Thursday, July 26, 2018

नवग्रह मन्त्र presented by Shri Sashi Shukla

Navgrah stotra is written by Shri Ved Vyas Rishi and consists of nine hyms or mantras of nine planets. this stotra is best suggested to get freedom from all sort of troubles and difficulties and get abundant pleasures, wealth and become prosperous, sound and have good health in life. The devotee should recite this stotra daily with utter faith and devotion to get maximum benefits from stotra. As this stotra directly goes to graha devta so faith is most important as these nine planets or ‘Navagraha’ have maximum effect on mental as well as on physical aspect of human life.

The vibration of these 9 planets radaites maximum sound and light energy around us and when we sync our body vibrations according to these 9 planets we can have maximum benefits from these celestial bodies. They play an important role in all the life activities i.e physical, mental, emotional and health of life of any individual. During the birth of the body, while having unfavourable positioning of any of these planets can be the cause of major life problems i.e bad health, bad mental state and stagnation in many areas of life. These 9 planets simply act as the mirror of our own karmas which we had done in many of the past journies. What native is facing suffering its all because of the deeds of the native he has done in those lives. Although there is no such remedy for bad but Karmas we can win the heart of planetary dieties by our utter faith, devotions and good karmas.

This Navgraha Stotra Created by Rishi Ved Vyasa is very useful in warding off or to avoid the ill effects of the bad planetary position and movement( Transit) of the ‘Navagraha’ in our lives with the help of Navgraha Hymns.

Navagraha stotram is a simple Pattern or mantras of 9 Grahas and it acts as very powerful healing tools to reduce the negative effects of planetary placement in natal chart.

Wednesday, July 25, 2018

संस्कृत quotes Coutrsey Sh Maruti Bajpai

विविध विषयों पर संस्कृत श्लोकों का हिंदी अर्थ सहित यह विशाल संग्रह बड़े श्रम से संकलित किया गया है | इसका एक मात्र उद्देश्य है भारतीय संस्कृति की महान धरोहर संस्कृत भाषा का प्रसार करना |*
*आप इसे पढ़ें या नहीं पर इसे हर ग्रुप में शेयर अवश्य करें जिससे की कोई न कोई ज्ञान का जिज्ञासु और स्टूडेंट इससे सीखे और प्रेरणा भी ले सके | इसका प्रसार भी देश और धर्म की ही सेवा है |*
⚜दान पर संस्कृत श्लोक
https://goo.gl/nDSsp8
⚜दुर्जन पर संस्कृत श्लोक
भाग 1: https://goo.gl/rFjktQ
भाग 2: https://goo.gl/mFsngr
⚜जीवन पर संस्कृत श्लोक
भाग 1: https://goo.gl/VnthWV
भाग 2: https://goo.gl/ZTkarG
भाग 3: https://goo.gl/YprJ3c
भाग 4: https://goo.gl/ZFSLm6
भाग 5: https://goo.gl/GyexJz
⚜अभय पर संस्कृत श्लोक
https://goo.gl/iH4coe
⚜मित्रता पर संस्कृत श्लोक
https://goo.gl/HoyLJ6
⚜धर्म पर संस्कृत श्लोक
https://goo.gl/2zBH3X
⚜बुद्धिमान पर संस्कृत श्लोक
https://goo.gl/FY7nGC
⚜गृहस्थी पर संस्कृत श्लोक
https://goo.gl/cxwkXa
⚜नारी पर संस्कृत श्लोक
https://goo.gl/sQgTQm
⚜ज्ञान पर संस्कृत श्लोक
https://goo.gl/t7sWPx
⚜समय पर संस्कृत श्लोक
https://goo.gl/b2REr6
⚜कर्म पर संस्कृत श्लोक
https://goo.gl/38C3dA
⚜राष्ट्र पर संस्कृत श्लोक
https://goo.gl/u1WBzu
⚜सत्य पर संस्कृत श्लोक
https://goo.gl/YBqB61
⚜संतोष पर संस्कृत श्लोक
https://goo.gl/bx2zk8
⚜तप पर संस्कृत श्लोक
https://goo.gl/RJxDXn
⚜सुख दुःख पर संस्कृत श्लोक
https://goo.gl/ukPhvr
⚜उद्यम पर संस्कृत श्लोक
https://goo.gl/wTBPRu
⚜चरित्र पर संस्कृत श्लोक
https://goo.gl/JmdRH8
⚜एकता पर संस्कृत श्लोक
https://goo.gl/knoC3N
⚜ईश्वर पर संस्कृत श्लोक
https://goo.gl/kkLfkx
⚜विवाह शुभकामना पर संस्कृत श्लोक
https://goo.gl/bzaYFX
⚜भक्ति पर संस्कृत श्लोक
https://goo.gl/TncP8p
⚜सत्संगति पर संस्कृत श्लोक
https://goo.gl/pEf3qo
⚜राजधर्म पर संस्कृत श्लोक
https://goo.gl/XdMpDV
⚜मन/बुद्धि पर संस्कृत श्लोक
https://goo.gl/zwGjU6
⚜स्वाभाव पर संस्कृत श्लोक
https://goo.gl/YqwfhN
⚜बुद्धिमत्ता पर संस्कृत श्लोक
https://goo.gl/Jy9prs
⚜परोपकार पर संस्कृत श्लोक
https://goo.gl/JKBav6
⚜दया पर संस्कृत श्लोक
https://goo.gl/3v3NZB
।। शुभमस्तु ।।

Wednesday, July 11, 2018

आयुर्वेद से : Compiled by Sh Rahul Gupta Kanpur

🌟 *आयुर्वेद के मौलिक सिद्धांत*

प्रश्न – *गुण* किन्हें कहते हैं?

उत्तर – जिन लक्षणों से पद्धार्थ का अनुमान हो उन्हें गुण कहते हैं। *शब्द* (Sound), *स्पर्श* (Contact), *रूप* (Form), *रस* (Juice), *गंध* (Smell), *गुरु* (भारी, Heavy), *लघु* (हल्का, Light), *शीत* (ठंडा, Cold), *उष्ण* (गर्म, Hot), *स्निग्ध* (चिकना, Oily), *रूक्ष* (रूखा, Mangy), *मन्द* (धीमा, Slow), *तीक्ष्ण* (तेज, Fast), *स्थिर* (Stable), *सर* (Unstable), *मृदु* (कोमल, Soft), *कठिन* (Hard), *विशद* (भुरभुरा, Brittle), *पिच्छिल* (चिपचिपा), *श्लक्ष्ण* (Smooth), *खर* (Rough), *सूक्ष्म* (Micro), *स्थूल* (Macro), *सान्द्र* (Humid), *द्रव* (Liquid); ये गुण हैं।

प्रश्न – *पंचमहाभूत* क्या हैं ?

उत्तर – आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी की संज्ञा पंचमहाभूत हैं। प्रकृति में जो कुछ पद्धार्थ आदि पाया जाता है वह इन्हीं पाँच तत्वों से बना है।

पंचमहाभूतों में सबसे पहले *आकाश* की ही उत्पत्ति होती है । आकाश का मुख्य गुण *‘शब्द’* है तथा शरीर में *कर्णेन्द्रीय* (कान) आकाश की ही अभिव्यक्ति है। जिन पद्धार्थों में *मृदु, लघु, सूक्ष्म, श्लक्ष्ण, शब्द* गुण बहुतायत से हों, उन्हें *आकाशीय द्रव्य* जानें।

दूसरा पंचमहाभूत है *वायु*, इसकी उत्पत्ति आकाश से होती है अतःएव् इसमें आकाश के गुण भी पाये जाते हैं। वायु का मुख्य गुण *‘स्पर्श’* है तथा शरीरस्थ *त्वगेन्द्रीय (त्वचा)* वायु की ही अभिव्यक्ति है। जिन पद्धार्थों में *लघु, सूक्ष्म, शीत, रूक्ष, खर, विशद, स्पर्श* गुण बहुतायत से हों, उन्हें *वायव्य द्रव्य* जानें ।

तीसरा पंचमहाभूत *अग्नि* है, इसकी उत्पत्ति वायु से होती है अतःएव् इसमें वायु एवं आकाश के गुण भी पाये जाते हैं। अग्नि का मुख्य गुण *‘रूप’* है तथा शरीरस्थ *नेत्रेन्द्रिय* अग्नि की ही अभिव्यक्ति है। जिन पद्धार्थों में *लघु, सूक्ष्म, उष्ण, रूक्ष, विशद, रूप* गुण बहुतायत से हों, उन्हें *आग्नेय द्रव्य* जानें।

चौथा पंचमहाभूत *जल* है, इसकी उत्पत्ति अग्नि से होती है अतःएव् इसमें अग्नि, वायु एवं आकाश के गुण भी पाये जाते हैं । जल का मुख्य गुण *‘रस’* है तथा शरीरस्थ *जिह्वा* जल की ही अभिव्यक्ति है। जिन पद्धार्थों में *द्रव, स्निग्ध, शीत, मन्द, मृदु, पिच्छिल, रस* गुण बहुतायत से हों, उन्हें *आप्य (जलीय)* द्रव्य जानें।

पाँचवाँ पंचमहाभूत *पृथ्वी* है, इसकी उत्पत्ति जल से होती है अतःएव् इसमें जल, अग्नि, वायु एवं आकाश के गुण भी पाये जाते हैं। पृथ्वी का मुख्य गुण *‘गंध’* है तथा शरीरस्थ *घ्राण (नाक)* पृथ्वी की ही अभिव्यक्ति है। जिन पद्धार्थों में *गुरू, खर, कठिन, मन्द, स्थिर, विशद, सान्द्र, स्थूल, गंध* गुण बहुतायत से हों, उन्हें *पार्थिव द्रव्य* जानें।

मनुष्य जिस प्रकार के गुणों वाले पद्धार्थ का भोजन, मालिश आदि में प्रयोग करता है वैसे ही गुणों की शरीर में वृद्धि होती है।

प्रश्न – *दोष* क्या हैं और वे आरोग्य को कैसे प्रभावित करते हैं? *रस* क्या है? रस कितने प्रकार के हैं व रसों का प्रभाव क्या है?

उत्तर – *वात, पित्त* तथा *कफ*; ये तीन ही दोष हैं । इनकी साम्यावस्था का नाम ही *आरोग्य* है। इन तीनों को समावस्था में रखना ही चिकित्सा शास्त्र का प्रयोजन है। बढ़े हुये दोषों को क्षीण करना तथा क्षीण हुये दोषों को बढ़ाना चाहिये।

इन तीनों दोषों में *वात* ही प्रधान दोष है। सामान्यतः *वात के कुपित रहते हुये पित्त व कफ को शांत करना सरल नहीं होता* वात के शांत होने पर पित्त व कफ को सरलता से शांत किया जा सकता है।

*वात* – *रूक्ष, शीत, लघु, सूक्ष्म, चल, विशद, खर* - ये वात के मुख्य गुण हैं। ऐसे ही गुणोंवाले आहार (व कर्म) से वात कुपित होता है तथा विपरीत गुणों *(स्निग्ध, उष्ण, गुरु, स्थूल, मृदु, पिच्छिल, श्लक्ष्ण)* वाले द्रव्यों (व कर्म) से शांत होता है ।

*पित्त* – *स्नेह युक्त, उष्ण, तीक्ष्ण, द्रव्य, अम्ल (खट्टा) रस, सर, कटु (कड़वा) रस* ; ये पित्त के मुख्य गुण हैं। ऐसे ही गुणोंवाले आहार (व कर्म) से पित्त कुपित होता है तथा विपरीत गुणों *(स्निग्ध, शीत, मृदु, सान्द्र, कषाय (कसैला) रस, तिक्त (तीखा) रस, मधुर रस)* वाले द्रव्यों (व कर्म) से शांत होता है ।

*कफ* – *गुरु, शीत, मृदु, स्निग्ध, मधुर रस, स्थिर, पिच्छिल* - ये श्लेष्मा अर्थात कफ के मुख्य गुण हैं। ऐसे ही गुणोंवाले आहार (व कर्म) से कफ कुपित होता है तथा विपरीत गुणोंवाले द्रव्यों (व कर्म) से शांत होता है।

ऊपर दोषों के वर्णन में कुछ रसों (मधुर, अम्ल आदि) का उल्लेख किया गया है। जिह्वा के ग्राह्य विषय का नाम ही *रस* है। रस छः हैं –
1. *मधुर* – यह पद्धार्थ में पृथ्वी व जल की अधिकता से बनता है।
2. *अम्ल* (खट्टा) – यह जल व अग्नि की अधिकता से बनता है।
3. *लवण* (नमकीन) – यह पृथ्वी व अग्नि की अधिकता से बनता है।
4. *कटु* (कड़वा, नीम, गिलोय आदि) – यह अग्नि व वायु की अधिकता से बनता है।
5. *तिक्त* (तीखा, हरी मिर्च आदि) – यह वायु व आकाश की अधिकता से बनता है।
6. *कषाय* (कसैला, आंवला, बहेड़ा आदि) – यह पृथ्वी व वायु की अधिकता से बनता है।

दोषों के ऊपर रसों का प्रभाव इस प्रकार है – *मधुर, अम्ल व लवण* - ये तीन रस *वात-नाशक* हैं तथा *कटु, तिक्त व कषाय* - ये तीन रस *वात-कारक* हैं ।

*मधुर, तिक्त व कषाय* - ये तीन रस *पित्त-नाशक* हैं तथा *कटु, अम्ल व लवण* - ये तीन रस *पित्त-कारक* हैं।

*कटु, तिक्त व कषाय* - ये तीन रस *कफ-नाशक* हैं तथा *मधुर, अम्ल व लवण* -ये तीन रस *कफ-कारक* हैं।

प्रश्न – *आहार की मात्रा* क्या है?

उत्तर – उपर्युक्त विवरण से ऐसा आभास हो सकता है कि किसी बढ़े हुये दोष के निवारण के लिये उस दोष का नाश करनेवाले आहार या द्रव्य का भरपेट सेवन किया जा सकता है! इस तरह की धारणा गलत है। कारण कि आहार मात्रा *अग्निबल* की अपेक्षा रखती है। *अग्निबल* का तात्पर्य उस मात्रा से है जिसे शरीर सुगमता से पचा सके। सामान्यतः तृप्ति से ही अग्निबल का अनुमान लगाया जाता है और तृप्ति से अधिक खाना ही अधिकाँश रोगों का कारण है। अग्निबल कम है तो मात्रा भी कम होगी, अग्निबल अधिक है तो मात्रा भी अपेक्षाकृत अधिक होगी। मात्रा से कम खाने से केवल एक रोग होता है जिसे *उदावर्त* कहते हैं। यह भी कष्टसाध्य होता है। लेकिन आहार मात्रा केवल अग्निबल की अपेक्षा नहीं रखती प्रत्युत द्रव्य की भी अपेक्षा रखती है। इसीलिये आहार को मुख्य रूप से दो प्रकार के भागों में विभक्त किया गया है –
1. *गुरु द्रव्य (बादिकारक)* - इनमें पृथ्वी व जल का अंश अधिक होता है।
2. *लघु द्रव्य (हल्के, सुपाच्य)* - इनमें अग्नि व वायु का अंश अधिक होता है।

*गुरु द्रव्यों* का पाक देर से होता है और *लघु द्रव्यों* का पाक शीघ्र होता है। गुरु द्रव्यों के अल्प मात्रा में सेवन से *लघुता* तथा लघु द्रव्यों के अतिमात्रा में सेवन से *गुरुता* हो जाती है। गुरु द्रव्यों की तृप्ति के चार भागों में से केवल तीन या दो भागों का सेवन करना चाहिये। *गुरु द्रव्य को भरपेट नहीं खाना चाहिये। लघु द्रव्यों को यद्यपि भरपेट खा सकते हैं तो भी लघु द्रव्यों से अतितृप्ति नहीं करनी चाहिये।* उचित मात्रा में खाये जाने के उपरांत भी गुरु द्रव्य अधिक दोषकारक होते हैं क्योंकि उनमें पृथ्वी व जल अधिक होने से वे अग्निगुण के विरोधी होते हैं। जबकि उचित मात्रा में खाये जाने के उपरांत भी लघु द्रव्य अल्प दोषकारक होते हैं क्योंकि उनमें अग्नि व वायु अधिक होने से वे अग्निगुण के विरोधी नहीं होते।

*गुरु द्रव्य* – पीठी या चावलों के आटे से बने पद्धार्थ, गुड़-खाँड़ आदि ईख के रस से बने पद्धार्थ, रबड़ी-खोआ आदि दूध से बने पद्धार्थ, उड़द, नवीन चावल, कमल नाल, भिस, भें, दही, जवी (Oats)। इनका प्रयोग निरंतर नहीं करना चाहिये तथा इनका सेवन भोजन से पूर्व करना चाहिये भोजन के पश्चात नहीं।

*लघु द्रव्य* – मूँग, साँठी के चावल, लाल चावल, सैंधा नमक, आंवला, जौ, दूध, घी, शहद। यद्यपि इनमें कुछ द्रव्य गुरु हैं तो भी इनका निरंतर उपयोग कर सकते हैं।

प्रश्न – भारतीय रसोई में प्रयुक्त होनेवाले मसाले क्या द्रव्य हैं ?

उत्तर – भारतीय रसोई में प्रयुक्त होनेवाले *मसाले* हैं – *हींग, जीरा, धनिया, पोदीना, काली मिर्च, अजवायन, तेजपत्र, लौंग, जायफल, जावित्रि, केसर, सौंठ, पिप्पली, राई, मेथी, हल्दी, लहसुन, कढ़ीपत्ता,बड़ी इलायची* आदि। इन सभी में अग्नि का अंश अधिक होने के कारण ये *आग्नेय द्रव्य* कहलाते हैं। मनुष्य का स्वास्थ्य *कायाग्नि* के आश्रित है जबकि *प्राकृत रूप से प्राप्त आहार द्रव्य दाल, सब्जी, गेहूँ, चावल आदि पृथ्वी व जल प्रधान तत्वों से बना होता है जिनसे अग्नि का विरोध होता है। इसी विरोध को कम करने के लिये आहार का संस्कार उपर्युक्त आग्नेय द्रव्यों द्वारा किया जाता है ताकि कायाग्नि पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े*।

प्रश्न – एक दिन-रात में कितनी बार भोजन करना सही है?

उत्तर – एक दिन-रात (24 घंटे) में *दो बार भोजन को उत्तम* कहा गया है। पहला भोजन *मध्याह्न* के आसपास व दूसरा भोजन *संध्योपरांत रात्रि* में। इन दोनों भोजनों में किसी एक बार ही भरपेट भोजन करे, शेष बारी में भूख से कुछ कम खाये।

अगर भूख अधिक लगती हो और उपर्युक्त विधि का पालन कठिन लगता हो तो इस विधि में प्रातः नाश्ता या सांयः नाश्ता अथवा दोनों समय का नाश्ता शामिल कर सकते हैं। प्रातः नाश्ते का समय मध्याह्न भोजन से कम से कम *एक प्रहर (3 घंटे)* पहले होना चाहिये और सांयः नाश्ते का समय रात्रि भोजन से कम से कम एक प्रहर (3 घंटे) पहले होना चाहिये। *प्रातः नाश्ता* विशेषतः चिकनाई रहित, लघु व मात्रा में अल्प होना चाहिये। प्रातः नाश्ते में परांठा, पूड़ी, जलेबी, दही आदि गुरु द्रव्यों का निषेध है।

प्रश्न – आहार की उचित विधि क्या है?

उत्तर – शरीर की आहारनली में सबसे नीचे वात का आश्रय *पक्कवाशय* है। अतःएव आहार में *सबसे पहले गुरु, स्निग्ध, मधुर गुणवाले द्रव्य खाने चाहिये* क्योंकि ये गुण वात को शांत करते हैं। पक्कवाशय के ऊपर अग्नि स्थित है। चूँकि स्वास्थ्य की दृष्टि से अग्नि को स्थिर या बढ़ाना आवश्यक है। अतःएव तदनोपरांत उष्ण, अम्ल, लवण गुणवाले द्रव्य खाने चाहिये क्योंकि ये गुण अग्नि की वृद्धि करते हैं। अग्नि के ऊपर आमाशय में पित्त स्थित है। अतःएव तदनोपरांत कषाय व तिक्त रस वाले द्रव्य खाने चाहिये क्योंकि ये गुण पित्त को शांत करते हैं। पित्त के ऊपर कफ का स्थान है। चूँकि पित्त को शांत करने वाले कषाय व तिक्त रस वाले द्रव्य कफ को भी शांत करते तथापि *कफ की विशेष शांति के लिये आहार के अंत में कटु रस का प्रयोग* किया जा सकता है।

प्रश्न – जलपान विधि क्या है?

उत्तर – भोजन के पहले जल पीने से धातुओं का ह्रास होता है। *भोजन के मध्य में जल औषधरूप हो जाता है।* भोजन के अंत में जल पीना दोषकारक है। आहार के जीर्ण हो जाने पर जलपान अमृत तुल्य हो जाता है। 🌏

सामाजिक संरचना

 प्रश्न :

कैकेयी सा दृष्टीकोण मन्थरा प्रवति को ही जन्म देता है जो पारिवारिक विघटन की ओर उन्मुख करता है ! भरत चरित जन्मने और उदित होकर प्रतिकार करने के अंतराल तक राम आदर्श वनागमन को बाध्य होकर राक्षसी संस्कृति  (सामाजिक विषमताओं) की अग्नि परीक्षा से जूझते जूझते पलायनशीलता को ही गतिशील बनाने में सहायक होती है ! क्या - क्यों - कैसे पर विचारशील मष्तिस्क इन विडम्बनाओं का आंकलन करके संभावित पलायनवादी  मानसिकता का प्रतिकार कर सकते है ? वसुदेव कुटुम्बकम की परिकल्पना और उसके अनुरूप मानसिकता के  विकास से हम सामाजिक / पारिवारिक विघटन से निदान पा सकेंगे यह एक अमोघ मंत्र सिद्ध होगा ! क्या ?

 उत्तर : श्री Bp Gaur से

वसुधैव कुटुम्बकम् की परिकल्पना के अनुरूप सही मार्ग का चयन हो, इसके लिए विद्वत्ता की नहीं प्रज्ञा की आवश्यकता है। विद्वत्ता ज्ञान से आती है। आज के ज्ञान में विज्ञान (जो बाहर से प्राप्त किया गया है) का बाहुल्य है। इससे हमें तीक्ष्ण बुद्धि तो अवश्य मिली है। पर य़ह बुद्धि ही है जो हमारी भेदाभेद की प्रतीति को, हमारी असहिष्णुता को और हमारी निषेधात्मक प्रवृत्तियों को और भी प्रबल करती चली जा रही है। नतीजा सामने है। आज विश्व में जो भी असहयोग, असहनशीलता व हाहाकार व्याप्त है, उस सबके पीछे बुद्धि का ही कमाल है। वसुधैव कुटुम्बकम् के लिए समन्वय की दृष्टि चाहिए। समन्वय प्रेम से उपजता है। प्रेम प्रज्ञा की देन है और सरलता से आता है। शायद हम सरल होना भूल गए हैं। शिशु सरल होता है। उसी शिशु भाव को पाने की आवश्यकता है। इसके लिए जो बाहर का ज्ञान अर्जित किया गया है, उसे खोने की आवश्यकता है। अपनी मान्यताओं, संस्कारों एवं प्रवृत्तियों से मुक्त होना पडेगा। यह घटना किसी अमृत मंथन से कम नहीं। मन के एकान्त में ही मनन की मथनी से चिंतन का मंथन सरलता के अमृत को प्रकट करता है। इसलिए आवश्यकता हैं, अंतरमुखी होने की। आध्यात्म में जगत के बदलने की प्रतीक्षा व्यर्थ है। जगत अपनी सामूहिक बुद्धि एवं संस्कार से बंधा है। उससे मुक्त होने की छूट या स्वतंत्रता व्यक्ति को ही है और व्यक्ति को इस दिशा में प्रयत्नशील होना चाहिए। जो व्यक्ति वसुधैव कुटुम्बकम् के अनुभव में प्रतिष्ठित हो जाएगा वह सबमें, उनमें भी जो अपने संस्कार वश कटु या ह्रिंस व्यवहार करते हैं, ईश्वर को ही देखेगा और उन्हें अपने से भिन्न नहीं समझेगा।

Monday, July 9, 2018

Dreams ?


Most recurring dreams arise from impressions (of the past, might be past lives) stored in the sun-conscious mind, which is very deep and of which we are not aware. 

The veil may get pierced in deep states of hypnosis, where one may become more aware of the particular event which is behind the impression and the particular dream. When this happens, one has regressed to the past. Such regression somehow erases the memory from the sub-conscious and one is freed from a recurring dream.
 This is why past life regression (PLR) is an effective tool of transformation in many people’s lives. However, for most it may not be possible to regress to a past life and discover life transforming secrets. 

As far as dreams being harbingers of future auspicious or inauspicious times/events are concerned, it is true that the all-knowing inner-Self does give indications through dreams of the future. But, if one is not really connected to the inner-Self and has been living more in the domain of the mind, he is likely to miss their significance. 

Dreams, as per Sage Patanjali’s classification, are in the realm of thoughts of two types:
“imagination” having no basis in the felt reality (the world of forms and attributes); or
“memory”

A yogi, who intends to find union with the TRUTH, has to rise above imagination and memory both. 

Hence, it is best not to pay much attention to dreams.

Dreams can certainly be a path for some to connect with and act upon messages from the inner-Self. 

In any dream there is duality, as accompanying each dream there is a dreamer. In the state of inner-absorption (unattached witness state) there pure consciousness alone exists and all dream has dissolved. 

Those who aspire to find this state have to learn not to pay attention to dreams.

ज्योतिष विषयक एक संकलित लेख : राहुल गुप्त Kanpur

*हमारे रसोईघर के डब्बों में बन्द है सभी ग्रहों का इलाज* 
नौ मसाले कौन कौन  से है और ये किस प्रकार ग्रहों का प्रतिनिधित्व करते है व इनके पीछे छिपी वैज्ञानिकता क्या है  ?

🍚1. नमक (पिसा हुआ) सूर्य

🌶2. लाल मिर्च (पिसी हुई) मंगल

🧀3. हल्दी,  (पिसी हुई ) गुरु

🌯4. जीरा (साबुत या पिसा हुआ) राहु केतु

🌯5. धनिया,  (पिसा हुआ) बुध

🌚6. काली मिर्च (साबुत या पाउडर) शनि

🥗7. अमचूर, (पिसा हुआ) केतु

🍲8. गर्म मसाला, (पिसा हुआ) राहु

🍲9. मेथी,,,,,,,,,,,.     मंगल....

   👉मसाले के सेवन से अपने
  स्वास्थ्य और ग्रहो को ठीक करे
              👇👇👇
🥙 भारतीय रसोई में मिलने वाले मसाले सेहत के लिए तो अच्छे होते ही है ,पर साथ में उन के सेवन से हमारे ग्रह भी अच्छे होते है

         🥙सौंफ🥙
सौंफ का जिक्र हम पहले भी कर चुके है की सौंफ खाने से हमारा शुक्र और चंद्र अच्छा होता है

🥙 इसे मिश्री के साथ ले या उस के बिना भी ले खाने के बाद , एसिडिटि और जी मिचलाने जैसी समस्या कम होने लगेंगी
🥙 सौंफ को गुड के साथ सेवन करें जब आप घर से किसी काम के लिए निकाल रहे हो , इस से आप का मंगल ग्रह आप का  पूरा काम करने में साथ देता है ....

       🥙दालचीनी🥙
मंगल ओर शुक्र ग्रह को ठीक करती है

🥙 अगर किसी का मंगल और शुक्र कुपित है ,तो थोड़ी सी दालचीनी को शहद में मिलाकर ताज़े पानी के साथ ले , इस से आप की शरीर में शक्ति बढ़ेगी और सर्दियों में कफ की समस्या कम परेशान करती है .......

       🥙काली मिर्च🥙
काली मिर्च के सेवन से हमारा शुक्र और चंद्रमा अच्छा होता है

🥙 इस के सेवन से कफ की समस्या कम होती है और हमारी स्मरण शक्ति भी बढ़ती है
तांबे के किसी बर्तन में काली मिर्च डालकर Dining Table पर रखने से घर को नज़र नहीं लगती है....

           🥙जौं🥙
जौ के प्रयोग से सूर्य ग्रह और गुरु ग्रह ठीक होता है

🥙 जौं के आटे की रोटी खाने से पथरी कभी नहीं होती है.....

        🥙हरी इलायची🥙
 इस के प्रयोग से बुध ग्रह मजबूत होता है

🥙 अगर किसी को दूध पचाने में परेशानी होती है....
तो हरी इलायची उस में पका कर फिर दूध का सेवन करें  इस से ऐसी परेशानी नहीं होगी ....
यह उन लोगो के लिए उपकारी है की जिन को दूध अपनी सेहत बनाए रखने या कैल्सियम के लिए दूध तो पीना पड़ता है पर उसको पीकर पचाने में समस्या आती है ...

          🥙हल्दी🥙
हल्दी के गुण हम सबसे छुपे नहीं है , हल्दी के सेवन से बृहस्पति ग्रह अच्छा होता है ,

🥙 हल्दी की गांठ को पीले धागे में बांधकर गुरुवार को गले में धारण करने से बृहस्पति के अच्छे  फल मिलते है  और यह तो हम सब को पता है की हल्दी का दूध पीने से Arthritis , Bones और Infections में ज़बरदस्त फायदा मिलता है....

          🥙जीरा🥙
 जीरा राहू व केतू का प्रतिनिधित्व  करता है.

🥙 जीरा का सेवन खाने में करने से आप के दैनिक जीवन में सौहार्द व शांति बने रहते हैं.

         🥙हींग🥙
हींग बुध ग्रह का प्रतिनिधित्व करती है

 🥙 हींग का नित्य प्रतिदिन सेवन करने से वात व पित्त के रोग नियंत्रित होते हैं हींग आप की पाचन शक्ति भी बढाती है व क्रोध समस्या से भी निजात दिलाती है.।

श्री हनुमान चालीसा : एक शोध परक लेख : *प्रोफेसर राघवेन्द्र स्वामी*

कई लोगों की दिनचर्या हनुमान चालीसा पढ़ने से शुरू होती है। पर क्या आप जानते हैं कि श्री *हनुमान चालीसा* में 40 चौपाइयां हैं, ये उस क्रम में लिखी गई हैं जो एक आम आदमी की जिंदगी का क्रम होता है।

माना जाता है तुलसीदास ने चालीसा की रचना बचपन में की थी। 

हनुमान को गुरु बनाकर उन्होंने राम को पाने की शुरुआत की।

अगर आप सिर्फ हनुमान चालीसा पढ़ रहे हैं तो यह आपको भीतरी शक्ति तो दे रही है लेकिन अगर आप इसके अर्थ में छिपे जिंदगी  के सूत्र समझ लें तो आपको जीवन के हर क्षेत्र में सफलता दिला सकते हैं। 

हनुमान चालीसा सनातन परंपरा में लिखी गई पहली चालीसा है शेष सभी चालीसाएं इसके बाद ही लिखी गई। 

हनुमान चालीसा की शुरुआत से अंत तक सफलता के कई सूत्र हैं। आइए जानते हैं हनुमान चालीसा से आप अपने जीवन में क्या-क्या बदलाव ला सकते हैं….

*शुरुआत गुरु से…*

हनुमान चालीसा की शुरुआत *गुरु* से हुई है…

श्रीगुरु चरन सरोज रज, 
निज मनु मुकुरु सुधारि।

*अर्थ* - अपने गुरु के चरणों की धूल से अपने मन के दर्पण को साफ करता हूं।

गुरु का महत्व चालीसा की पहले दोहे की पहली लाइन में लिखा गया है। जीवन में गुरु नहीं है तो आपको कोई आगे नहीं बढ़ा सकता। गुरु ही आपको सही रास्ता दिखा सकते हैं। 

इसलिए तुलसीदास ने लिखा है कि गुरु के चरणों की धूल से मन के दर्पण को साफ करता हूं। आज के दौर में गुरु हमारा मेंटोर भी हो सकता है, बॉस भी। माता-पिता को पहला गुरु ही कहा गया है। 

समझने वाली बात ये है कि गुरु यानी अपने से बड़ों का सम्मान करना जरूरी है। अगर तरक्की की राह पर आगे बढ़ना है तो विनम्रता के साथ बड़ों का सम्मान करें।

*ड्रेसअप का रखें ख्याल…*

चालीसा की चौपाई है

कंचन बरन बिराज सुबेसा, 
कानन कुंडल कुंचित केसा।

*अर्थ* - आपके शरीर का रंग सोने की तरह चमकीला है, सुवेष यानी अच्छे वस्त्र पहने हैं, कानों में कुंडल हैं और बाल संवरे हुए हैं।

आज के दौर में आपकी तरक्की इस बात पर भी निर्भर करती है कि आप रहते और दिखते कैसे हैं। फर्स्ट इंप्रेशन अच्छा होना चाहिए। 

अगर आप बहुत गुणवान भी हैं लेकिन अच्छे से नहीं रहते हैं तो ये बात आपके करियर को प्रभावित कर सकती है। इसलिए, रहन-सहन और ड्रेसअप हमेशा अच्छा रखें।

आगे पढ़ें - हनुमान चालीसा में छिपे मैनेजमेंट के सूत्र...

*सिर्फ डिग्री काम नहीं आती*

बिद्यावान गुनी अति चातुर, 
राम काज करिबे को आतुर।

*अर्थ* - आप विद्यावान हैं, गुणों की खान हैं, चतुर भी हैं। राम के काम करने के लिए सदैव आतुर रहते हैं।

आज के दौर में एक अच्छी डिग्री होना बहुत जरूरी है। लेकिन चालीसा कहती है सिर्फ डिग्री होने से आप सफल नहीं होंगे। विद्या हासिल करने के साथ आपको अपने गुणों को भी बढ़ाना पड़ेगा, बुद्धि में चतुराई भी लानी होगी। हनुमान में तीनों गुण हैं, वे सूर्य के शिष्य हैं, गुणी भी हैं और चतुर भी।

*अच्छा लिसनर बनें*

प्रभु चरित सुनिबे को रसिया, 
राम लखन सीता मन बसिया।

*अर्थ* -आप राम चरित यानी राम की कथा सुनने में रसिक है, राम, लक्ष्मण और सीता तीनों ही आपके मन में वास करते हैं।
जो आपकी प्रायोरिटी है, जो आपका काम है, उसे लेकर सिर्फ बोलने में नहीं, सुनने में भी आपको रस आना चाहिए। 

अच्छा श्रोता होना बहुत जरूरी है। अगर आपके पास सुनने की कला नहीं है तो आप कभी अच्छे लीडर नहीं बन सकते।

*कहां, कैसे व्यवहार करना है ये ज्ञान जरूरी है*

सूक्ष्म रुप धरि सियहिं दिखावा, बिकट रुप धरि लंक जरावा।

*अर्थ* - आपने अशोक वाटिका में सीता को अपने छोटे रुप में दर्शन दिए। और लंका जलाते समय आपने बड़ा स्वरुप धारण किया।

कब, कहां, किस परिस्थिति में खुद का व्यवहार कैसा रखना है, ये कला हनुमानजी से सीखी जा सकती है। 

सीता से जब अशोक वाटिका में मिले तो उनके सामने छोटे वानर के आकार में मिले, वहीं जब लंका जलाई तो पर्वताकार रुप धर लिया। 

अक्सर लोग ये ही तय नहीं कर पाते हैं कि उन्हें कब किसके सामने कैसा दिखना है।

*अच्छे सलाहकार बनें*

तुम्हरो मंत्र बिभीसन माना, लंकेस्वर भए सब जग जाना।

*अर्थ* - विभीषण ने आपकी सलाह मानी, वे लंका के राजा बने ये सारी दुनिया जानती है।

हनुमान सीता की खोज में लंका गए तो वहां विभीषण से मिले। विभीषण को राम भक्त के रुप में देख कर उन्हें राम से मिलने की सलाह दे दी। 

विभीषण ने भी उस सलाह को माना और रावण के मरने के बाद वे राम द्वारा लंका के राजा बनाए गए। किसको, कहां, क्या सलाह देनी चाहिए, इसकी समझ बहुत आवश्यक है। सही समय पर सही इंसान को दी गई सलाह सिर्फ उसका ही फायदा नहीं करती, आपको भी कहीं ना कहीं फायदा पहुंचाती है।

*आत्मविश्वास की कमी ना हो*

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माही, जलधि लांघि गए अचरज नाहीं।

*अर्थ* - राम नाम की अंगुठी अपने मुख में रखकर आपने समुद्र को लांघ लिया, इसमें कोई अचरज नहीं है।

अगर आपमें खुद पर और अपने परमात्मा पर पूरा भरोसा है तो आप कोई भी मुश्किल से मुश्किल टॉस्क को आसानी से पूरा कर सकते हैं। 

आज के युवाओं में एक कमी ये भी है कि उनका भरोसा बहुत टूट जाता है। आत्मविश्वास की कमी भी बहुत है। प्रतिस्पर्धा के दौर में आत्मविश्वास की कमी होना खतरनाक है। अपनेआप पर पूरा भरोसा रखें।

*प्रोफेसर राघवेन्द्र स्वामी*

अकेलापन एवं एकांत : एक शोध परक लेख : साभार अज्ञात

*Akelaapan*
v/s
*Aikaant* 

Here goes a humble translation

Loneliness v/s Solitude

*'अकेलापन'* इस संसार में सबसे बड़ी सज़ा है.!
                 और *'एकांत'*
   इस संसार में सबसे बड़ा वरदान.!!

Loneliness is the biggest punishment in this world!
And Solitude is the biggest gift/blessing!!

       ये दो समानार्थी दिखने वाले
               शब्दों के अर्थ में
    . आकाश पाताल का अंतर है।
These two words appear so similar, yet cannot be more apart, like heaven and hell!

        *अकेलेपन* में छटपटाहट है
          तो *एकांत* में आराम है।

Loneliness is suffering, and Solitude is relaxing!

         *अकेलेपन* में घबराहट है
             तो *एकांत* में शांति।

Loneliness is fear and solitude is Shanti/peace!

           जब तक हमारी नज़र
      बाहरकी ओर है तब तक हम.
       *अकेलापन* महसूस करते हैं

Till we look for solace in the outer world we will experience Loneliness!

                       और
   जैसे ही नज़र भीतर की ओर मुड़ी
   तो *एकांत* अनुभव होने लगता है।

But when you look for it within you, you start experiencing solitude!

          ये जीवन और कुछ नहीं
                     वस्तुतः
      *अकेलेपन* से *एकांत* की ओर
              एक यात्रा ही है.!!

This life is nothing but a journey from loneliness to solitude!

              ऐसी *यात्रा* जिसमें
    *रास्ता* भी हम हैं, *राही* भी हम हैं
       और *मंज़िल* भी हम ही हैं.!!

A journey, in which the path is us, the traveller is also us and so is the destination !!

Courtesy : Unknown source.


श्री PN Pathak ji IRS submitted his valuable comment as under :

akelapan aur ekaant.

English poet William Cowper writes about Alexander Selkirk's banishment,
I am monarch of all  I survey.
O Solitude, where are the charms that sages have seen in thy face ?
Better dwell in the midst of alarm, than reign in this horrible place.
Further he says,
When I think of my own native land,
in a moment I seem to be there,
but alas ! recollection at hand ,
Soon hurries me back to despair.....

There is mercy in every place,
and mercy, encouraging thought !
 Gives even affliction a grace 
and reconciles man to his lot. 

Nagarjun ji in his kavita writes,
Yaad aata woh Tarauni gram
 Yad satatin seepiyan aur aam.


शारीरिक संरचना : शोध परक लेख : निशा द्विवेदी जी से साभार


शरीर का सूक्ष्म ढाँचा बिल्कुल सितार जैसा है। मेरूदंड में इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना के तार लगे है।

यह तार मूलाधार स्थित कुंडलिनी से बँध गए हैं। 

आज्ञा चक्र से मूलाधार तक के ६ चक्र इसके वाद्य स्थान हैं। 

इसमें लँ, वँ, रँ, षँ, हँ और 'ओम्' की ध्वनियाँ प्रतिध्वनित होती रहती हैं।

अब स्थूल जगत् में सा, रे, , , , , नी, यह स्वर जब वाद्ययंत्र से ध्वनियाँ निकालते हैं और शरीरस्थ ध्वनियों से टकराते हैं, तो इस संघर्षण और सम्मिलन से मनुष्य का अंतर्जगत् संगीतमय हो जाता है इन तरंगों में असाधारण शक्ति भरी पड़ी है।

इन तरंगों के प्रवाह से शारीरिक और मानसिक जगत् के सूक्ष्म प्राण गतिशील होते हैं, तदनुसार विभिन्न प्रकार की योग्यता रुचि, इच्छा, चेष्ठा, निष्ठा, भावना, कल्पना, उत्कंठा, श्रद्धा आदि का आविर्भाव होता है। इनके आधार पर गुण, कर्म और स्वभाव का सृजन होता है और उसी प्रकार जीवन की गतिविधियों से सुख-संतोष भी मिलता रहता है। 

तात्पर्य यह है कि शास्त्रीय संगीत की रचना एक ऐसी वैज्ञानिक प्रक्रिया पर आधारित है कि उसका लाभ मिले बिना रहता नहीं।

 इसी कारण संगीत को पिछले युग में धार्मिक और सार्वजनिक समारोहों की अविच्छिन्न अंग माना जाता था। आज भी विवाह-शादियों और मंगल पर्वों पर उसकी व्यवस्था करते और उसके लाभ प्राप्त करते हैं। 

हम देखते नहीं पर अदृश्य रूप में ऐसे अवसर पर प्रस्फुटित स्वर-संगीत से लोगों को आह्लाद, शांति और प्रसन्नता मिलती है लोग अनुशासन में बने रहते हैं।

 मिलिट्री की कुछ विशेष परेडों में वाद्य यंत्र प्रयुक्त होते हैं। उससे नौजवानों को कदम तोलने और मिलाकर चलने में बड़ी सहायता मिलती है। कारण उस समय सबके अंतर्जगत् एक-सी विचार तरंगों से आविर्भुत हो उठते हैं। ऐसे लाभों को देखकर विवाह-शादीयों, व्रत, त्यौहारों, मंदिरों में पूजन आदि के समय कथा-कीर्तन की व्यवस्था की गई थी। अब भी उनका लाभ उठाया जाना चाहिए। 

जहां यह व्यवस्था प्रतिदिन हो सके, वहां दैनिक व्यवस्था रहे, तो उससे स्थानीय लोगों की अदृश्य रूप में आत्मिक और आध्यात्मिक सेवा की जा सकती है। संयोजनकर्ताओं को तो दोहरा लाभ मिलता ही है।



दुर्गा सप्तशती: एक शोध परक लेख

🌟 *अष्टपाश-निवारण*

*कौसानी*, उत्तराखण्ड में मैंने वहाँ कई दिवस प्रवास किया और उस दौरान *दुर्गासप्तशती* को पढ़ा। मेरे सामने वहाँ *कैलास, नन्दादेवी* समेत हिमालय के सभी उन्नत शिखर धवल चादर ओढ़े खड़े थे। उसी का प्रभाव था जब मैंने *'चण्डे च निहते दैत्ये मुण्डे च विनिपातिते'* पढ़ा तो मुझे लगा दुर्गासप्तशती मात्र देव-दैत्य-संग्राम न होकर कुछ और भी है। यदि ऐसा न होता तो इस कथा को अभी तक पढ़ने का कोई औचित्य भी नहीं था। उदाहरणार्थ - श्रीराम की ऐतिहासिकता निस्सन्देह है, पर उनका एक और स्वरूप है -
*रमन्ते योगिनो यस्मिन नित्यानन्दे चिदात्मनि।*
*इति राम पदेनैतत् परब्रह्माऽभिधियते॥*
योगीगण जिस सर्वोच्च तत्त्व में आनन्द लेते हुए निमग्न रहते हैं, उसी तत्त्व को *'राम'* कहा है। पार्थिव जगत् में भी एक 'राम' हैं और अध्यात्मिक जगत् में भी हैं।अध्यात्मिक जगत् के 'राम' जहाँ समाधिगम्य हैं वहीं पार्थिव जगत् के 'राम' भक्तिसाध्य हैं। तत्त्वतः दोनों राम के एक होने पर भी अयोध्यापति श्रीराम के पीछे जो कोलाहल है वह आत्माराम में नहीं है।

दुर्गासप्तशती का पार्थिव स्वरूप आपने देखा है। मैं उसके अध्यात्मिक पक्ष के कुछ पात्रों का परिचय विवृत करता हूँ -
चण्डे च निहते दैत्ये मुण्डे च  विनिपातिते।
बहुलेषु च सैन्येषु क्षयितेष्वसुरेश्वरः॥
ततः कोप पराधीनचेताः शुम्भः प्रतापवान।
उद्योगं सर्वसैन्यानां दैत्यानामादिदेश  ह॥
                 (दुर्गा. अ. 8/1)

"चण्ड के मारे जाने, मुण्ड के धराशायी होने पर तथा अधिकांश सेना के नष्ट हो जाने पर प्रतापशाली असुरराज शुम्भ ने क्रोधातुर होकर सम्पूर्ण दैत्यसेना को तैयार होने की आज्ञा दी।"

*'चण्ड'* जो कि प्रचण्डतापूर्ण है, वह *'प्रवृत्ति'* है और *'मुण्ड'* जोकि मात्र मुण्ड है। करने के लिए उसके पास कुछ नहीं पर सोचने के लिए बहुत कुछ है। वह है - *'निवृत्ति'*। ये बन्धुद्वय रहते हैं हमारी 'अस्मिता' अर्थात् *'शुम्भ'* के अनुशासन में। जब शुम्भ ने अपनी प्रवृत्ति-निवृत्ति दोनों को मृत देखा तो उसे क्रोध आया। इस क्रोधमयी स्थिति में हम नित्य आते हैं, जब हम अपने अनकूल पत्नी को प्रतिकूल हुआ पाते हैं, आज्ञाकारी बेटे को अवज्ञा करता देखते हैं। वस्तुतः संसार के अनुकूल होने पर हमारी अस्मिता की प्रवृत्ति बढ़ती है और प्रतिकूल होने पर निवृत्ति और प्रवृत्ति-निवृत्ति दोनों के अवसान में हमारा क्रोध बढ़ता है। किसी नास्तिक को नास्तिकता की, मानसिक रोगी को अवसाद की उपलब्धि यही क्रोध कराता है, वहीं तुलसी, घनानन्द जैसे साधुओं को ईश्वर से तन्मय भी यही क्रोध ही कराता है। क्रोधित शुम्भ बची हुई समस्त शक्तियों को संग्रहित कर भीषण युद्ध की योजना बनाता है। इसके लिए देखिए वह किस-किसको बुला रहा -
*अद्य सर्व बलैर्दैत्याः षडशीतिरुदायुधाः।*
*कम्बूनां चतुरशीतिर्नियान्तु स्वबलैर्युताः॥*
*कोटिविर्याणि पञ्चाशतसुराणां कुलानि वै।*
*शतंकुलानि धौम्राणां निर्गच्छन्तु ममाज्ञया॥*
*कालका दौर्हदा मौर्याः कालकेयास्तथासुराः।*
*युद्धाय सज्जा निर्यान्तु आज्ञया त्वरिता मम॥*

अर्थात् "हे दैत्यगण! मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ कि दैत्यसेना के साथ छियासी उदायुध, चौरासी कम्बु, पचास कोटिवीर्य, सौ धौम्र तथा कालक, दौर्हृद, मौर्य, कालकेय वंशों के दैत्य युद्ध-निमित्त तैयार होकर निकलें।"

कुल आठ दैत्य-कुलों का स्मरण किया गया। *'कुलार्णवतन्त्र'* में भी आठ प्रकार के पाश अर्थात् बन्धन का उल्लेख है -   
*घृणा लज्जा भयं शंका जुगुप्सा चेति पञ्चमी।*
*कुलं शीलं तथा जातिरष्टो पाशाः प्रकीर्तिताः॥*
*पाशबद्धो भवेज्जीवाः पाशमुक्तः सदाशिवः।*

अर्थात् "घृणा, लज्जा, भय, शंका, जुगुप्सा, कुल, शील तथा जाति इन अष्टपाश में बँधा जीव है और इनसे मुक्त शिव हैं।"

इन अष्टपाशों को ही आठ दैत्यवंशों के रूप में *ऋषि मार्केण्डेय* ने वर्णित किया है और यह कोई संयोग नहीं, वरन सुनियोजित ढंग से किया गया विधान है, जो इस कथा के वास्तविक अर्थ को रूपायित करता है। इसका सूक्ष्म संश्लेषण देखिए।

सबसे पहले *'षडशीतिरुदायुधाः'* छियासी उदायुध में पहला पाश *'घृणा'* है। नाक-भौं जिसे देखकर सिकुड़ जाये वही बस घृणास्पद नहीं है। मेरी दृष्टि में वह सब कुछ घृणा के ही अन्तर्गत है, जो मानवता को समेटकर उदारता का परिसीमन करे, कुटुम्ब को कुटीर में, समाज को जाति में, समष्टि को व्यष्टि में घृणा ही क़ैद करती है।

दश इन्द्रियाँ (हस्त, पाद, मुख, उपस्थ, गुदा, घ्राण, रसना, चक्षु, त्वक् तथा श्रोत्र) और अन्तःकरण चतुष्टय (मन, बद्धि, अहंकार व चित्त) द्वारा जाग्रत अवस्था (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय में से पहली अवस्था) में इन चौदह का आश्रय लेकर चार प्रकार के जीव (जरायुज, अण्ड़ज, स्वेदज, उद्भिज) के प्रति प्राणी घृणा प्रदर्शित करता हुए इन उदायुधों के 14 × 4 = 56 भेद हुए।

स्वप्नावस्था में केवल अन्तःकरण का आश्रय लेकर चार प्रकार के जीव के प्रति जो घृणा की जाती है उसके 4 × 4 = 16 भेद हुए। *तुरीयावस्था* के प्रारम्भ में स्वयं की दश इन्द्रियों व अन्तःकरण चतुष्टय के प्रति जो घृणा जीवन्मुक्त द्वारा की जाती है, जिसके फलस्वरूप वह देहातीत हो जाता है उसकी संख्या 10 + 4 = 14 हुई। कुल 56 + 16 +:14 = 86 उदायुध छियासी घृणा के प्रतिनिधि हैं।

अब दूसरा *'कम्बूनां चतुरशीतिः'* चौरासी कम्बु। कम्बु *शंख* को कहते हैं। किसी ने स्पर्श किया, देखा या समीप गया तो अपने सभी अवयवों को समेटकर भीतर हो जाना शंख की प्रवृत्ति है। उसे दूसरा पाश *'लज्जा'* का स्वरूप प्रदान करती है। निर्लज्जता अशोभनीय है किसी के लिए भी किन्तु उससे कहीं अधिक *वह लज्जा निन्दनीय है जो इष्ट के सम्मुख हमें नृत्य न करने दे, कीर्तन, आत्मनिवेदन, प्रणय समर्पण न करने दे*। बन्धन है ऐसी लज्जा। षाट्कौषिक देह में, चौदह करणों (दश इन्द्रियाँ और अन्तःकरण चतुष्टय चौदह करण हैं) द्वारा व्यक्त हो रही ये लज्जा 14 × 6 = 84 चौरासी प्रकार से अभिव्यक्त होती है। इसलिए शुम्भ का आदेश है 'कम्बूनां चतुरशीतिः'।

तीसरा है *'कोटिविर्याणि पञ्चाशत'* पचास कोटिवीर्य। नाम है कोटिवीर्य, लेकिन है यह तीसरा पाश *'भय'*। भय सचमुच वीर है आज तक कोई इससे बच न सका। मनुष्य के मन की गहराइयों तक इसका प्रवेश है। प्रत्येक के हृदय में सरलता से इसका संचार किया जा सकता है। मरणोपरान्त प्रेत तक भयमुक्त हो न सके। देवताओं तक में इसका त्रास है। हमारी देह की दशों इन्द्रियाँ पाँच कोषों में (अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष, आन्नदमय कोष) इस असुरकुल का प्रकाश करती हैं। इस प्रकार 10 × 5 = 50 कोटिवीर्य का अध्यात्मिक निहितार्थ है।

चौथा *'शतंकुलानि धौम्राणां'* सौ धौम्र कहे गये। धूम्र नामक असुर के वंशज धौम्र हैं। इनका प्रमुख *धूम्रलोचन* है। इनके पास आँखें हैं। ये इनसे देखते भी हैं। इसके बाद भी *दृष्टिगोचर विषय के प्रति शंकित रहने के कारण ये धूम्रलोचन हैं*। और हमारा चौथा पाश *'शंका'* इन्हीं का प्रतिनिधि है। आँखों से देखी गयी वस्तुओं के प्रति शंका करना मनुष्य की जन्मजात प्रवृत्ति है। न देखी गयी वस्तु के प्रति वह विश्वास कर भी लेता है पर देखे गये तथ्यों के प्रति सन्देह सदैव रहता है। यह शंका हमारे लोचनों मे धूम्र बनकर आज तक अमर है। ऐसा है चौथा पाश 'शंका' अर्थात् 'धूम्रलोचन'। पाँच भूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) और इनकी तन्मात्रा (क्रमशः गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द) के आश्रय दश इन्द्रियों द्वारा शंका भाँति भाँति से अपना स्वरूप आलोकित करती है। इसलिए 10 × 10 = 100 धौम्रकुल के दैत्य।

पाँचवाँ *'कालका'* अर्थात् कालक। नख से सिख तक भयानक काला वर्ण है इसका। यही है पाँचवाँ पाश - *'जुगुप्सा'*, मतलब निन्दा। संसार के सभी निन्दक आपादमस्तक बुराई से भरे हैं। वे दूसरों की निन्दा इसलिए करते हैं ताकि उनकी बुराईयों पर किसी की दृष्टि न जाये। निन्दा करने की पहली शर्त ही यही है उन्नत चरित्रवाले को बुराई करके इतना नीचे गिरा दो कि तुम्हारे दोष भी लोगों को श्रेष्ठ प्रतीत होने लगे। इसी 'निन्दा' नामक पाश का कालक नेतृत्व करता है।

छठवाँ *'दौर्हृद'* नामार्थ से ही स्पष्ट है दुष्ट हृदय (दुर्हृद) वाला। यह छठाँ पाश *'कुलाभिमान'* का द्योतक है। ये गौरव, स्वाभिमान से दूर अपने कुल के मिथ्या अहंकार, दर्प और घमण्ड का परिचायक है। *किसी भी कुल की अध्यात्मिक सम्पत्तियाँ पीढ़ी दर पीढ़ी उसी तरह यात्रा करती हैं, जैसे श्वेत कुष्ठ, प्रमेह आदि रोग हरेक पीढ़ी में अनुकूल अवसर पा व्यापते हैं।* झूठा कुलाभिमान कुल की अध्यात्मिक सम्पत्तियों को भस्म कर देता है।

सातवाँ *'मौर्याः'* मुर नामक असुर की मौर्य सन्तान *'शील'* रूपी सातवें पाश का प्रतिरूप है। शील से आशय है हमारा स्वभाव, प्रकृति, काम करने की आदत, जन्म-जन्मान्तर का अभ्यास। वह सब कुछ शील के अन्तर्गत है, जो बिना किसी के सिखाये हमारे हृदय में सहज स्फुरित होता रहे और तद्नुसार हम आचरण करते रहें। यह स्वभाव एक जटिल पाश है।

आठवाँ *'कालकेय'* कालक असुर की सन्तान है। यह आठवाँ और अन्तिम पाश *'जाति'* का प्रतिबिम्ब है। गुणकर्मानुसार हमें जाति उपलब्ध होती है और उसी के अनुसार स्वभाव (शील), अभिमान (कुल), निन्दा, शंका, भय, लज्जा, घृणा जैसी प्रवृत्तियाँ हमें व्यापती हैं। यह अन्तिम पाश अन्य सभी पाशों का आधार है।इसके जाते ही सब कुछ ख़त्म हो जाता है। यह सभी पाश हमारे जीवन में बार-बार आविर्भूत और विलीन होते रहते हैं। इनकी समाप्ति तभी सम्भव है जब हम इन्हें माँ के पास भेजें, जैसा कि शुम्भ ने किया।

वस्तुतः शुम्भ जैसी परिस्थिति मेरे कहने और आपके करने से नहीं आती। वह एक सतत गतिमान प्रक्रिया है, जिसकी झलक हमें गीता में भी मिलती है -
यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः,
        समुद्र मेवाभिमुखा द्रवन्ति।
तथा तवामी नरलोकवीरा,
        विशन्ति वक्त्राण्यभिवि ज्वलन्ति॥

इसका भावार्थ है जिस प्रकार नदियों के अनेक प्रवाह समुद्र की ओर सहज ही दौड़ते हैं, उसी प्रकार ये सारे मनुष्य भगवान् के देदीप्यमान मुखों में विलीन हो रहे हैं।

अस्तु! यह प्रक्रिया श्रमसाध्य नहीं है। श्रम तो कोई दूसरा कर रहा, हम तो अवरोध कर रहे हैं। एकदम वैसे ही जैसे शैशवावस्था में शीत ऋतु के समय मेरी माँ मुझे स्नान कराने के लिए शयनकक्ष से उठाकर स्नानागार के लिए ले जाती थी। तब ठण्ड के कारण मुझे स्नान से बड़ी अनिच्छा होती थी तो मेरा एक हाथ माँ थामे होती थी और दूसरा हाथ जो खाली होता था उससे मैं माँ को रोकने के लिये कभी पर्दा पकड़ता, तो कभी पलंग का सिरहाना। अपनी पूरी ताकत से मैं इन चीज़ों को पकड़ता, लेकिन माँ मुझसे अधिक शक्तिशाली थी, वह घसीटती और मेरी पकड़ से खिड़की, दरवाजे सब छूटते जाते। मैं चिल्लाता, रोता, माँ को दाँतों से काटता, फिर भी वह ले जाती, छोड़ती बिल्कुल नहीं। ऐसा ही सबके साथ इस जीवन में है। *माँ हमको ले जा रही हैं और हम संसार भर को पकड़ते दौड़ रहे हैं, जबकि सब छूट रहा है। यदि हम संसार को पकड़ना छोड़ दें, तो हम जल्दी पहुँचेंगे, ईश्वर के राज्य में।* नहीं तो शुम्भ की भाँति हमें बाध्य किया जायेगा। यही दुर्गासप्तशती का अध्यात्मिक यथार्थ है।
 
*'आनन्द अपराजिता'*
सिद्धार्थनगर, सतना (म.प्र.) 🌏

Thursday, July 5, 2018

Uddhav Geeta :

*"उद्धव-गीता"*

उद्धव बचपन से ही सारथी के रूप में श्रीकृष्ण की सेवा में रहे, किन्तु उन्होंने श्री कृष्ण से कभी न तो कोई इच्छा जताई और न ही कोई वरदान माँगा।
जब कृष्ण अपने *अवतार काल* को पूर्ण कर *गौलोक* जाने को तत्पर हुए, तब उन्होंने उद्धव को अपने पास बुलाया और कहा-
"प्रिय उद्धव मेरे इस 'अवतार काल' में अनेक लोगों ने मुझसे वरदान प्राप्त किए, किन्तु तुमने कभी कुछ नहीं माँगा! अब कुछ माँगो, मैं तुम्हें देना चाहता हूँ।
तुम्हारा भला करके, मुझे भी संतुष्टि होगी।
उद्धव ने इसके बाद भी स्वयं के लिए कुछ नहीं माँगा। वे तो केवल उन शंकाओं का समाधान चाहते थे जो उनके मन में कृष्ण की शिक्षाओं, और उनके कृतित्व को, देखकर उठ रही थीं।
उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा-
"भगवन महाभारत के घटनाक्रम में अनेक बातें मैं नहीं समझ पाया!
आपके 'उपदेश' अलग रहे, जबकि 'व्यक्तिगत जीवन' कुछ अलग तरह का दिखता रहा!
क्या आप मुझे इसका कारण समझाकर मेरी ज्ञान पिपासा को शांत करेंगे?"

श्री कृष्ण बोले-
“उद्धव मैंने कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में अर्जुन से जो कुछ कहा, वह *"भगवद्गीता"* थी।
आज जो कुछ तुम जानना चाहते हो और उसका मैं जो तुम्हें उत्तर दूँगा, वह *"उद्धव-गीता"* के रूप में जानी जाएगी।
इसी कारण मैंने तुम्हें यह अवसर दिया है।
तुम बेझिझक पूछो।
उद्धव ने पूछना शुरू किया-

"हे कृष्ण, सबसे पहले मुझे यह बताओ कि सच्चा मित्र कौन होता है?"
कृष्ण ने कहा- "सच्चा मित्र वह है जो जरूरत पड़ने पर मित्र की बिना माँगे, मदद करे।"
उद्धव-
"कृष्ण, आप पांडवों के आत्मीय प्रिय मित्र थे। आजाद बांधव के रूप में उन्होंने सदा आप पर पूरा भरोसा किया।
कृष्ण, आप महान ज्ञानी हैं। आप भूत, वर्तमान व भविष्य के ज्ञाता हैं।
किन्तु आपने सच्चे मित्र की जो परिभाषा दी है, क्या आपको नहीं लगता कि आपने उस परिभाषा के अनुसार कार्य नहीं किया?
आपने धर्मराज युधिष्ठिर को द्यूत (जुआ) खेलने से रोका क्यों नहीं?
चलो ठीक है कि आपने उन्हें नहीं रोका, लेकिन आपने भाग्य को भी धर्मराज के पक्ष में भी नहीं मोड़ा!
आप चाहते तो युधिष्ठिर जीत सकते थे!
आप कम से कम उन्हें धन, राज्य और यहाँ तक कि खुद को हारने के बाद तो रोक सकते थे!
उसके बाद जब उन्होंने अपने भाईयों को दाँव पर लगाना शुरू किया, तब तो आप सभाकक्ष में पहुँच सकते थे! आपने वह भी नहीं किया? उसके बाद जब दुर्योधन ने पांडवों को सदैव अच्छी किस्मत वाला बताते हुए द्रौपदी को दाँव पर लगाने को प्रेरित किया, और जीतने पर हारा हुआ सब कुछ वापस कर देने का लालच दिया, कम से कम तब तो आप हस्तक्षेप कर ही सकते थे!
   अपनी दिव्य शक्ति के द्वारा आप पांसे धर्मराज के अनुकूल कर सकते थे!
इसके स्थान पर आपने तब हस्तक्षेप किया, जब द्रौपदी लगभग अपना शील खो रही थी, तब आपने उसे वस्त्र देकर द्रौपदी के शील को बचाने का दावा किया!
   लेकिन आप यह यह दावा भी कैसे कर सकते हैं?
उसे एक आदमी घसीटकर हॉल में लाता है, और इतने सारे लोगों के सामने निर्वस्त्र करने के लिए छोड़ देता है!
एक महिला का शील क्या बचा? आपने क्या बचाया?
अगर आपने संकट के समय में अपनों की मदद नहीं की तो आपको आपाद-बांधव कैसे कहा जा सकता है?
बताईए, आपने संकट के समय में मदद नहीं की तो क्या फायदा?
क्या यही धर्म है?"
इन प्रश्नों को पूछते-पूछते उद्धव का गला रुँध गया और उनकी आँखों से आँसू बहने लगे।
ये अकेले उद्धव के प्रश्न नहीं हैं। महाभारत पढ़ते समय हर एक के मनोमस्तिष्क में ये सवाल उठते हैं!
उद्धव ने हम लोगों की ओर से ही श्रीकृष्ण से उक्त प्रश्न किए।
  भगवान श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुए बोले-
"प्रिय उद्धव, यह सृष्टि का नियम है कि विवेकवान ही जीतता है।
उस समय दुर्योधन के पास विवेक था, धर्मराज के पास नहीं।
यही कारण रहा कि धर्मराज पराजित हुए।"

उद्धव को हैरान परेशान देखकर कृष्ण आगे बोले- "दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए पैसाऔर धन तो बहुत था, लेकिन उसे पासों का खेल खेलना नहीं आता था, इसलिए उसने अपने मामा शकुनि का द्यूतक्रीड़ा के लिए उपयोग किया। यही विवेक है। धर्मराज भी इसी प्रकार सोच सकते थे और अपने चचेरे भाई से पेशकश कर सकते थे कि उनकी तरफ से मैं खेलूँगा।
जरा विचार करो कि अगर शकुनी और मैं खेलते तो कौन जीतता?
पाँसे के अंक उसके अनुसार आते या मेरे अनुसार?
चलो इस बात को जाने दो। उन्होंने मुझे खेल में शामिल नहीं किया, इस बात के लिए उन्हें माफ़ किया जा सकता है। लेकिन उन्होंने विवेक-शून्यता से एक और बड़ी गलती की!
और वह यह-
उन्होंने मुझसे प्रार्थना की कि मैं तब तक सभा-कक्ष में न आऊँ, जब तक कि मुझे बुलाया न जाए!
क्योंकि वे अपने दुर्भाग्य से खेल मुझसे छुपकर खेलना चाहते थे।
वे नहीं चाहते थे, मुझे मालूम पड़े कि वे जुआ खेल रहे हैं!
इस प्रकार उन्होंने मुझे अपनी प्रार्थना से बाँध दिया! मुझे सभा-कक्ष में आने की अनुमति नहीं थी!
इसके बाद भी मैं कक्ष के बाहर इंतज़ार कर रहा था कि कब कोई मुझे बुलाता है! भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव सब मुझे भूल गए! बस अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे!
अपने भाई के आदेश पर जब दुस्साशन द्रौपदी को बाल पकड़कर घसीटता हुआ सभा-कक्ष में लाया, द्रौपदी अपनी सामर्थ्य के अनुसार जूझती रही!
तब भी उसने मुझे नहीं पुकारा!
उसकी बुद्धि तब जागृत हुई, जब दुस्साशन ने उसे निर्वस्त्र करना प्रारंभ किया!
जब उसने स्वयं पर निर्भरता छोड़कर-
 *'हरि, हरि, अभयम कृष्णा, अभयम'*-
की गुहार लगाई, तब मुझे उसके शील की रक्षा का अवसर मिला।
जैसे ही मुझे पुकारा गया, मैं अविलम्ब पहुँच गया।
अब इस स्थिति में मेरी गलती बताओ?"
उद्धव बोले-
"कान्हा आपका स्पष्टीकरण प्रभावशाली अवश्य है, किन्तु मुझे पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई!
क्या मैं एक और प्रश्न पूछ सकता हूँ?"
कृष्ण की अनुमति से उद्धव ने पूछा-
"इसका अर्थ यह हुआ कि आप तभी आओगे, जब आपको बुलाया जाएगा? क्या संकट से घिरे अपने भक्त की मदद करने आप स्वतः नहीं आओगे?"
कृष्ण मुस्कुराए-
"उद्धव इस सृष्टि में हरेक का जीवन उसके स्वयं के कर्मफल के आधार पर संचालित होता है।
न तो मैं इसे चलाता हूँ, और न ही इसमें कोई हस्तक्षेप करता हूँ।
मैं केवल एक 'साक्षी' हूँ।
मैं सदैव तुम्हारे नजदीक रहकर जो हो रहा है उसे देखता हूँ।
यही ईश्वर का धर्म है।"

"वाह-वाह, बहुत अच्छा कृष्ण!
तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप हमारे नजदीक खड़े रहकर हमारे सभी दुष्कर्मों का निरीक्षण करते रहेंगे?
हम पाप पर पाप करते रहेंगे, और आप हमें साक्षी बनकर देखते रहेंगे?
आप क्या चाहते हैं कि हम भूल करते रहें? पाप की गठरी बाँधते रहें और उसका फल भुगतते रहें?"
उलाहना देते हुए उद्धव ने पूछा!

तब कृष्ण बोले-
"उद्धव, तुम शब्दों के गहरे अर्थ को समझो।
जब तुम समझकर अनुभव कर लोगे कि मैं तुम्हारे नजदीक साक्षी के रूप में हर पल हूँ, तो क्या तुम कुछ भी गलत या बुरा कर सकोगे?
तुम निश्चित रूप से कुछ भी बुरा नहीं कर सकोगे।
जब तुम यह भूल जाते हो और यह समझने लगते हो कि मुझसे छुपकर कुछ भी कर सकते हो, तब ही तुम मुसीबत में फँसते हो! धर्मराज का अज्ञान यह था कि उसने माना कि वह मेरी जानकारी के बिना जुआ खेल सकता है!
अगर उसने यह समझ लिया होता कि मैं प्रत्येक के साथ हर समय साक्षी रूप में उपस्थित हूँ तो क्या खेल का रूप कुछ और नहीं होता?"

 भक्ति से अभिभूत उद्धव मंत्रमुग्ध हो गये और बोले-
प्रभु कितना गहरा दर्शन है। कितना महान सत्य। 'प्रार्थना' और 'पूजा-पाठ' से, ईश्वर को अपनी मदद के लिए बुलाना तो महज हमारी 'पर-भावना' है।  मग़र जैसे ही हम यह विश्वास करना शुरू करते हैं कि 'ईश्वर' के बिना पत्ता भी नहीं हिलता! तब हमें साक्षी के रूप में उनकी उपस्थिति महसूस होने लगती है।
गड़बड़ तब होती है, जब हम इसे भूलकर दुनियादारी में डूब जाते हैं।
सम्पूर्ण श्रीमद् भागवद् गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इसी जीवन-दर्शन का ज्ञान दिया है।
सारथी का अर्थ है- मार्गदर्शक।
अर्जुन के लिए सारथी बने श्रीकृष्ण वस्तुतः उसके मार्गदर्शक थे।
वह स्वयं की सामर्थ्य से युद्ध नहीं कर पा रहा था, लेकिन जैसे ही अर्जुन को परम साक्षी के रूप में भगवान कृष्ण का एहसास हुआ, वह ईश्वर की चेतना में विलय हो गया!
यह अनुभूति थी, शुद्ध, पवित्र, प्रेममय, आनंदित सुप्रीम चेतना की!
तत-त्वम-असि!
अर्थात...
वह तुम ही हो।।

Ashtavakra : Presented By Sh AB Shukla ICAS


Asthavakra:

मुक्ताभिमानी मुक्तो हि, बद्धो बद्धाभिमान्यपि।
किवदन्तीह सत्येयं,
या मतिः सा गतिर्भवेत्॥१-११॥
मुक्त माने मुक्त रहे,
बद्ध सोच बंध जाय।
है कहावत सत्य यही,
मति जैसी गति पाय॥१-११॥

आत्मा साक्षी विभुः,
पूर्ण एको मुक्तश्चिदक्रियः।
असंगो निःस्पृहः शान्तो, भ्रमात्संसारवानिव॥१-१२॥
साक्षी आत्मा सब जगह, पूर्ण, सजीव, निष्काम।
मुक्त, शांत, इच्छारहित, लौकिक भ्रमित तमाम॥१-१२॥

निःसंगो निष्क्रियोऽसि,
त्वं स्वप्रकाशो निरंजनः।
अयमेव हि ते बन्धः, समाधिमनुतिष्ठति॥१-१५॥
असंग, आप स्थिर सदा, स्वयं दीप निर्दोष।
करे ध्यान मन शांत येहैं बंधन का दोष ॥१-१५॥

 त्वया व्याप्तमिदं विश्वं, त्वयि प्रोतं यथार्थतः।
शुद्धबुद्धस्वरुपस्त्वं मा, गमः क्षुद्रचित्तताम्॥१-१६॥
विश्व यह तुमने रचातुम ही इसके नाथ।
ज्ञान-रूप तुम शुद्ध भी, हीन भाव ना साथ॥१-१६॥


[18/07, 5:31 PM] Icas AB Shukla: Asthavakra:

यथैवेक्षुरसे क्लृप्ता,
तेन व्याप्तैव शर्करा।
तथा विश्वं मयि क्लृप्तं, मया व्याप्तं निरन्तरम्
॥२-६॥

रस गन्ने का रूप हैं,
चीनी भी रस-रूप।
वैसे जग मुझसे बना,
मैं ही जगत-स्वरुप |
॥२-६॥


प्रकाशो मे निजं रूपं, नातिरिक्तोऽस्म्यहं ततः।
यदा प्रकाशते विश्वं, तदाऽहंभास एव हि |
२-८॥

मेरा रूप प्रकाश है,
नहीं परे पहचान।
ज्यूँ प्रकाशित जग करे, "मै" की भी पहचान |
 ॥२-८॥

 Raja Janak asks:

अहो विकल्पितं, विश्वंज्ञानान्मयि भासते।
रूप्यं शुक्तौ फणी रज्जौ, वारि सूर्यकरे यथा |
(२-९)

कल्पित जग मुझ में दिखे, कारण है अज्ञान।
रस्सी सर्प, सीप रजत,
सूर्य किरण जल भान |
॥२-९॥