Thursday, October 15, 2020

 वास्तुशास्त्र: वैदिक काल की मास्टर प्लानिंग


पं. सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर, नेशनल दुनिया


प्राचीन काल में ब्रह्मा ने विश्व की सृष्टि से पूर्व वास्तु की सृष्टि की तथा लोकपालों की कल्पना की। ब्रह्मा ने जो मानसी सृष्टि की उसे मूर्तरूप देने हेतु विश्वकर्मा ने अपने चारों मानस पुत्र जय, विजय, सिद्धार्थ व अपराजित को आदेशित करते हुए कहा कि 'मैंने देवताओं के भवन इत्यादि (यथा इन्द्र की अमरावती) की स्थापना अब तक की है। अब वेन पुत्र पृथु के निवास हेतु राजधानी का निर्माण मैं स्वयं करूंगा। तुम लोग समस्त भूलोक का अध्ययन करो। सामान्य जन की आवश्यकताओं के अनुरूप स्थापनाएं करो’ विश्वकर्मा के इस संवाद से उच्चकोटि के चिंतन योजना व प्रबंधन का संकेत मिलता है। एक तरफ नगर निवेशन व दूसरी तरफ आंतरिक रचनाओं में वास्तु पुरुष के देवत्व का आरोपण करते हुए भौतिक सृष्टि में दार्शनिक सौंदर्य की समष्टि करते हुए उससे चारों पुरुषार्थ की अभीष्ट सिद्धि की कामना की गई थी वृहत्संहिता के अनुसार जिस भांति किसी घर में वास्तुपुरुष की कल्पना करते हुए कार्य किया जाता है, उसी भांति नगर व ग्रामों में ऐसे ही वास्तुदेवता स्थित होते हैं व उस नगर ग्रामादि में ब्राह्मण आदि वर्णों को क्रमानुसार बसाने की व्यवस्था की गई। राजा भोज रचित समराङ्गण सूत्रधार के पुर निवेश प्रकरण में वर्गों के आधार पर बसावट करने के विस्तृत निर्देश दिये हैं। 

अग्नि कोण में अग्नि कर्मी लोग, स्वर्णकार, लुहार इत्यादि को बसाना चाहिए। दक्षिण दिशा में वैश्यों के सम्पन्न लोगों के, चक्रिकों अर्थात् गाड़ी वाले नट या नर्तकों के घर स्थापित करने चाहिए। सौकारिक (सूकरोपजीवी) मेषीकार (गडरिया), बहेलिया, केवट व पुलिस इत्यादि को नैऋत्य कोण में बसाना चाहिए। रथों, शस्त्रों के बनाने वालों को पश्चिम दिशा में बसाना चाहिए। नौकरों व दलालों को वायव्य दिशा में बसाना चाहिए। संन्यासियों को, विद्वानों को, प्याऊ व धर्मशाला को उत्तर दिशा में बसाना चाहिए। ईशान में घी, फल वालों को बसाना चाहिए। आग्नेय दिशा में वे बसें जो सेनापति, सामन्त या सत्ताधारी व्यक्ति हों। धनिक व व्यवसायी दक्षिण, कोषाध्यक्ष महामार्ग, दण्डनायक व शिल्पियों को पश्चिम दिशा में व उत्तर दिशा में पुरोहित, ज्योतिषी लेखक व विद्वान बसें। 

आजकल शहर योजनाओं में या बड़ी सोसायटियों में इस योजना पर ध्यान नहीं दिया जाता। वास्तु का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण पुराने जयपुर की बसावट में आज भी देखा जा सकता है। 


क्या हैं वास्तु पुरुष?

वास्तु पुरुष की कल्पना भूखण्ड में एक ऐसे औंधे मुंह पड़े पुरुष के रूप में की जाती है, जिसमें उनका मुंह ईशान कोण व पैर नैऋत्य कोण की ओर होते हैं। उनकी भुजाएं व कंधे वायव्य कोण व अग्निकोण की ओर मुड़ी हुई रहती हैं। देवताओं से युद्ध के समय एक राक्षस को देवताओं ने परास्त कर भूमि में गाड़ दिया व स्वयं उसके शरीर पर खड़े रहे। मत्स्य पुराण के अनुसार ब्रह्मा से प्रार्थना किए जाने पर इस असुर को पूजा का अधिकार मिला। ब्रह्मा ने वरदान दिया कि निर्माण तभी सफल होंगे जब वास्तु पुरुष मंडल का सम्मान करते हुए निर्माण किये जाएं। इनमें वास्तु पुरुष के अतिरिक्त 45 अन्य देवता भी शामिल हैं। इन 45 अतिरिक्त देवताओं में 32 तो बाहरी ओर भूखण्ड की परिधि पर ही विराजमान हैं व शेष 13 भूखण्ड के अन्दर हैं। 

पद वास्तु 

वास्तु पुरुष का आविर्भाव इतिहास में कब हुआ इसका समय ज्ञात नहीं हैं, परन्तु वैदिक काल से ही यज्ञवेदी का निर्माण पूर्ण विधान के साथ किया जाता था। क्रमश: यहीं से विकास कार्य शुरु हुआ। एक पदीय वास्तु (जिसमें वास्तुखण्ड के और विभाजन न किये जाएं) जिसे सकल कहते हैं, पेचक मण्डल जिसमें एक वर्ग के चार बराबर विभाजन किए जाएं, वर्ग को नौ बराबर भागों में विभाजित किया जाए उसे पीठ, फिर 16, 64, 81, 100 भाग वाले वास्तुचक्र का विकास हुआ। इसी क्रम में यह निश्चय भी किया गया कि चतु:षष्टिपद वास्तु या एकाशीतिपद वास्तु या शतपद वास्तु में क्रमश: किन वर्णों में बसाया जाए। समराङ्गण सूत्रधार के अनुसार मुख्य रूप से 64,81,100 पद वाले वास्तु का अधिक प्रचलन हुआ। उक्त ग्रंथ के अनुसार चतुषष्टिपद वास्तु का प्रयोग राजशिविर ग्राम या नगर की स्थापना के समय करना चाहिए। एकाशीतिपद वास्तु (81 पद) का प्रयोग सामान्यघरों में करना चाहिए। शतपद वास्तु का प्रयोग स्थपति (आर्किटेक्ट) को महलों, देवमंदिरों व बड़े सभागार इत्यादि में करना चाहिए। आजकल बहुत बड़ी सोसायटियों में भी इन नियमों का पालन किया जा सकता है। पद विभाजन की स्वीकृति 11 वीं शताब्दी तक वृत्त वास्तु, जो कि राजप्रासादों हेतु प्रयुक्त की जाती थी, में भी दी गई है। वृत्त वास्तु में मुख्यत: चतुषष्टि वृत्त व शतपद वृत्त वास्तु प्रचलन में बने रहे। त्रिकोण, षटकोण, अष्टकोण, सोलहकोण वृत्तायत  व अद्र्धचंद्राकार वास्तु में भी वृत्त वास्तु के समान पद विभाजन तथा तदनुसार ही वास्तु पुरुष स्थापन का प्रावधान रखा गया है। 

देवता 

एकाशीतिपद वास्तु में जो कि सर्वाधिक प्रचलन में है, 81 पद या वर्गाकार खानों में 45 देवता विराजमान रहते हैं। मध्य में 13 व बाहर 32 देवता निवास करते हैं। ईशान कोण से क्रमानुसार नीचे के भाग में शिखि, पर्जन्य, जयन्त, इन्द्र, सूर्य, सत्य, भृंश व अंतरिक्ष तथा अग्निकोण में अनल विराजमान हैं। नीचे के भाग में पूषा, वितथ, गृहत्क्षत, यम, गंधर्व, भृंगराज और मृग विराजमान हंै। नैऋत्य कोण से प्रारंभ करके क्रमानुसार दौवारिक (सुग्रीव), पुष्पदंत, वरुण, असुर, शोष और राजयक्ष्मा तथा वायव्य कोण से प्रारंभ करके रोग, नाग, भल्लाट, सोम, भुजंग, अदिति व दिति आदि विराजमान हैं। बीच के नवें पद में ब्रह्मा जी विराजमान हैं। ब्रह्मा की पूर्व दिशा में अर्यमा, उसके बाद सविता दक्षिण में विवस्वान्, इंद्र, पश्चिम में मित्र फिर राजयक्ष्मा तथा उत्तर में शोष व आपवत्स नामक देवता ब्रह्मा को चारों ओर से घेरे हुए हैं। आप ब्रह्मा के ईशान कोण में, अग्नि कोण में सावित्र, नैऋत्य कोण में जय व वायव्य कोण में रुद्र विराजमान हैं। इन वास्तु पुरुष का मुख नीचे को व मस्तक ईशान कोण में है। इनके मस्तक पर चरकी स्थित हंै। मुख पर आप, स्तन पर अर्यमा, छाती पर आपवत्स हैं। पर्जन्य आदि बाहर के चार देवता पर्जन्य, जयन्त, इन्द्र और सूर्य क्रम से नेत्र, कर्ण, उर:स्थल और स्कंध पर स्थित हैं। 

सत्य आदि पाँच देवता भुजा पर स्थित हैं। सविता और सावित्र हाथ पर विराज रहे हैं। वितथ और बृहदांत पाश्र्व पर हैं, विवस्वान उदर पर हैं, उरू पर गंधर्व, जानु पर भृंगराज जंघा पर और मृग स्फिक के ऊपर हैं। ये समस्त देवता वास्तुपुरुष के दायीं ओर स्थित हैं। बायें स्तन पर पृथ्वीधर नेत्र पर दिति, कर्ण पर अदिति, छाती पर भुजंग, स्कंध पर सोम, भुज पर भल्लाट, मुख्य, रोग व पापयक्ष्मा, हाथ पर रुद्र व राजयक्ष्मा, पाश्र्व पर शोष असुर, उरू पर वरुण, जानु पर, पुष्पदंत, जंघा पर सुग्रीव और स्फिक पर दौवारिक हैं। वास्तुपुरुष के लिंग पर इंद्र व जयंत स्थित हैं हृदय पर ब्रह्मा व पैरों पर पितृगण हैं। वराहमिहिर ने यह वर्णन परमशायिक या इक्यासी पद वाले वास्तु में किया है। इसी भांति मंडूक या चौसठ पद वास्तु का विवरण किया गया है। ये सभी देवता अपने-अपने विषय में गृहस्वामी को समृद्धि देते हैं। इन्हें संतुष्ट रखने में श्रीवृद्धि होती है, शान्ति मिलती है। इन देवताओं की उपेक्षा होने से वे अपने स्वभाव के अनुसार पीड़ा देते हैं। बिना योजना के निर्माणादि कार्य होने से कुछ देवताओं की तो तुष्टि हो जाती है, जबकि कुछ देवता उपेक्षित ही रहते हैं। इसका फल यह मिलता है कि गृह स्वामी को कुछ विषयों में अच्छे परिणाम तथा कुछ विषयों में बगड़े परिणाम साथ-साथ ही मिलते रहते हैं। 

वास्तु चक्र की आड़ी और खड़ी रेखाएँ देशान्तर रेखाओं व अक्षांश रेखाओं के समानान्तर होती हैं, तभी निर्माण सफल होते हैं। सभी दिक्पालों में आठ तो दिशाएँ हैं व नवीं और दसवीं दिशा के रूप में आकाश और पाताल होते हैं। इसका वैज्ञानिक अर्थ यह है कि अंतरिक्ष से आने वाली समस्त कॉस्मिक ऊर्जा, ग्रह -नक्षत्रों के प्रभाव, उसकी गतियाँ और अन्तरग्रहीय आकर्षण तथा पाताल का अर्थ भूगर्भीय ऊर्जा इत्यादि का समावेश है। एक वास्तु चक्र की रचना शुद्ध वैज्ञानिक नियमों पर आधारित है और इसके नियमों का आविष्कार वैदिक ऋषियों ने ही किया है। वैदिक विज्ञान का यह सर्वश्रेष्ठ नमूना है, जिसमें निर्जीव भूखण्डों में धर्म, दर्शन और आध्यात्म की प्रतिष्ठा की गई है।

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