Wednesday, July 11, 2018

सामाजिक संरचना

 प्रश्न :

कैकेयी सा दृष्टीकोण मन्थरा प्रवति को ही जन्म देता है जो पारिवारिक विघटन की ओर उन्मुख करता है ! भरत चरित जन्मने और उदित होकर प्रतिकार करने के अंतराल तक राम आदर्श वनागमन को बाध्य होकर राक्षसी संस्कृति  (सामाजिक विषमताओं) की अग्नि परीक्षा से जूझते जूझते पलायनशीलता को ही गतिशील बनाने में सहायक होती है ! क्या - क्यों - कैसे पर विचारशील मष्तिस्क इन विडम्बनाओं का आंकलन करके संभावित पलायनवादी  मानसिकता का प्रतिकार कर सकते है ? वसुदेव कुटुम्बकम की परिकल्पना और उसके अनुरूप मानसिकता के  विकास से हम सामाजिक / पारिवारिक विघटन से निदान पा सकेंगे यह एक अमोघ मंत्र सिद्ध होगा ! क्या ?

 उत्तर : श्री Bp Gaur से

वसुधैव कुटुम्बकम् की परिकल्पना के अनुरूप सही मार्ग का चयन हो, इसके लिए विद्वत्ता की नहीं प्रज्ञा की आवश्यकता है। विद्वत्ता ज्ञान से आती है। आज के ज्ञान में विज्ञान (जो बाहर से प्राप्त किया गया है) का बाहुल्य है। इससे हमें तीक्ष्ण बुद्धि तो अवश्य मिली है। पर य़ह बुद्धि ही है जो हमारी भेदाभेद की प्रतीति को, हमारी असहिष्णुता को और हमारी निषेधात्मक प्रवृत्तियों को और भी प्रबल करती चली जा रही है। नतीजा सामने है। आज विश्व में जो भी असहयोग, असहनशीलता व हाहाकार व्याप्त है, उस सबके पीछे बुद्धि का ही कमाल है। वसुधैव कुटुम्बकम् के लिए समन्वय की दृष्टि चाहिए। समन्वय प्रेम से उपजता है। प्रेम प्रज्ञा की देन है और सरलता से आता है। शायद हम सरल होना भूल गए हैं। शिशु सरल होता है। उसी शिशु भाव को पाने की आवश्यकता है। इसके लिए जो बाहर का ज्ञान अर्जित किया गया है, उसे खोने की आवश्यकता है। अपनी मान्यताओं, संस्कारों एवं प्रवृत्तियों से मुक्त होना पडेगा। यह घटना किसी अमृत मंथन से कम नहीं। मन के एकान्त में ही मनन की मथनी से चिंतन का मंथन सरलता के अमृत को प्रकट करता है। इसलिए आवश्यकता हैं, अंतरमुखी होने की। आध्यात्म में जगत के बदलने की प्रतीक्षा व्यर्थ है। जगत अपनी सामूहिक बुद्धि एवं संस्कार से बंधा है। उससे मुक्त होने की छूट या स्वतंत्रता व्यक्ति को ही है और व्यक्ति को इस दिशा में प्रयत्नशील होना चाहिए। जो व्यक्ति वसुधैव कुटुम्बकम् के अनुभव में प्रतिष्ठित हो जाएगा वह सबमें, उनमें भी जो अपने संस्कार वश कटु या ह्रिंस व्यवहार करते हैं, ईश्वर को ही देखेगा और उन्हें अपने से भिन्न नहीं समझेगा।

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