Friday, November 19, 2021

कर्म विपाक रमेश चिंतक

 


 भाग्यवाद

वैचारिक साधना का परम सूत्र

भाग्यवादी विचार के साथ प्रायः लोग कठिनाई का अनुभव करते हैं। इस परम विचार की अधिकतम निंदा होती आई है। किंतु वस्तुतः यह समर्पण का परम सूत्र है। यह कोई वाद नहीं, बल्कि एक प्रकिया है-साधन की। यह परम साधना का रहस्यमय सूत्र है। इस साधना का परिणाम यह होता है कि व्यक्ति का अहंकार विसर्जित हो जाता है। आदमी सब कुछ छोड़ देता है परमात्मा पर। अच्छा भी वही कर रहा है और बुरा भी वही कर रहा है। जो होता है सो होता है। मनुष्य मात्र साक्षी रह जाता है। भारतीय मनीषा के गहरे सूत्रों में ऐसे संकेत मिलते हैं, क्योंकि ज्योतिष जैसी ब्रह्म विधा, जिससे व्यक्ति के मुक्त होंने की भी भविष्यवाणी की जा सकती है। इसके बहुत गहरो अर्थ हैं। श्रुति कहती है- भाग्य फलति सर्वत्र न च विधा न च पौरुषम् अर्थात भाग्य ही फलित होता है, विधा और पौरुष नहीं। इसी विचारधारा की झलक हमारे सिद्ध संतों की वाणी में भी मिलती है कि भाग्य ही सर्वत्र प्रधान है। किंतु इस बुद्धिवादी पुरुषार्थी युग में भाग्यवाद बहुत निंदित हो रहा है और इसकी निंदा करने वाले अत्याधिक तनाव में हैं। यह ऐसा ही है जैसे किसी नदी में एक लकड़ी पड़ी हुई है, ऐसी लकड़ी तो उस बहाव के साथ ही होगी, जहां नदी के वेग को रोक तो नहीं पा रही, लेकिन वह अपनी मरजी के मार्ग तय करने की कोशिश में है। कभी वेग को रोकना चाहती है और खड़ी हो जाती है। ऐसी लकड़ी अपने अहं के कारण कष्ट पाएगी और इसकी जिम्मेदारी भी उसी पर है। वह तो उसी के समान बुद्धिवादी है जो अकसर तनाव में देखे जाते हैं और अपने अहं के कारण दुखी हैं। जबकि भाग्यवादी यह मानकर जीता है कि दुख और सुख दोनों परमात्मा का प्रसाद है। जीवन भी उसका मुक्ति भी उसकी। फिर कोई प्रश्न ही नहीं रहा। और यह मान्यता साधना का परम सूत्र बन जाती है। जब व्यक्ति यह स्वीकार कर लेता है कि जो भी हो रहा है परमात्मा ही कर रहा है तो वह अस्तित्व में घुलने लगता है। उसी क्षण शून्य हो जाता है। बुरा होने और अच्छे होने का भेद मिट जाता है, अंहकार मिटते ही दुख और सुख की जड़ता वाली समझ समाप्त हो जाती है, क्योंकि दुख मिलता है अहंकार से। अहंकार का घाव भर गया तो दर्द होना भी बंद हो जाएगा।

             आशय यह है कि अगर कोई स्वीकार कर ले कि परमात्मा ही सब कुछ कर रहा है तो दुख मिट जाता है और जिस मात्रा में यह विचार सघन होता चला जाएगा, गहरा होता जाएगा और जितनी मात्रा में अहंकार विसर्जित होता जाता है, उतनी मात्रा में दुख दूर होता जाता है।

 भाग्यवादी विचारधारा के साथ लोगों ने धोखाधड़ी से काम लिया है, क्योंकि इस विचार के साथ पूरी तरह डूब जाना कठिन है। अकसर लोग होशियारी से काम लेते हैं। जब तक हमसे कुछ बन सकता है, हम करते हैं परंतु जब विफल होते हैं तो हम भाग्य को दोषी ठहराते हैं। आदमी का मन बहुत चालाक है। नेपोलियन बोनापार्ट ने अपनी पत्नी को एक पत्र लिखा था कि मैं भाग्य पर भरोसा नहीं करता हूं,मै पुरुशारुर्थी हूं, लेकिन भाग्यवाद बिना माने भी नहीं चलता, क्योंकि अगर भाग्यवाद को न मानें तो दुश्मन की सफलता पर अपने मन को कैसे समझाएंगे।

आदमी अपनी सफलता पुरुषार्थ से समझता है और दुश्मन की सफलता भाग्य से। व्यक्ति का अपनी हार स्वीकार करने का मन नहीं होता है। वह जीत के लिए ही उत्सुक होता है इसलिए अकसर हारे हुए विफल आदमी भाग्यवादी सिद्धांत आसानी स्वीकार कर लेते हैं कि परमात्मा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता, लेकिन इस व्यक्ति के लिए यह सिद्धांत व्यर्थ है, क्योंकि भाग्यवाद दिलासा देने का उपाय मात्र नहीं है। यह तो साधना का सूत्र है। जीवन को देखने का ढंग है। जहां सारा कर्ता भाव परमात्मा पर छोड़ दिया जाता है। भाग्यवाद एक विधि है, जीवन को रूपांतरित करने की, अहंकार को गला डालने की, जिससे जीवन निश्छल, निर्मल व निष्कलंक हो जाता है। यह एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है।

आज के पुरुषार्थवादी युग में जहां अहं तुष्टि के संस्कार और भोगवादी संस्कृति के प्रचार-प्रसार का आधिक्य हो, वहां ऐसी समझ दुर्लभ है। व्यक्ति के पास सारा तनाव और चिंता इसलिए है कि वह सोचता है कि मैं कर रहा हूं। इसलिए आदमी ज्यादा परेशान है। भारतीय चिंतन मानता है और पश्चिमी विचार है कि सब मनुष्य कर रहा है, तो मनुष्य को उत्तरदायी होना पड़ेगा फिर उसका तनाव और बेचैनी कैसे कम होगी। भारत की धारणा बिल्कुल भिन्न है। यहां गीता में कृष्ण ने अर्जुन को समझाया है कि जिसको तू सोच रहा है मारेगा, उन्हें तो मैं पहले ही मार चुका हूं। नियति सब कुछ तय कर चुकी है, तू निमित्त मात्र है और तू भी नियति का ही अंश है। आज के इस मनोरोगी विश्र्व में जहां सर्वत्र हिंसा प्रतिहिंसा और अनिश्र्चतता का भयावह वातावरण है, मशीनीकरण के इस युग में मानव मस्तिष्क भी यंत्रवत हो गया है। उसकी नैसर्गिक संवेदनाएं शून्य होती जा रही हैं। इस स्थिति में भारत को अपनी पूर्व विचारधाराओं को जाग्रत कर विश्र्व का मार्गदर्शन करना होगा। हमें यह समझना होगा कि पुरुषार्थवादियों ने ही विश्र्व को बारुद के ढेर पर रख दिया है।

रमेश चिंतक

कानपुर

1 comment:

  1. सरल भाषा मे गंभीर विषय को उपस्थित किया ।।
    साधुवाद

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