Monday, July 9, 2018

दुर्गा सप्तशती: एक शोध परक लेख

🌟 *अष्टपाश-निवारण*

*कौसानी*, उत्तराखण्ड में मैंने वहाँ कई दिवस प्रवास किया और उस दौरान *दुर्गासप्तशती* को पढ़ा। मेरे सामने वहाँ *कैलास, नन्दादेवी* समेत हिमालय के सभी उन्नत शिखर धवल चादर ओढ़े खड़े थे। उसी का प्रभाव था जब मैंने *'चण्डे च निहते दैत्ये मुण्डे च विनिपातिते'* पढ़ा तो मुझे लगा दुर्गासप्तशती मात्र देव-दैत्य-संग्राम न होकर कुछ और भी है। यदि ऐसा न होता तो इस कथा को अभी तक पढ़ने का कोई औचित्य भी नहीं था। उदाहरणार्थ - श्रीराम की ऐतिहासिकता निस्सन्देह है, पर उनका एक और स्वरूप है -
*रमन्ते योगिनो यस्मिन नित्यानन्दे चिदात्मनि।*
*इति राम पदेनैतत् परब्रह्माऽभिधियते॥*
योगीगण जिस सर्वोच्च तत्त्व में आनन्द लेते हुए निमग्न रहते हैं, उसी तत्त्व को *'राम'* कहा है। पार्थिव जगत् में भी एक 'राम' हैं और अध्यात्मिक जगत् में भी हैं।अध्यात्मिक जगत् के 'राम' जहाँ समाधिगम्य हैं वहीं पार्थिव जगत् के 'राम' भक्तिसाध्य हैं। तत्त्वतः दोनों राम के एक होने पर भी अयोध्यापति श्रीराम के पीछे जो कोलाहल है वह आत्माराम में नहीं है।

दुर्गासप्तशती का पार्थिव स्वरूप आपने देखा है। मैं उसके अध्यात्मिक पक्ष के कुछ पात्रों का परिचय विवृत करता हूँ -
चण्डे च निहते दैत्ये मुण्डे च  विनिपातिते।
बहुलेषु च सैन्येषु क्षयितेष्वसुरेश्वरः॥
ततः कोप पराधीनचेताः शुम्भः प्रतापवान।
उद्योगं सर्वसैन्यानां दैत्यानामादिदेश  ह॥
                 (दुर्गा. अ. 8/1)

"चण्ड के मारे जाने, मुण्ड के धराशायी होने पर तथा अधिकांश सेना के नष्ट हो जाने पर प्रतापशाली असुरराज शुम्भ ने क्रोधातुर होकर सम्पूर्ण दैत्यसेना को तैयार होने की आज्ञा दी।"

*'चण्ड'* जो कि प्रचण्डतापूर्ण है, वह *'प्रवृत्ति'* है और *'मुण्ड'* जोकि मात्र मुण्ड है। करने के लिए उसके पास कुछ नहीं पर सोचने के लिए बहुत कुछ है। वह है - *'निवृत्ति'*। ये बन्धुद्वय रहते हैं हमारी 'अस्मिता' अर्थात् *'शुम्भ'* के अनुशासन में। जब शुम्भ ने अपनी प्रवृत्ति-निवृत्ति दोनों को मृत देखा तो उसे क्रोध आया। इस क्रोधमयी स्थिति में हम नित्य आते हैं, जब हम अपने अनकूल पत्नी को प्रतिकूल हुआ पाते हैं, आज्ञाकारी बेटे को अवज्ञा करता देखते हैं। वस्तुतः संसार के अनुकूल होने पर हमारी अस्मिता की प्रवृत्ति बढ़ती है और प्रतिकूल होने पर निवृत्ति और प्रवृत्ति-निवृत्ति दोनों के अवसान में हमारा क्रोध बढ़ता है। किसी नास्तिक को नास्तिकता की, मानसिक रोगी को अवसाद की उपलब्धि यही क्रोध कराता है, वहीं तुलसी, घनानन्द जैसे साधुओं को ईश्वर से तन्मय भी यही क्रोध ही कराता है। क्रोधित शुम्भ बची हुई समस्त शक्तियों को संग्रहित कर भीषण युद्ध की योजना बनाता है। इसके लिए देखिए वह किस-किसको बुला रहा -
*अद्य सर्व बलैर्दैत्याः षडशीतिरुदायुधाः।*
*कम्बूनां चतुरशीतिर्नियान्तु स्वबलैर्युताः॥*
*कोटिविर्याणि पञ्चाशतसुराणां कुलानि वै।*
*शतंकुलानि धौम्राणां निर्गच्छन्तु ममाज्ञया॥*
*कालका दौर्हदा मौर्याः कालकेयास्तथासुराः।*
*युद्धाय सज्जा निर्यान्तु आज्ञया त्वरिता मम॥*

अर्थात् "हे दैत्यगण! मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ कि दैत्यसेना के साथ छियासी उदायुध, चौरासी कम्बु, पचास कोटिवीर्य, सौ धौम्र तथा कालक, दौर्हृद, मौर्य, कालकेय वंशों के दैत्य युद्ध-निमित्त तैयार होकर निकलें।"

कुल आठ दैत्य-कुलों का स्मरण किया गया। *'कुलार्णवतन्त्र'* में भी आठ प्रकार के पाश अर्थात् बन्धन का उल्लेख है -   
*घृणा लज्जा भयं शंका जुगुप्सा चेति पञ्चमी।*
*कुलं शीलं तथा जातिरष्टो पाशाः प्रकीर्तिताः॥*
*पाशबद्धो भवेज्जीवाः पाशमुक्तः सदाशिवः।*

अर्थात् "घृणा, लज्जा, भय, शंका, जुगुप्सा, कुल, शील तथा जाति इन अष्टपाश में बँधा जीव है और इनसे मुक्त शिव हैं।"

इन अष्टपाशों को ही आठ दैत्यवंशों के रूप में *ऋषि मार्केण्डेय* ने वर्णित किया है और यह कोई संयोग नहीं, वरन सुनियोजित ढंग से किया गया विधान है, जो इस कथा के वास्तविक अर्थ को रूपायित करता है। इसका सूक्ष्म संश्लेषण देखिए।

सबसे पहले *'षडशीतिरुदायुधाः'* छियासी उदायुध में पहला पाश *'घृणा'* है। नाक-भौं जिसे देखकर सिकुड़ जाये वही बस घृणास्पद नहीं है। मेरी दृष्टि में वह सब कुछ घृणा के ही अन्तर्गत है, जो मानवता को समेटकर उदारता का परिसीमन करे, कुटुम्ब को कुटीर में, समाज को जाति में, समष्टि को व्यष्टि में घृणा ही क़ैद करती है।

दश इन्द्रियाँ (हस्त, पाद, मुख, उपस्थ, गुदा, घ्राण, रसना, चक्षु, त्वक् तथा श्रोत्र) और अन्तःकरण चतुष्टय (मन, बद्धि, अहंकार व चित्त) द्वारा जाग्रत अवस्था (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय में से पहली अवस्था) में इन चौदह का आश्रय लेकर चार प्रकार के जीव (जरायुज, अण्ड़ज, स्वेदज, उद्भिज) के प्रति प्राणी घृणा प्रदर्शित करता हुए इन उदायुधों के 14 × 4 = 56 भेद हुए।

स्वप्नावस्था में केवल अन्तःकरण का आश्रय लेकर चार प्रकार के जीव के प्रति जो घृणा की जाती है उसके 4 × 4 = 16 भेद हुए। *तुरीयावस्था* के प्रारम्भ में स्वयं की दश इन्द्रियों व अन्तःकरण चतुष्टय के प्रति जो घृणा जीवन्मुक्त द्वारा की जाती है, जिसके फलस्वरूप वह देहातीत हो जाता है उसकी संख्या 10 + 4 = 14 हुई। कुल 56 + 16 +:14 = 86 उदायुध छियासी घृणा के प्रतिनिधि हैं।

अब दूसरा *'कम्बूनां चतुरशीतिः'* चौरासी कम्बु। कम्बु *शंख* को कहते हैं। किसी ने स्पर्श किया, देखा या समीप गया तो अपने सभी अवयवों को समेटकर भीतर हो जाना शंख की प्रवृत्ति है। उसे दूसरा पाश *'लज्जा'* का स्वरूप प्रदान करती है। निर्लज्जता अशोभनीय है किसी के लिए भी किन्तु उससे कहीं अधिक *वह लज्जा निन्दनीय है जो इष्ट के सम्मुख हमें नृत्य न करने दे, कीर्तन, आत्मनिवेदन, प्रणय समर्पण न करने दे*। बन्धन है ऐसी लज्जा। षाट्कौषिक देह में, चौदह करणों (दश इन्द्रियाँ और अन्तःकरण चतुष्टय चौदह करण हैं) द्वारा व्यक्त हो रही ये लज्जा 14 × 6 = 84 चौरासी प्रकार से अभिव्यक्त होती है। इसलिए शुम्भ का आदेश है 'कम्बूनां चतुरशीतिः'।

तीसरा है *'कोटिविर्याणि पञ्चाशत'* पचास कोटिवीर्य। नाम है कोटिवीर्य, लेकिन है यह तीसरा पाश *'भय'*। भय सचमुच वीर है आज तक कोई इससे बच न सका। मनुष्य के मन की गहराइयों तक इसका प्रवेश है। प्रत्येक के हृदय में सरलता से इसका संचार किया जा सकता है। मरणोपरान्त प्रेत तक भयमुक्त हो न सके। देवताओं तक में इसका त्रास है। हमारी देह की दशों इन्द्रियाँ पाँच कोषों में (अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष, आन्नदमय कोष) इस असुरकुल का प्रकाश करती हैं। इस प्रकार 10 × 5 = 50 कोटिवीर्य का अध्यात्मिक निहितार्थ है।

चौथा *'शतंकुलानि धौम्राणां'* सौ धौम्र कहे गये। धूम्र नामक असुर के वंशज धौम्र हैं। इनका प्रमुख *धूम्रलोचन* है। इनके पास आँखें हैं। ये इनसे देखते भी हैं। इसके बाद भी *दृष्टिगोचर विषय के प्रति शंकित रहने के कारण ये धूम्रलोचन हैं*। और हमारा चौथा पाश *'शंका'* इन्हीं का प्रतिनिधि है। आँखों से देखी गयी वस्तुओं के प्रति शंका करना मनुष्य की जन्मजात प्रवृत्ति है। न देखी गयी वस्तु के प्रति वह विश्वास कर भी लेता है पर देखे गये तथ्यों के प्रति सन्देह सदैव रहता है। यह शंका हमारे लोचनों मे धूम्र बनकर आज तक अमर है। ऐसा है चौथा पाश 'शंका' अर्थात् 'धूम्रलोचन'। पाँच भूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) और इनकी तन्मात्रा (क्रमशः गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द) के आश्रय दश इन्द्रियों द्वारा शंका भाँति भाँति से अपना स्वरूप आलोकित करती है। इसलिए 10 × 10 = 100 धौम्रकुल के दैत्य।

पाँचवाँ *'कालका'* अर्थात् कालक। नख से सिख तक भयानक काला वर्ण है इसका। यही है पाँचवाँ पाश - *'जुगुप्सा'*, मतलब निन्दा। संसार के सभी निन्दक आपादमस्तक बुराई से भरे हैं। वे दूसरों की निन्दा इसलिए करते हैं ताकि उनकी बुराईयों पर किसी की दृष्टि न जाये। निन्दा करने की पहली शर्त ही यही है उन्नत चरित्रवाले को बुराई करके इतना नीचे गिरा दो कि तुम्हारे दोष भी लोगों को श्रेष्ठ प्रतीत होने लगे। इसी 'निन्दा' नामक पाश का कालक नेतृत्व करता है।

छठवाँ *'दौर्हृद'* नामार्थ से ही स्पष्ट है दुष्ट हृदय (दुर्हृद) वाला। यह छठाँ पाश *'कुलाभिमान'* का द्योतक है। ये गौरव, स्वाभिमान से दूर अपने कुल के मिथ्या अहंकार, दर्प और घमण्ड का परिचायक है। *किसी भी कुल की अध्यात्मिक सम्पत्तियाँ पीढ़ी दर पीढ़ी उसी तरह यात्रा करती हैं, जैसे श्वेत कुष्ठ, प्रमेह आदि रोग हरेक पीढ़ी में अनुकूल अवसर पा व्यापते हैं।* झूठा कुलाभिमान कुल की अध्यात्मिक सम्पत्तियों को भस्म कर देता है।

सातवाँ *'मौर्याः'* मुर नामक असुर की मौर्य सन्तान *'शील'* रूपी सातवें पाश का प्रतिरूप है। शील से आशय है हमारा स्वभाव, प्रकृति, काम करने की आदत, जन्म-जन्मान्तर का अभ्यास। वह सब कुछ शील के अन्तर्गत है, जो बिना किसी के सिखाये हमारे हृदय में सहज स्फुरित होता रहे और तद्नुसार हम आचरण करते रहें। यह स्वभाव एक जटिल पाश है।

आठवाँ *'कालकेय'* कालक असुर की सन्तान है। यह आठवाँ और अन्तिम पाश *'जाति'* का प्रतिबिम्ब है। गुणकर्मानुसार हमें जाति उपलब्ध होती है और उसी के अनुसार स्वभाव (शील), अभिमान (कुल), निन्दा, शंका, भय, लज्जा, घृणा जैसी प्रवृत्तियाँ हमें व्यापती हैं। यह अन्तिम पाश अन्य सभी पाशों का आधार है।इसके जाते ही सब कुछ ख़त्म हो जाता है। यह सभी पाश हमारे जीवन में बार-बार आविर्भूत और विलीन होते रहते हैं। इनकी समाप्ति तभी सम्भव है जब हम इन्हें माँ के पास भेजें, जैसा कि शुम्भ ने किया।

वस्तुतः शुम्भ जैसी परिस्थिति मेरे कहने और आपके करने से नहीं आती। वह एक सतत गतिमान प्रक्रिया है, जिसकी झलक हमें गीता में भी मिलती है -
यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः,
        समुद्र मेवाभिमुखा द्रवन्ति।
तथा तवामी नरलोकवीरा,
        विशन्ति वक्त्राण्यभिवि ज्वलन्ति॥

इसका भावार्थ है जिस प्रकार नदियों के अनेक प्रवाह समुद्र की ओर सहज ही दौड़ते हैं, उसी प्रकार ये सारे मनुष्य भगवान् के देदीप्यमान मुखों में विलीन हो रहे हैं।

अस्तु! यह प्रक्रिया श्रमसाध्य नहीं है। श्रम तो कोई दूसरा कर रहा, हम तो अवरोध कर रहे हैं। एकदम वैसे ही जैसे शैशवावस्था में शीत ऋतु के समय मेरी माँ मुझे स्नान कराने के लिए शयनकक्ष से उठाकर स्नानागार के लिए ले जाती थी। तब ठण्ड के कारण मुझे स्नान से बड़ी अनिच्छा होती थी तो मेरा एक हाथ माँ थामे होती थी और दूसरा हाथ जो खाली होता था उससे मैं माँ को रोकने के लिये कभी पर्दा पकड़ता, तो कभी पलंग का सिरहाना। अपनी पूरी ताकत से मैं इन चीज़ों को पकड़ता, लेकिन माँ मुझसे अधिक शक्तिशाली थी, वह घसीटती और मेरी पकड़ से खिड़की, दरवाजे सब छूटते जाते। मैं चिल्लाता, रोता, माँ को दाँतों से काटता, फिर भी वह ले जाती, छोड़ती बिल्कुल नहीं। ऐसा ही सबके साथ इस जीवन में है। *माँ हमको ले जा रही हैं और हम संसार भर को पकड़ते दौड़ रहे हैं, जबकि सब छूट रहा है। यदि हम संसार को पकड़ना छोड़ दें, तो हम जल्दी पहुँचेंगे, ईश्वर के राज्य में।* नहीं तो शुम्भ की भाँति हमें बाध्य किया जायेगा। यही दुर्गासप्तशती का अध्यात्मिक यथार्थ है।
 
*'आनन्द अपराजिता'*
सिद्धार्थनगर, सतना (म.प्र.) 🌏

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