कलम रजनिचर मृग मृगयानम्भ

संभृतचीरभृदनुरोध !

त्रिशिरः शिरस्त्रितय तिमिर निरास वासरकर !

दूषण जलनिधि शोशाण तोषित ऋषिगण घोषित विजय घोषण !

खरतर खर तरु खण्डन चण्ड पवन !

द्विसप्त रक्षःसहस्र नलवन विलोलन महाकलभ !

असहाय शूर !

अनपाय साहस !

महित महामृथ दर्शन मुदित मैथिली दृढतर परिरम्भण

विभवविरोपित विकट वीरव्रण !

मारीच माया मृग चर्म परिकर्मित निर्भर दर्भास्तरण !

विक्रम यशो लाभ विक्रीत जीवित गृघ्रराजदेह दिधक्षा

लक्षितभक्तजन दाक्षिण्य !

कल्पित विबुधभाव कबन्धाभिनन्दित !

अवन्ध्य महिम मुनिजन भजन मुषित हृदय कलुष शबरी

मोक्षसाक्षिभूत !

प्रभJण्जनतनय भावुक भाषित रJण्जित हृदय !

तरणिसुत शरणागतिपरतन्त्रीकृत स्वातन्त्र्य !

दृढ घटित कैलास कोटि विकट दुन्दुभि कङ्काल कूट दूर विक्षेप

दक्षदक्षिणेतर पादाङ्गुष्ठ दर चलन विश्वस्त सुहृदाशय !

अतिपृथुल बहु विटपि गिरि धरणि विवर युगपदुदय विवृत चित्रपुङ्ग वैचित्र्य !

विपुल भुज शैल मूल निबिड निपीडित रावण रणरणक जनक चतुरुदधि

विहरण चतुर कपिकुल पति हृदय विशाल शिलातलदारण दारुण शिलीमुख !

अपार पारावार परिखा परिवृत परपुर परिसृत दव दहन

जवनपवनभव कपिवर परिष्वङ्ग भावित सर्वस्व दान !

अहित सहोदर रक्षः परिग्रह विसंवादिविविध सचिव विप्रलम्भ समय

संरम्भ समुज्जृम्भित सर्वेश्वर भाव !

सकृत्प्रपन्न जन संरक्षण दीक्षित !

वीर !

सत्यव्रत !

प्रतिशयन भूमिका भूषित पयोधि पुलिन !

प्रलय शिखि परुष विशिख शिखा शोषिताकूपार वारि पूर !

प्रबल रिपु कलह कुतुक चटुल कपिकुल करतलतुलित हृत गिरिनिकर साधित

सेतुपध सीमा सीमन्तित समुद्र !

द्रुत गति तरु मृग वरूथिनी निरुद्ध लङ्कावरोध वेपथु लास्य लीलोपदेश

देशिक धनुर्ज्याघोष !

गगनचर कनकगिरि गरिमधर निगममय निजगरुड गरुदनिल लव गलित

विषवदन शर कदन !

अकृत चर वनचर रण करण वैलक्ष्य कूणिताक्ष बहुविध रक्षो

बलाध्यक्ष वक्षः कवाट पाटन पटिम साटोप कोपावलेप !

कटुरटद् अटनि टङ्कृति चटुल कठोर कार्मुक !

विशङ्कट विशिख विताडन विघटित मकुट विह्वल विश्रवस्तनयविश्रम

समय विश्राणन विख्यात विक्रम !

कुम्भकर्ण कुल गिरि विदलन दम्भोलि भूत निःशङ्क कङ्कपत्र !

अभिचरण हुतवह परिचरण विघटन सरभस परिपतद् अपरिमितकपिबल

जलधिलहरि कलकलरव कुपित मघवजिदभिहननकृदनुज साक्षिक

राक्षस द्वन्द्वयुद्ध !

अप्रतिद्वन्द्व पौरुष !

त्र यम्बक समधिक घोरास्त्राडम्बर !

सारथि हृत रथ सत्रप शात्रव सत्यापित प्रताप !

शितशरकृतलवनदशमुख मुख दशक निपतन पुनरुदय दरगलित जनित

दर तरल हरिहय नयन नलिनवन रुचिखचित निपतित सुरतरु कुसुम वितति

सुरभित रथ पथ !

अखिल जगदधिक भुज बल वर बल दशलपन लपन दशक लवनजनित कदन

परवश रजनिचर युवति विलपन वचन समविषय निगम शिखर निकर

मुखर मुख मुनिवर परिपणित!

अभिगत शतमख हुतवह पितृपति निरृति वरुण पवन धनदगिरिशप्रमुख

सुरपति नुति मुदित !

अमित मति विधि विदित कथित निज विभव जलधि पृषत लव !

विगत भय विबुध विबोधित वीर शयन शायित वानर पृतनौघ !

स्व समय विघटित सुघटित सहृदय सहधर्मचारिणीक !

विभीषण वशंवदीकृत लङ्कैश्वर्य !

निष्पन्न कृत्य !

ख पुष्पित रिपु पक्ष !

पुष्पक रभस गति गोष्पदीकृत गगनार्णव !

प्रतिङ्य़ार्णव तरण कृत क्षण भरत मनोरथ संहित सिंहासनाधिरूढ !

स्वामिन् !

राघव सिंह !

हाटक गिरि कटक लडह पाद पीठ निकट तट परिलुठित निखिलनृपति किरीट

कोटि विविध मणि गण किरण निकर नीराजितचरण राजीव !

दिव्य भौमायोध्याधिदैवत !

पितृ वध कुपित परशुधर मुनि विहित नृप हनन कदन पूर्वकालप्रभव

शत गुण प्रतिष्ठापित धार्मिक राज वंश !

शुच चरित रत भरत खर्वित गर्व गन्धर्व यूथ गीत विजय गाथाशत !

शासित मधुसुत शत्रुघ्न सेवित !

कुश लव परिगृहीत कुल गाथा विशेष !

विधि वश परिणमदमर भणिति कविवर रचित निज चरितनिबन्धन निशमन

निर्वृत !

सर्व जन सम्मानित !

पुनरुपस्थापित विमान वर विश्राणन प्रीणित वैश्रवण विश्रावित यशः

प्रपJण्च !

पJण्चतापन्न मुनिकुमार सJण्जीवनामृत !

त्रेतायुग प्रवर्तित कार्तयुग वृत्तान्त !

अविकल बहुसुवर्ण हयमख सहस्र निर्वहण निर्व र्तित

निजवर्णाश्रम धर्म !

सर्व कर्म समाराध्य !

सनातन धर्म !

साकेत जनपद जनि धनिक जङ्गम तदितर जन्तु जात दिव्य गति दान दर्शित नित्य

निस्सीम वैभव !

भव तपन तापित भक्तजन भद्राराम !

श्री रामभद्र !

नमस्ते पुनस्ते नमः ॥


चतुर्मुखेश्वरमुखैः पुत्र पौत्रादि शालिने ।

नमः सीता समेताय रामाय गृहमेधिने ॥


कविकथक सिंहकथितं

कठोत सुकुमार गुम्भ गम्भीरम् ।

भव भय भेषजमेतत्

पठत महावीर वैभवं सुधियः ॥


सर्वं श्री कृष्णार्पणमस्तु

 Vedanta Desika's Raghuveera Gadyam, celebrates Lord Rama's valour. It was composed when the author was residing at the temple town of Thiruvendipuram in Tamil Nadu. The temple had icons of Rama, Lakshmana and Sita. In the temple idol Rama was shown as Kodandarama (with a bow in His hand). 

Inspired by this, Desika wrote Raghuveera Gadyam, in which he focuses on Rama as a warrior. Desika referred to Rama as a ‘mahaveera'. In fact, Raghuveera Gadyam is also known as Mahaveera Vaibhavam.


The author of this great work Sri Vedanta Desika (also known by names Swami Desika, Swami Vedanta Desika, Thoopul Nigamaantha Desikan) (1268–1369) was a great poet, writer, devotee, philosopher, logician and master-teacher. He composed over hundred works in various genres like devotional poems in Sanskrit, devotional poems and treatises in Tamil, narrative poems, philosophical treatises, commentaries on the works of previous acharyas, texts revealing the hidden meanings of prappati-marga such as Srimad Rahasya-traya-saram, Paramapada-sopanam, Amrita-ranjani and Amrita-svadhini and  works on arts and sciences such as Bhugola-nirnayam and Silpartha-saram.

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ये चमत्कार हिंदी में ही हो सकता है …


चार मिले चौसठ खिले, बीस रहे कर जोड़!

प्रेमी-प्रेमी दो मिले, खिल गए सात करोड़!!


मुझसे एक बुजुर्गवार ने इस कहावत का अर्थ पूछा। काफी सोच-विचार के बाद भी जब मैं बता नहीं पाया, तब मैंने कहा – बाबा आप ही बताइए, मेरी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा।


तब एक रहस्यमयी मुस्कान के साथ बाबा समझाने लगे – 

देखो भाग्यवान, यह बड़े रहस्य की बात है – 

चार मिले – मतलब जब भी कोई मिलता है, तो सबसे पहले आपस में दोनों की आंखें मिलती हैं। इसलिए कहा, चार मिले – 


फिर कहा, चौसठ खिले – 

यानि बत्तीस-बत्तीस दांत – 

दोनों के मिलाकर चौसठ हो गए – इस तरह “चार मिले, चौसठ खिले” – हुआ!


“बीस रहे कर जोड़” – 

दोनों हाथों की दस उंगलियां – दोनों व्यक्तियों की 20 हुईं – 

बीसों मिलकर ही एक-दूसरे को प्रणाम की मुद्रा में हाथ बरबस उठ ही जाते हैं!


वैसे तो शरीर में रोम की गिनती करना असम्भव है, लेकिन मोटा-मोटा साढ़े तीन करोड़ कहते हैं कहने वाले, 

तो कवि ने अंतिम रहस्य भी प्रकट कर दिया –


 “प्रेमी प्रेमी दो मिले – 

खिल गए सात करोड़!”


ऐसा अंतर्हृदय में बसा हुआ प्रिय व्यक्ति जब कोई मिलता है, 

तो रोम-रोम खिलना स्वाभाविक ही है भाई – 


जैसे ही कोई ऐसा मिलता है, 

तो कवि ने अंतिम पंक्ति में पूरा रस निचोड़ दिया – 

“खिल गए सात करोड़” 

यानि हमारा रोम-रोम खिल जाता है!

भई वाह, आनंद आ गया। 

हमारी हिंदी कहावतों में कितना सार छुपा है। 

एक-एक शब्द चासनी में डूबा हुआ  ।।

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Random thoughts to share:


Full stop is Not an end..because we can write a New sentence after it.

Same in Life. Failure is Not the real end. It  can be a Real beginning of Success.


We are living in such a World, where Artificial Lemon flavor is used for Welcome drink and Real Lemon is used in the Finger Bowl.


Keep you fear to yourself, but share your inspiration with others


The Pain you feel today is the strength you feel tomorrow, For every challenge encountered there is opportunity for growth.


When you love your Parents, its equal to God,if you love your friends its equal to Truthfulness, But when you love Yourself it equal to CONFIDENCE.


There is no definItion of a Good day or a Bad day.It all depends on your thoughts that  Either YOU run the Day or the DAY runs You.


मस्ती में जियो, सही राह चलो


 भोजन आपका,परामर्श हमारा,मानें और रहें निरोग।


किस महीने में क्या नही खाना चाहिए और क्या जरूर खाना चाहिए ।


चैत में गुड बिलकुल नहीं खाना चाहिए.

नीम की पत्ती /फल, फूल खूब चबाना चाहिए।


बैसाख में नया तेल नहीं खाना चाहिए ,

चावल खूब खाएं।


जेठ में दोपहर में चलना मना है,

दोपहर में सोना जरुरी है।


आषाढ़ में पका बेल खाना मना है ,

घर की मरम्मत जरूरी है।


सावन में साग खाना मना है,

हर्रे खाना जरूरी है।


भादो मे दही नहीं खाना चाहिए ,

चना खाना जरुरी है।


कुवार में करेला मना है,

गुड खाना जरुरी है।


कार्तिक में जमीन पर सोना मना है,

मूली खाना जरूरी है।


अगहन में जीरा नहीं खाना चाहिए ,

तेल खाना जरुरी है।


पूस में धनिया नहीं खाना चाहिए ,

दूध पीना जरूरी है।


माघ में मिश्री नहीं खानी चाहिए ,

खिचड़ी खाना जरुरी है।


फागुन में चना नहीं खाना चाहिए ,

प्रातः स्नान और नाश्ता जरुरी है।


कुछ जरुरी बाते


चाय के साथ कोई भी नमकीन चीज नहीं खानी चाहिए।


दूध और नमक का संयोग सफ़ेद दाग या किसी भी स्किन डीजीज को जन्म दे सकता है,बाल असमय सफ़ेद होना या बाल झड़ना भी स्किन डीजीज ही है।


दूध या दूध की बनी किसी भी चीज के साथ दही,नमक, इमली, खरबूजा,बेल, नारियल, मूली, तोरई,तिल,तेल, कुल्थी, सत्तू, खटाई, नहीं खानी चाहिए।


दही के साथ खरबूजा, पनीर, दूध और खीर नहीं खानी चाहिए।


गर्म जल के साथ शहद कभी नही लेना चाहिए।


ठंडे जल के साथ घी,तेल,खरबूज,अमरूद,ककड़ी,खीरा, जामुन,मूंगफली कभी नहीं।


शहद के साथ मूली,अंगूर, गरम खाद्य या गर्म जल कभी नहीं।


खीर के साथ सत्तू,शराब,खटाई,खिचड़ी,कटहल कभी नहीं।


घी के साथ बराबर मात्र1 में शहद भूल कर भी नहीं

खाना चाहिए ये तुरंत जहर का काम करेगा।


तरबूज के साथ पुदीना या ठंडा पानी कभी नहीं।


चावल के साथ सिरका कभी नहीं।


चाय के साथ ककड़ी खीरा भी कभी मत खाएं।


खरबूजे के साथ दूध, दही, लहसून और मूली कभी नहीं।


कुछ चीजों को एक साथ खाना अमृत का काम करता है जैसे-


खरबूजे के साथ चीनी ,

इमली के साथ गुड ,

गाजर और मेथी का साग,

बथुआ और दही का रायता 

मकई के साथ मट्ठा ,

अमरुद के साथ सौंफ ,

तरबूज के साथ गुड ,

मूली और मूली के पत्ते ,

अनाज या दाल के साथ दूध या दही ,

आम के साथ गाय का दूध,

चावल के साथ दही,

खजूर के साथ दूध ,

चावल के साथ नारियल की गिरी ,

केले के साथ इलायची।


कभी -कभी कुछ चीजें बहुत पसंद होने के कारण हम

ज्यादा बहुत ज्यादा खा लेते हैं।माले मुफ्त दिले बेरहम वाली कहावत तो मशहूर है ही।शादियों में इसका प्रत्यक्ष प्रमाण मैंने अनेक बार देखा है।

 

कुछ लोगो तो बस फ्री में जहर भी मिल जाए तो थाली भर के खायेंगे खैर चलिए लेकिन माल भले ही दूसरे का

हो पेट आप का ही होता है। बाद में तकलीफ भी आप को ही होती है। 


आइये हम कुछ ऎसी चीजो के बारे में बताते हैं जो अगर आपने ज्यादा खा ली हैं तो कैसे पचाई जाएँ ।


केले की अधिकता में दो छोटी इलायची ।


आम पचाने के लिए आधा चम्म्च सोंठ का चूर्ण और गुड ।


जामुन ज्यादा खा लिया तो ३-४ चुटकी नमक ।


सेब ज्यादा हो जाए तो दालचीनी का चूर्ण एक ग्राम ।


खरबूज के लिए आधा कप चीनी का शरबत ।


तरबूज के लिए सिर्फ एक लौंग ।


अमरूद के लिए सौंफ ।


नींबू के लिए नमक।


बेर के लिए सिरका।


गन्ना ज्यादा चूस लिया हो तो ३-४ बेर खा लीजिये।


चावल ज्यादा खा लिया है तो आधा चम्म्च अजवाइन पानी से निगल लीजिये ।


बैगन के लिए सरसो का तेल एक चम्म्च ।


मूली ज्यादा खा ली हो तो एक चम्म्च काला तिल चबा लीजिये ।


बेसन ज्यादा खाया हो तो मूली के पत्ते चबाएं ।


खाना ज्यादा खा लिया है तो थोड़ी दही खाइये।


मटर ज्यादा खाई हो तो अदरक चबाएं ।


इमली या उड़द की दाल या मूंगफली या शकरकंद या

जिमीकंद ज्यादा खा लीजिये तो फिर गुड खाइये ।


मुंग या चने की दाल ज्यादा खाये हों तो एक चम्म्च सिरका पी लीजिये ।


मकई ज्यादा खा गये हो तो मट्ठा पीजिये ।


घी या खीर ज्यादा खा गये हों तो काली मिर्च

चबाएं ।


खुरमानी ज्यादा हो जाए तो ठंडा पानी पीयें ।


पूरी कचौड़ी ज्यादा हो जाए तो गर्म पानी पीजिये ।


अगर सम्भव हो तो भोजन के साथ दो नींबू का रस आपको जरूर ले लेना चाहिए या पानी में मिला कर पीजिये या भोजन में निचोड़ लीजिये ,८०% बीमारियों से बचे रहेंगे।

 नजर उतारने का अनुभूत टोटका


नजर लगे व्यक्ति के लक्षण


नजर लगी बच्चे अस्वस्थ ,  चिड़चिड़े होते हैं । दूध नहीं पीते हैं। रोते रहते हैं । नींद सी आती रहती है । मुँह से खट्टी गन्ध आती है ।अपच और ज्वर भी आ जाता है।


बुरी नजर का प्रभाव छोटे बच्चों को ही लगता हो ऐसी बात नहीं है। बड़े बड़े व्यक्ति भी इसकी चपेट में आकर मानसिक रूप से उद्विग्न अशांत देखे गए हैं। उन्हें अपच, उल्टी,सिरदर्द, पीलापन ,थकान , सुस्त , किसी कार्य में अरुचि , बैचेनी, घबराहट ,आदि देखी जाती है।


जब इन लक्षणों के आधार पर अपने व्याधि की शिकायत में डॉक्टर से करते हैं , तो कुछ रोग नही होता और सभी रिपोर्ट नार्मल आती है। ऐसी स्थिति में वह नजर संबंधी टोने टोटके करने के उपरांत वे ठीक हो जाते हैं।


इसी प्रकार दुधारू पशु , सुंदर मकान आदि पर भी नजर का प्रभाव दिखाई पड़ता है। तभी नवनिर्मित मकानों में किसी काली मटकी का उल्टा लटकाना या भयानक कार्टूंस लटकाना नजर से बचाव के टोटके है।कितनी ही बार देखने मे आता है कि लोग पुराने मकान में स्वस्थ और खुश रहते है लेकिन नए मकान में प्रवेश के बाद से ही रोग ओर क्लेश होता रहता है।यह सब नजर दोष या वास्तु दोष के कारण होता  है।


1) राई के दाने, नमक की डली, और 7 साबुत लाल मिर्च को नजर से पीड़ित बच्चे के सिर के ऊपर से 7 बार उसारकर जलती हुई अग्नि में डाल देना चाहिए।


2) रुई की बत्ती बनाकर,सरसों तेल में भिगोकर, बाएं (उल्टे) हाथ से पकड़कर ,बुरी नजर से पीड़ित बच्चे के सिर के ऊपर से सात बार फेरते हुए मन ही मन यह कहें

 जिसने इसे (बच्चे का नाम ) ले।


नजर लगाई हो उसकी नजर जलकर नष्ट हो।और उस बत्ती को उल्टी करके किसी वस्तु के सहारे लटका दें।उस बत्ती में से ज्योति के साथ जलती हुई तेल की बूंदे विचित्र ध्वनि करती हुई नीचे जमीन में गिरेगी। कुछ देर तक यह क्रिया चलती रहेगी। बाद में घर से बाहर जूते चप्पल से बत्ती को पीटकर बुझा दे ।


3) गाय का कच्चा दूध किसी मिट्टी के पात्र (कुल्हड़ ) में भरकर बाएं हाथ से नजर लगे व्यक्ति के सिर पर उतारकर कुत्ते को पिला दें।


4) ज्वार के आटे से बनी एक और कच्ची ,दूसरी और पक्की रोटी तैयार करें,पके हिस्से पर देसी घी लगाकर चौपड़ लें।बाद में इसको पीले धागे से लपेटकर नजर से प्रभावित व्यक्ति पर सात बार उसारकर किसी चौराहे पर चुपचाप रख दे।अगर नजर लगी होगी तो उपरोक्त उपाय करने से नजर उतर जाएगी ओर व्यक्ति तभी से निरोग होना प्रारंभ हो जाएगा।


उक्त सभी क्रिया शनिवार , मंगलवार शाम के समय करें।आवश्यकता पड़ने पर इस क्रिया को पुनः दोहराया जा सकता है। क्रिया को करते समय किसी की टोक नही होनी चाहिए।


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साभार :


*ज्योतिष का अर्थ और इतिहास*


वेद में ३ विश्वों का सम्बन्ध है -आकाश की सृष्टि *(आधिदैविक)*, पार्थिव सृष्टि *(आधिभौतिक)*, इनकी प्रतिमा मनुष्य शरीर *(आध्यात्मिक)*। अतः वेद के ३ अर्थ होते हैं। ७ लोक भी मूलतः आकाश में हैं। इनकी प्रतिमास्वरूप पृथ्वी के उत्तर गोल के १/४ भाग *भारतदल* में भी *विषुव* से *ध्रुव* तक ७ लोक हैं। उत्तरगोल के अन्य ३ दल ( *भूपद्म* का दल कहा गया है) *भद्राश्व* (पूर्व में), *केतुमाल* (पश्चिम में), *कुरु वर्ष* (विपरीत दिशा में) तथा दक्षिण गोल के ४ दल मिलाकर ७ तल कहे गये हैं। भारत के पश्चिम *अतल* ( *केतुमाल दल* - इटली, उसके बाद अटलांटिक सागर), उसके *पश्चिम पाताल (कुरु दल)*, भारत के पूर्व *सुतल (भद्राश्व)* हैं। भारत दल के दक्षिण तल या *महातल*, अतल के दक्षिण *तलातल*, पाताल के दक्षिण *रसातल*, सुतल के दक्षिण *वितल* हैं। ये ८ खण्ड में पृथ्वी का मानचित्र बनाने के विभाग हैं। वास्तविक महाद्वीप अनियमित आकार के हैं - *जम्बू द्वीप* (एशिया), *प्लक्ष द्वीप* (यूरोप), *कुश द्वीप* (विषुव के उत्तर का अफ्रीका), *शाल्मलि द्वीप* (विषुव के दक्षिण का अफ्रीका), *शक* या *अग्नि द्वीप* (आस्ट्रेलिया-भारत से अग्नि कोण में), *क्रौञ्च द्वीप* (उत्तर अमेरिका, यह द्वीप तथा मुख्य रॉकी पर्वत उड़ते पक्षी या क्रौञ्च आकार के हैं), *पुष्कर द्वीप* (दक्षिण अमेरिका)। समतल मानचित्र बनाने में ध्रुव के पास माप दण्ड अनन्त हो जाता है। उत्तर ध्रुव जल भाग में है *(आर्यभट)* अतः वहाँ कोई समस्या नहीं होती। पर दक्षिण ध्रुव प्रदेश स्थल पर है तथा अनन्त आकार का मानचित्र पर हो जायेगा। अतः इसे *अनन्त द्वीप* (८वाँ) कहते हैं व अलग से मानचित्र बनता है। पुराणों में पृथ्वी के चारों तरफ ग्रह गति से वृत्त व वलय आकार के जो क्षेत्र बनते हैं ( *यूरेनस* तक) उनके नाम भी पृथ्वी के ७ महाद्वीपों के नाम पर हैं। आधुनिक युग में भी वैसे ही नाम रखे जाते हैं। इनके बीच का क्षेत्र भी पृथ्वी के समुद्रों के नाम पर हैं। इनके कारण महाभारत के बाद के संकलन कर्त्ताओं ने दोनों के एक मानकर वर्णन कर दिया क्योंकि उन्होंने पृथ्वी के सभी द्वीप नहीं देखे थे, न सौरमण्डल की ग्रह कक्षाओं की माप की थी। *नेपच्यून* तक की ग्रह कक्षा १०० कोटि योजन व्यास की चक्राकार पृथ्वी है। इसका भीतरी आधा भाग ५० कोटि योजन व्यास का लोक (प्रकाशित) भाग है। बाहरी भाग अलोक अन्धकार) है। आकाश में पृथ्वी *सहस्रदल कमल* है। अतः यहाँ *योजन* का अर्थ है पृथ्वी के विषुव व्यास का १००० भाग = *१२.८ किलोमीटर*।

मनुष्य शरीर के ७ कोष ७ लोकों की प्रतिमा हैं तथा इनके केन्द्र ७ चक्र हैं। *अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, ज्ञानमय कोष, विज्ञानमय कोष, चित्तमय कोष* तथा *आत्मामय कोष*। ७ चक्र हैं - *मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा* तथा *सहस्रार*।

आकाश के लोकों को जानने के लिए ज्योतिष का सृष्टि विज्ञान है। सूर्य सिद्धान्त का सृष्टि विज्ञान पुरुष सूक्त, पाञ्चरात्र दर्शन तथा सांख्य दर्शन का समन्वय है। तीनों एक ही तत्त्व को अलग शब्दों से पारिभाषित करते हैं। पृथ्वी के लोकों की माप ज्योतिष के त्रिप्रश्नाधिकार से होती है जिसमें दिक्-देश-काल की माप होती है। *दिक्* का अर्थ है उत्तर दिशा का निर्धारण। चुम्बक की सूई चुम्बकीय उत्तर ध्रुव दिखाती है। इसमें स्थानीय चुम्बकीय प्रभाव के कारण भूल भी होती है। भौगोलिक उत्तर दिशा जानने का एकमात्र उपाय है नक्षत्र वा सूर्य की गति से निर्धारण करना। प्रचलित विधि है कि एक स्तम्भ (१२ माप का शंकु) की छाया स्थानीय मध्याह्न से समान समय पूर्व तथा बाद में देखी जाय। दोनों छाया दिशा की मध्य रेखा *उत्तर-दक्षिण (याम्योत्तर)* रेखा होगी। *वटेश्वर सिद्धान्त* में इस २-३ घण्टे की अवधि में सूर्य की उत्तर दक्षिण दिशा (क्रान्ति) में अन्तर का भी संशोधन किया गया है, जो आधुनिक ज्योतिष में नहीं है। देश या स्थान की माप *अक्षांश-देशान्तर* द्वारा होती है। अक्षांश की गणना भी शंकु की छाया से है। सूर्य की क्रान्ति के अनुसार मध्याह्न छाया के अनुसार उत्तर दक्षिण दिशा में संशोधन होता है। देशान्तर गणना कठिन है। इसके लिए काल की सूक्ष्म माप करनी पड़ती है। दो स्थानों के बीच सूर्योदय या मध्याह्न काल का अन्तर ही देशान्तर है। २४ घण्टे का अन्तर ३६० अंश में है, अतः १ अंश का अन्तर ४ मिनट या १० पल में होगा। *देशान्तर विधि भारत के बाहर पता नहीं थी।* *फाहियान* पश्चिम हिमालय मार्ग से ३०० ई. में भारत आया था। उस मार्ग से पुनः लौटने का साहस नहीं हुआ तो लोगों की सलाह पर वह *ताम्रलिप्ति* से जहाज द्वारा *चीन* के *कैण्टन* गया। उसे २ आश्चर्य हुए। जहाज इतना बड़ा था कि उसमें १५०० व्यक्ति थे तथा उनके १ मास के भोजन पानी की व्यवस्था थी। वर्त्तमान भारत में अण्डमान जानेवाले सबसे बड़े जहाज में ६०० व्यक्ति बैठते हैं। दूसरा आश्चर्य था कि जहाजी लोगों को *समुस्र* का सटीक मानचित्र ज्ञात था तथा वे तट से नहीं, सीधा समुद्र में जा रहे थे। समुद्र में अपनी स्थिति ठीक तरह निकाल रहे थे। *तुर्की* के माध्यम से देशान्तर विधि का ज्ञान १४८० में *स्पेन* पहुँचा जिसके १२ वर्ष ब्द कोलम्बस की यात्रा सम्भव हुई। पृथ्वी की कागज पर परिलेख द्वारा माप होती है। अतः उसे *माप (Map)* कहते हैं। इसके लिए नक्षत्र देखना पड़ता है, अतः इसका नाम *नक्शा* हुआ।

वेद के ३ विश्वों के सम्बन्ध को समझने के लिए ज्योतिष के ३ खण्ड या *स्कन्ध* हैं। इसका ज्ञान होने के बाद ही मन्त्रों का अर्थ सम्भव है। अतः प्रथम व्यास स्वायम्भुव मनु के पूर्व ज्योतिष ज्ञान हो चुका था। तभी वेद का प्रथम संकलन या *संहिता* हुयी।


गणित ज्योतिष में सृष्टि विज्ञान, आकाश के लोकों की माप, ग्रह गति, पृथ्वी की माप (नक्शा, देश-काल-दिक्), कालगणना तथा पञ्चाङ्ग, पृथ्वी पर आकाशीय दृश्य (सूर्य का उदय-अस्त, ग्रहण, ग्रह-नक्षत्र युति, पात), यन्त्र द्वारा वेध तथा गणितीय पद्धति हैं।

गणित ज्योतिष के ३ खण्ड हैं। इसके सभी तत्त्व सिद्धान्त ज्योतिष में हैं। इसमें सृष्टि आरम्भ से ग्रह गति कि गणना होती है। यहाँ सृष्टि का अर्थ है कि उस समय से आज जैसी सौरमण्डल के ग्रहों की गति थी। पृथ्वी का निर्माण उससे बहुत पहले हो चुका था।


*तन्त्र ज्योतिष* में कलि आरम्भ से ग्रह गणना होती है। इसके लिए आवश्यक गणित तथा वेध का वर्णन रहता है।


*करण ग्रन्थ* में निकट पूर्व के किसी शक से गणना होती है। *शक* का अर्थ है दिनों का समुच्चय (अहर्गण, Day-count) - _शकेन समवायेन सचन्तः_। १ का चिह्न हर भाषा में कुश है। उनको मिलाकर गट्ठर बनाने से वह शक्तिशाली होता है। अतः उसे शक कहते हैं। दिन की क्रमागत गणना के लिए सौर मास वर्ष सुविधा जनक है। यह पद्धति शक वर्ष है। चान्द्र तिथि क्रमागत दिन में नहीं है, तिथि अधिक या क्षय हो सकती है। चान्द्र तिथि, मास वर्ष का सौर वर्ष से समन्वय को *संवत्सर* कहते हैं। _सं-वत्-सरति_ = एक साथ चलता है। सौर वर्ष के साथ चलता है (अधिक मास व्यवस्था से) या समाज भी इसके अनुसार चलता है।


मनुष्य पर ग्रहों का प्रभाव होरा या जातक स्कन्ध है। इसका विस्तृत वर्णन वाजसनेयि यजु (१५/१५-१९, १७/५८, १८/४०), ब्रह्मसूत्र (४/२/१७-२०), बृहदारण्यक उपनिषद् (४/४/८,९), छान्दोग्य उपनिषद् (८/६/१,२,५), कूर्म पुराण (भाग १, ४३/२-८), मत्स्य पुराण (१२८/२९-३३), वायु पुराण (५३/४४-५०), लिङ्ग पुराण (१/६०/२३), ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२४/६५-७२) में हैं। पराशर होरा इसका प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ है। उसके बाद *वराहमिहिर* का *बृहज्जातक* है।


मनुष्य पर प्रभावों का योग या पृथ्वी पर प्रभाव *संहिता ग्रन्थ* हैं। वेद मन्त्रों का संकलन भी संहिता है। यह पृथ्वी तथा आकाश का सम्बन्ध है। वराहमिहिर की *वृहत्संहिता* सबसे पुराना उपलब्ध ग्रन्थ है।

सर्वप्रथम स्वायम्भुव मनु ने ज्योतिष सिद्धान्त स्थिर किया। वे प्रथम व्यास या मनुष्य ब्रह्मा थे। अतः उनका सिद्धान्त *ब्रह्म* या *पितामह सिद्धान्त* कहते हैं। महाभारत के समय २ सिद्धान्त प्रचलित थे - *पराशर* तथा *आर्य सिद्धान्त* (आर्यभट का महासिद्धान्त, २/१-२)। इसमें पराशर मत का वर्णन विष्णु पुराण में है (अंश २ में मैत्रेय का उपदेश)। पितामह मत के संशोधन के लिए कलि के कुछ बाद (कलि संवत् ३६० = २७४२ ईपू) में आर्यभट ने *आर्यभटीय* लिखा। उसके दीर्घकालिक माप उसी काल के हैं। उन्होंने कभी ध्रुव प्रदेशों की यात्रा नहीं की थी, न कभी केतुमाल कुरु देश गये या वहां की माप की थी। उनका पूरा ज्ञान स्व्यम्भुव मनु काल से संकलित था। महाभारत काल के बाद गणित के १६ खण्डों में ४ खण्ड बचे हुए थे, जिनके कुछ सूत्रों का आर्यभट ने प्रयोग किया है (भास्कर १ की आर्यभटीय टीका) - *मस्करि* (algorithm, log = *लाठी, मस्करि*), *पूरन* (Integral Calculus, Algebra), *पूतन* (Differential calculus, Number system), *मुद्गल* (Discrete mathematics)। पितामह सिद्धान्त को *आर्य सिद्धान्त* कहते थे, अतः आर्य का अर्थ पितामह प्रचलित है (अजा, आजी)। १९०९ में *जार्ज थीबो* तथा *सुधाकर द्विवेदी* ने आर्यभट का काल ३६० कलि में १ शून्य जोड़कर ३६०० कलि कर दिया। आर्यभटीय की कोई गणना उस काल की नहीं है, न उस समय मगध में कोई केन्द्रीय सत्ता थी जिसका आश्रय लेने वे *कुसुमपुर* आते। उस समय पाटलिपुत्र भी नहीं बना था, केवल वहाँ कुसुमपुर (वर्तमान फुलवारी शरीफ, Kindergarten = बच्चों की फुलवारी) नामक शिक्षा-केन्द्र था। इस परम्परा में *महासिद्धान्त, लल्ल* का शिष्य *वृद्धिद तन्त्र, वटेश्वर सिद्धान्त* हैं।

ब्रह्माण्ड, मत्स्य पुराणों के अनुसार स्वायम्भुव मनु का काल २९,१०२ ई. पू. तथा वैवस्वत मनु का काल १३,९०२ ई. पू. था। वैवस्वत मनु के पिता विवस्वान् ने सूर्य सिद्धान्त प्रचलित किया। उस नाम के ग्रन्थ के कारण उनका नाम *विवस्वान्* हो सकता है। वर्तमान युग व्यवस्था तथा calendar उसी समय का है। अतः इस गणना से स्वायम्भुव मनु आद्य त्रेता में थे (वायु पुराण, ३१/३ आदि)। इनके बाद *वैवस्वत यम* के काल में जल प्रलय का आरम्भ हुआ। उसके कारण *श्रीजगन्नाथजी* की इन्द्रनीलमणि की मूर्ति मिट्टी में दब गयी (ब्रह्म पुराण)। पुराण तथा आधुनिक भूगर्भशास्त्र दोनों अनुमान से यह जल प्रलय १०,००० ई.पू. में प्रायः ७०० वर्ष तक था। इसके कारण गणना में अशुद्धि आयी तथा *मेक्सिको* के मय असुर ने *रोमक पत्तन* (उज्जैन से ०° पश्चिम) में इसका संशोधन किया। आज की भाषा में यह अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन था। अतः पूरे विश्व में राशि व्यवस्था एक ही है।


सूर्य सिद्धान्त के सन्दर्भ नगर हैं - *लंका या उज्जैन* (शून्य देशान्तर), ९०° पूर्व *यमकोटि पत्तन* (न्यूजीलैण्ड का दक्षिण पश्चिम तट या पूर्व जीलैण्डिया का कोई स्थान), १८०° पूर्व *सिद्धपुर* (कैलिफोर्निया के निकट) तथा ९०° पश्चिम *रोमकपत्तन* (वहाँ सूर्य क्षेत्र *कोनाक्री* है, ओड़िशा के कोणार्क की तरह, सूर्य की सिंह राशि के अनुसार वहाँ *सिंहद्वार* = Sierraleon भी है)। महाभारत के बाद इन नगरों से कोई सम्पर्क नहीं था। इससे स्पष्ट है कि ज्योतिष का ज्ञान महाभारत से बहुत पूर्व का है। बाद में केवल उसका संकलन व संक्षेप हुआ है। आर्यभट की गणना कलि आरम्भ से है। उस समय पितामह सिद्धान्त के अनुसार १३वाँ गुरु वर्ष *प्रमाथी* चल रहा था। भारत में भगवान् श्रीकृष्ण के स्वधाम गमन से कलियुग मानते हैं। पर *मेक्सिको (मय)* में गुरु वर्ष चक्र आरम्भ (३०१४ ई.पू.) से calendar का आरम्भ मानते हैं। पितामह तथा सूर्य सिद्धान्त - दोनों के चक्र ५१०० वर्ष में मिलते हैं। पितामह सिद्धान्त में सौर वर्ष ही गुरु वर्ष है। सूर्य सिद्धान्त में गुरु की १ राशि में मध्यम गति (३६१ दिन ४ घण्टा प्रायः) को गुरु वर्ष मानते हैं। अतः ८५ सौर वर्ष में ८६ गुरु वर्ष होते हैं। इनका संयुक्त चक्र ८५ x ६० = ५१०० वर्ष का होगा। अतः मय कैलेण्डर ३०१४ ई.पू. से ५१०० वर्ष का था। पृथ्वी व्यास १००० योजन मानने पर आकाशगङ्गा व्यास १८ अंक की संख्या होगी। इससे बाहर की गणना नहीं होती। अतः मय ज्योतिष तथा आर्यभट दोनों ने १८ अंक की संख्या का ही प्रयोग किया है। अन्य मुख्य गणना भी प्रायः समान है।

इसके पूर्व स्वायम्भुव मनु काल के नगर थे - यम की *संयमनी पुरी* (मृत सागर के निकट, *यमन, सना, अम्मान* आदि), उसके ९०° पूर्व इन्द्र की *अमरावती* (रामायण, किष्किन्धा काण्ड, अध्याय ४० के अनुसार *इण्डोनेशिया* या *यवद्वीप* सहित सप्तद्वीप के पूर्व भाग में इन्द्र तथा गरुड़ के नगर थे), अमरावती से ९०° पूर्व वरुण की *सुखा नगरी (हवाई द्वीप या फ्रेञ्च पोलिनेसिया)*, १८०° पूर्व सोम की *विभावरी (न्यूयार्क या सूरीनाम)* थी।

महाभारत से कुछ पूर्व विष्णुपुराण अंश २ में मैत्रेय के उपदेश रूप में ज्योतिष वर्णन है। सूर्य सिद्धान्त परम्परामें होने के कारण उनको *मैत्रेय* कहा गया है।


विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक *वराहमिहिर* ने उस समय के प्रचलित ६१२ ई.पू. के चाप शक (बृहत् संहिता १३/३) के अनुसार गणना की है। वही आधार *ब्रह्मगुप्त* तथा *कालिदास (ज्योतिर्विदाभरण)* ने लिया है। वराहमिहिर के समकालीन *जिष्णुगुप्त* के पुत्र ने विष्णु पुराण के परिशिष्ट विष्णुधर्मोत्तर पुराण के ज्योतिष वर्णन की व्याख्या के लिए *ब्राह्म-स्फुट सिद्धान्त* ५५० शक (६२ ई.पू.) में लिखा। इसी के अनुसार विक्रम संवत् की गणना हुयी (५७ ईपू में)। वराहमिहिर ने भी पञ्च सिद्धान्तिका में संक्षिप्त सूर्य सिद्धान्त का वर्णन किया है और उसे सर्वश्रेष्ठ माना है। ब्राह्म-स्फुट सिद्धान्त के अनुसार ही ६२२ ई. के हिजरी सन् की गणना हुई। अतः *खलीफा अल मन्सूर* के समय इसका अरबी में अनुवाद हुआ - *अल जबर उल मुकाबला*। इसी से *अलजब्रा (Algebra)* शब्द हुआ जो इसका गणितीय भाग है। वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त आदि की मृत्यु के बहुत बाद ७८ ई. में *शालिवाहन* शक आरम्भ हुआ। उसके अनुसार गणना कर लोग ६२८ ई. में ब्रह्मगुप्त पुस्तक का काल मानते हैं। पर इस आधार पर इससे ६ वर्ष पूर्व हिजरी सन् नहीं आरम्भ हो सकता था।


सूर्यसिद्धान्त परम्परा के मुख्य ग्रन्थ हैं - भास्कर-१ का महा तथा लघु भास्करीय, भास्कर-२ का सिद्धान्त शिरोमणि, श्रीपति का सिद्धान्त शेखर, नीलकण्ठ सोमयाजी का सिद्धान्त दर्पण, मुनीश्वर का सिद्धान्त सार्वभौम, कमलाकर भट्ट का सिद्धान्त तत्त्व विवेक, चन्द्रशेखर सामन्त का सिद्धान्त दर्पण (१९०४)।

कुछ मुख्य *करण ग्रन्थ* हैं - ब्रह्मगुप्त का खण्डखाद्यक (मिठाई), भास्कर-२ का करण कुतूहल, गणेश दैवज्ञ का ग्रहलाघव।


ओड़िशा में *शतानन्द* ने १०९९ ई. के आधार पर *भास्वती* लिखी जो वराहमिहिर के सूर्य सिद्धान्त पर आधारित है। *वराहमिहिर* की *पञ्चसिद्धान्तिका* तथा *पञ्चाङ्ग पद्धति* जानने पर ही इसका अर्थ समझा जा सकता है। उस काल में कौन/सा शक आरम्भ हुआ यह पता नहीं है, पर *कपिलेन्द्रदेव* के शक आरम्भ के समय उसके अनुसार गणना के लिए *कपिलेन्द्र भास्वती* लिखी गयी।

अन्तिम ग्रन्थ *सिद्धान्त दर्पण* में सभी पूर्व ग्रन्थों का संकलन तथा निर्णय है। सूर्य आकर्षण के कारण चन्द्र गति में ४ प्रकार का संशोधन, मंगल, शनि में बृहस्पति आकर्षण के कारण अन्तर, अथर्व संहिता के अनुसार सूर्य व्यास ६५०० से बढ़ाकर ७२,००० योजन करना, सौरमण्डल के क्षेत्रों, सूर्य-पृथ्वी केन्द्रित गतियों की समीक्षा आदि हैं। सरल पञ्चाङ्ग गणना के लिए सारणी, सौरमण्डल के ताप-तेज-प्रकाश क्षेत्रों की माप (अग्नि-वायु-रवि, विष्णु के ३ पद) आदि भी हैं।