Sunday, April 1, 2012

वेदान्त के प्रकाण्ड विद्वान " श्रीहर्ष " - by Swami Mrigendra Saraswati

वेदान्त के प्रकाण्ड विद्वान " श्रीहर्ष " -
by Swami Mrigendra Saraswati

वेदान्त के प्रकाण्ड विद्वान " श्रीहर्ष " { खण्डनखण्डखाद्य ग्रन्थ के रचनाकार } । इनके पिता वेदान्त के प्रकाण्ड विद्वान थे और कन्नौज राज्य के मुख्य पण्डित थे । उस काल मेँ " उदयनाचार्य " न्याय के एक प्रकाण्ड पण्डित हुए । उदयनाचार्य ने श्रीहर्ष के पिता से कहा कि " हम तुमसे शास्त्रार्थ करेँगे । " उदयना चार्य बड़े विद्वान भी थे और बड़े भक्त भी थे लेकिन " नैयायिक " होने के कारण कट्टर द्वैतवादी थे । बड़े अच्छे भक्त थे लेकिन द्वैतवादी थे । सभा बैठी हुई थी , शास्त्रार्थ हुआ । शास्त्रार्थ मेँ श्रीहर्ष के पिता यद्यपि वेदान्त के पक्ष को लिये हुए थे लेकिन उदयनाचार्य से वे हार गये , क्योँकि शास्त्रार्थ बुद्धि का खेल है और विद्वान् उदयनाचार्य प्रकाण्ड थे । उस काल मेँ राजा ही धर्म का निर्णायक होता था । श्रीहर्ष के पिता जी बड़े दुःखी होकर घर आये । उस समय कान्यकुब्ज बहुत बड़ा राज्य था । भारत मेँ उसका स्थान प्रायः सम्राट जैसा था । श्रीहर्ष के पिता को मन मेँ बड़ा दुःख हुआ कि " मैँ ऐसा नालायक निकला कि मैने वेदान्त पक्ष को हारने दिया । अब राजा सर्वत्र द्वैतवाद का प्रचार करेगा । " नियम था कि शास्त्रार्थ मेँ जो विजयी हो जाये , चूँकी विचार के द्वारा निर्णय होता था , इसलिये वही ठीक है ऐसा निश्चय किया जाता था । जैसे कोई बहुत बड़ा सेनाध्यक्ष हो और उसकी किसी सैन्य व्युहरचना मेँ कोई खराबी आ जाने से वह बड़ा भारी युद्ध हार जाये तो उसके हृदय मेँ बड़ी चोट लगती है कि " मैँने अपने देश को अपनी गलती से खराब कर दिया " , इसी प्रकार धर्म के आचार्य का शास्त्र और बुद्धि ही सैन्यव्युह है , उसमेँ कोई विरोधी जीत जाये तो उसके मन मेँ भी होता है कि " मैँने अपने धर्म को अपनी बेवकूफी से नष्ट कर दिया है । " उसे हृदय मेँ कसक होती है । लेकिन जिसके हृदय मेँ यह कसक नहीँ होती , देश प्रेम नहीँ होता है , वह व्याख्या दिया करता है कि मैँ अमुक - अमुक कारणोँ से हार गया । इसी प्रकार जहाँ धर्म के प्रति कसक नहीँ होती , वह बैठकर बातेँ करता है कि हिन्दुस्तान के हिन्दु धर्म के पतन का क्या कारण है । कोई कहेगा छुआछूत कारण है , कोई कहेगा कि गरीबोँ की मदत नहीँ करते यह कारण है । ये सब बाते तो करेँगे लेकिन स्वयं कोई कदम नहीँ उठायेँगे । यदि मानते हैँ कि छुआछूत कारण है तो आपने उसे हटाने के लिये क्या किया है ? यदि आप मानते हो कि गरीबोँ के प्रति हमारी दृष्टि नहीँ थी तो उसके लिये क्या आपने अपनी आमदनी का आधा रुपया निकालकर मदत करने के लिये दे दिया ? जैसे देशद्रोही सेनाध्यक्ष ऐसे ही धर्म - द्रोही विद्वान भी हुआ करते हैँ । लेकिन श्रीहर्ष के पिता ऐसे नहीँ थे । उन्हेँ इस बात का बड़ा दुःख हुआ कि वेदान्त धर्म , अद्वैतवाद की जगह अब द्वैती जीतेँगे । उदयनाचार्य वहाँ सभापण्डित बन गया । घर वापिस आकर श्रीहर्ष के पिता के मन मेँ इतना दुःख हुआ कि सप्ताह भर मे उनका शरीर छूट गया । उनका दो साल का पूत्र था । मरने से पहले अपनी पत्नी से कहा कि " मैँ तो वह दिन नहीँ देखूँगा , क्योँकि मेरे से अब सहन नहीँ होगा , लेकिन मेरे पुत्र को तुम अच्छी तरह तैयार करना । मैँ तेरे को वह मन्त्र बता जाता हूँ , पाँच वर्ष की उम्र मेँ इसका उपनयन करा देना और उसी दिन इस मन्त्र को इसे देकर इसे किसी शव पर बैठाना । शव पर बैठकर रात भर यह इस मंत्र का जप करता रहे तो इसे वाक् सिद्धि हो जायेगी और यह फिर वेदान्त - ध्वज को ऊँचा करेगा । वे तो उसी दिन मर गये ।
तीन साल बाद श्रीहर्ष पाँच साल का हो गया । माँ सोचने लगी कि " मैँ इसे शव पर कैसे बैठाऊँ ? यदि बैठा भी दिया तो इसे डर लगेगा । " लेकिन पति की आज्ञा थी कि जिस दिन उपनयन हो , उसी दिन यह भी कार्य करना । वह भी पूर्ण धर्मनिष्ठा वाली थी क्योँकि ऐसे पति की पत्नी थी । " हे मेरे नारायण ! " उसने जहर खा लिया और श्रीहर्ष को अपनी छाती पर बैठाकर कहा कि " रात भर इस मन्त्र का जप करते रहधा । " बेटे को इस बात का क्या पता था , वह तो माँ की छाती पर बैठा था , थोड़ी देर मेँ वह मर गई और वह रात्री भर जप करता रहा । प्रातःकाल चार बजे " भगवती वाणी " { श्रीमाता वाग्देवी } ने दर्शन दिया और बड़े प्रेम से स्पर्श करके कहा " बेटा क्या चाहिये ? " श्रीहर्ष ने कहा " मुझे पता नहीँ माँ से पूछो । " भगवती वाणी की आँख से पानी आ गया , कहा " अब तेरी माँ नहीँ रही । आज से " श्रुति " ही तेरी माता है । श्रुति का कोई मन्त्र ऐसा नहीँ होगा जो तुमको उपस्थित नहीँ होगा । " भगवती ने यह वर दिया , कहा कि " अब तुम सीधे कान्यकुब्जेश्वर के यहाँ जाकर उदयनाचार्य के साथ शास्त्रार्थ करना । मैँ ही तेरी वाणी पर बैठकर शास्त्रार्थ करूँगी । " भगवती के स्पर्श से उसके हृदय मेँ विद्या का प्रादुर्भाव हुआ । वहाँ से गया और जाकर राजा के द्वारपाल से कहा कि " मैँ सभापण्डित उदयन से शास्त्रार्थ करना चाहता हूँ , राजा को खबर कर दो । " द्वारपाल हँस पड़ा और बच्चे को प्यार करने लगा जैसे छोटे बच्चे को करते हैँ । श्रीहर्ष ने कहा " मैँ ऐसे ही बात नहीँ कर रहा हूँ । " द्वारपाल श्रीहर्ष को लेकर राजा के पास पहुँचे और राजा ने देखा कि सुन्दर लड़का है , यज्ञोपवीत धारण किये हुये , भस्म लगा हुआ है । द्वारपाल ने राजा से कहा कि यह कहता है कि " मैँ सभापण्डित उदयन से शास्त्रार्थ करना चाहता हूँ । श्रीहर्ष झट से बोला " सभापण्डित नहीँ , उदयन से शास्त्रार्थ करूँगा ! मैँ उसे सभापण्डित नहीँ मानता । वह तो मैँ उसे शास्त्रार्थ के बाद मानूँगा । " राजा ने कहा " तेरे को किसने बताया है ? " कहा " इन सब बातोँ मेँ कुछ नहीँ रखा , राजन ! इन्हेँ मेरे सामने बैठाओ , मैँ शास्त्रार्थ करूँगा । " श्रीहर्ष ने देववाणी संस्कृत मेँ जबाब दिया तो उदयनाचार्य भी कुछ घबराये कि यह छोटा - सा बच्चा कैसे बोलता है ! अगले दिन शास्त्रार्थ का समय तय हुआ । सब समझे कि यह कोई तमाशा होगा । लेकिन 28 दिनोँ तक शास्त्रार्थ हुआ । सब आश्चर्यचकित हो गये कि यह कैसा लड़का है । श्रीहर्ष ने उदयन को शास्त्रार्थ मेँ हरा दिया और वेदान्त की ध्वजा फहराया । तब उसने बताया " मेरे पिता अमुक थे । तुने उनका अपमान किया , इसलिये मैँने यह किया । मुझे तुमसे कोई द्वेष नहीँ है । " फिर उन्होने वेदान्त - ग्रन्थोँ और अन्य ग्रन्थो की रचना की । साहित्य का ग्रन्थ उन्होँने पहले - पहले लिखना शुरु किया तो अपने मामा , जो साहित्य के बड़े विद्वान थे , उन्हेँ अपना ग्रन्थ दिखाया । मामा जी ग्रन्थ को देगर पहले तो बड़े प्रसन्न हुए और फिर रोने लगे ! श्रीहर्ष ने पृछा तो कहा " मेरे काल मेँ मेरा भांजा इतनी तीक्ष्ण प्रतिभा वाला उत्पन्न हुआ इससे मेरे को बड़ी प्रसन्नता हुई और रोया इसलिये कि तेरी किताब बाँचेगा कौन ? मेरे जैसा साहित्य - मीमांसक एक - एक श्लोक को पचास - साठ बार पढ़ता है तो समझ मेँ आता है । बाकी कौन ऐसा है जो तेरी किताब बाँचेगा । इसलिये मुझे दुःख हुआ । उनके " खण्डनखण्डखाद्य " ग्रन्थ को समझना महान् कठिन है । आज भी इस महान् ग्रन्थ पर किसी भी विद्वान ने अपना टीका नहीँ लिख सके ।
माँ भारती सपुत को शत - शत प्रणाम करता हूँ ।

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Swami Mrigendra Saraswati
श्रीहर्ष के पिता ने अपनी पत्नी को चिंतामणि मन्त्र दिया था - चिंतामणि एक मंत्र है ! भगवान आचर्य शंकर ने चिंतामणि मन्त्र बताया है " माया श्री विलसत चिदम्बरपुरं " मायाबीज ह्रीं श्रीं , और " नमः शिवाय " चिदम्बर मन्त्र है ! " ह्रीं श्रीं नमः शिवाय " चिंतामणि मन्त्र है !चिंतामणि मन्त्र की प्राप्ति तब हो , जब शव के ऊपर बैठकर इसे जपा जाये !श्री हर्ष ने माता के शव पर बैठकर जप किया था ! माता [ प्रमाता } का अर्थ " जानने वाला ' होता है !जब तक प्रमाता के देह को [ प्रमाता - भाव को } समाप्त साधक नही करता तब तक चिदम्बर या चिंतामणि मंत्र की प्राप्ति नहीं होती !जब साधक प्रमाता भाव को खत्म कर देता है तब अन्वेषण करके पता लगता है की यह प्रमाता नहीं है ! तब न कुछ क्रिया रह जाती है और न कुछ जानने को रह जाता है ! भगवान वार्तिककार आचार्य सुरेश्वर कहते है की जो कुछ भी करने की इच्छा थी वह सब मैंने कर लिया !" नारायण " , यह अनुभूति है !यह नहीं की करके क्या होगा !

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