Thursday, April 26, 2012

>" क्या प्रकृति बदली जा सकती है " ? by Swami Mrigendra Saraswati


" क्या प्रकृति बदली जा सकती है " ? ______________________ by Swami Mrigendra Saraswati नारायण ! पदार्थ अपने स्वभाव को कभी छोड़ता है ? " नही । " , पदार्थ अपने स्वभाव को स्वभाव को कभी नही छोड़ता । मरण - रहित है तो कभी मरने वाला नहीँ हो सकता । अत्यन्तधन्य कारिकारूपी भगवान् श्री गौड़पादाचार्य कहते हैँ - " न भवत्यमृतं मर्त्यँ न मर्त्यममृतं तथा । प्रकृतेरन्यथाभावो न कथंचिद् भविष्यति ।। जैसे जो अमृत है , मरण रहित है वह कभी भी मरने वाला नहीँ हो सकता । उसी प्रकार जो मर्त्य है वह अमृत नहीँ हो सकता । यह सभी वादियोँ के द्वारा स्वीकार किया हुआ सिद्धान्त है कि जो प्रकृति है वह कभी बदल जाये , यह नहीँ हो सकता । किसी भी प्रकार से प्रकृति नहीँ बदली जा सकती । गीताकार भगवान् श्री यशोदानन्दन ने स्वयं गीता मेँ गाया है - " प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः कि करिष्यति " प्रकृति कभी भी बदल नहीँ सकती । इस दृष्टि से व्यवहार वेदान्ती मानता है कि किसी भी चीज़ की प्रकृति का अध्ययन कर लो और अध्ययन करने के बाद उसके लाभ तो उठा लो , लेकिन उसके नियमोँ को आप हटा नहीँ सकते । सारे के सारे विज्ञान का यही बीज है । अंधविश्वास तो यह मानना है कि हम लोग इच्छा से पदार्थोँ के स्वभाव बदल सकते हैँ । जितने हमारे टोने टोटके हैँ उन सबका आधार यही है । अंधविश्वासी मानता है कि पदार्थोँ के स्वभाव का परिवर्तन किया जा सकता है । वेदान्त और जितने भी दर्शन है , न्याय , वैशेषिक , सांख्य , योग , सब इस बात को स्वीकार करते हैँ , और इस बात को विज्ञान भी कहता है , कि प्रकृति का अन्यथा - भवन नहीँ हो सकता । मान लेँ कोई व्यक्ति बैठा हुआ अकस्मात हाँथ मेँ कोई चीज़ आपको लाकर दिखा देता है । वेदान्ति कहेगा कि इसने दिखाया तो ठीक है , लेकिन इसके पीछे कोई प्राकृतिक कारण है । जिसे ढूँढो तो पता लगेगा , और उसे बनाने की प्रक्रिया है तो सब बना सकते हैँ । ऐसा नहीँ हो सकता कि एक बनाये और दूसरा कोई न बना सके । यह तो हो सकता है कि प्रक्रिया कठीन हो , मुश्किल से आये । यहाँ तक भी मान लेँगे कि प्रक्रिया का पता न हो , क्योँकि किसी - किसी मेँ जन्म से ही सामर्थ्य होती है । लेकिन यदि इसके पीछे कोई कारण नहीँ है और यह कहता कि " केवल मैँ बना सकता हूँ " तो निश्चित समझे कि धोखा है , माया या बाजीगर का खेल है । यह जो वेदान्त की दृष्टि है " प्रकृतेः अन्यथाभावः न कथंचिद् भविष्यति " , यह सब प्रकार के अंधविश्वासोँ के विरुद्ध और हर चीज़ की वैज्ञानिक दृष्टि है । किसी चीज़ को ना हम नहीँ करते हैँ , " ऐसा नहीँ होता " यह कहना वेदान्ती का काम नहीँ , लेकिन यह वह निश्चित जानता है कि उसका पता लगायेँ तो मालूम पड़ जायेगा कि इस कारण से इस प्रकार उपत्ति होती है । इस बात को लोग भूलते हैँ तो तरह - तरह के अंधविश्वास , टोने - टोटके मानते रहते हैँ क्योँकि वे समझते हैँ कि पदार्थोँ के स्वभाव बदलते रहते हैँ । आचार्य भाष्यकार शङ्कर ने एक विलक्षण बात कही है - पारस लोहे को छूता है तो सोना बन जाता है । आचार्य ने कहा है कि कालान्तर मेँ वह फिर लोहा रह जाता है यह क्योँ भूलते हो ? अब तक सबके मन मेँ बैठा हुआ है कि पारस ने छूआ तो सोना हो गया । इस दृष्टि से कहते है मानो सुनने वालोँ को सबको पता है । इसलिये कहते हैँ कि बाद मेँ फिर वह लोहा का लोहा रह जाता है , यह क्योँ भूलते हो ? इसका मतलब है कि जितनी प्रसिद्ध है सब काल्पनिक है । थोड़े समय के लिए सोने की तरह दिखता है , दूसरे को धोखा भले दे लो , वह फिर रोता रहेगा । प्रकृति किसी भी पदार्थ की अन्यथा नहीँ हो सकती । संसार मेँ कहीँ भी देखने मेँ नहीँ आता कि जो मरण - धर्मा है वह अमरण - धर्मा और जो अमरण - धर्मा है वह मरण - धर्मा हो जाये । ऐसा नहीँ होता है । इसलिये प्रकृति का अर्थ कर दिया स्वभाव क्योँकि प्रकृति के कई अर्थ हैँ । सृष्टि के कारण को भी प्रकृति कहते हैँ , मनुष्य को भी कह देते है कि क्रोधी प्रकृति का है । लेकिन यहाँ प्रकृति का वह तात्पर्य नहीँ है । प्रकृति अर्थात् स्वभाव किसी का क्रोधी नहीँ हुआ करता है । वह तो दिमाग का सीखा हुआ एक प्रकार है । उस प्रकार से दिमाग शिक्षित हो गया तो वैसा करता है । उस दिमाग को दूसरी तरफ बदल देँगे तो क्रोध निवृत हो जायेगा । इसलिये क्रोधी स्वभाव नहीँ है । जो बड़े से बड़ा क्रोधी हो उसे आप कहो कि " क्रोध दिखा " , तो वह नहीँ दिखा सकता। कहता है कि " ऐसे थोड़े ही क्रोध आता है , कोई बात होगी तब आयेगा । क्रोध का स्वभाव नहीँ होता । किसी कारण से क्रोध आया करता है । जब हम कहते हैँ क्रोधी स्वभाव का है तॅ उसका केवल तात्पर्य होता है कि जहाँ कारण क्रोध का नहीँ है वहाँ भी क्रोध कर लेता है । इसलिये जहाँ हँसी की कोई बात हो , वहाँ भी कोध कर लेता है क्योँकि उसे सिखाया नहीँ गया कि जीवन मेँ कैसे रहना चाहिये । जिसने यह नहीँ सीखा होगा वह जहाँ काम की वृत्ति नहीँ करनी है वहाँ भी कामुकता की वृत्ति करेगा । रास्ते मेँ मोटर देखकर कहेगा कि " मेरी होती तॅ बड़ा अच्छा था " । यह शिक्षा का मूल है । थोड़ी सी किसी ने अपनी बात नहीँ मानी , मन के लायक काम नहीँ किया तो क्रोध हो गया । कारण कि शिक्षा गलत है । यह विचार नहीँ करता कि " मैँ दूसरे के मन लायक कितना काम करता हूँ जो दूसरे मेरे लायक करे ? " या " मेरे पदार्थ को दूसरा इस प्रकार नज़र लगायेगा तो मुझे अच्छा नहीँ लगेगा तो मैँ दूसरे के पदार्थ पर नज़र क्योँ लगाऊँ ? " नज़र लगने का मतलब बस इतना ही है , बाकी " नज़र लगना " तो सब अंधविश्वास है । " यह चीज़ मेरी हो जाये " यही नज़र लगना है । इसलिये काम , क्रोध का " स्वभाव " तो शिक्षा के मूल से है । उसे ठीक ढंग से शिक्षा नहीँ मिली , बस और कुछ नहीँ है । कुछ हमने देखा है कि क्रोध का कारण सांस्कृतिक भी होता है । कुछ कल्पनायेँ हम लोगोँ के बचपन से मनवा दी जाती है जिससे क्रोध होता रहता है । जैसे मान लेँ हमेँ बचपन से समझाया है कि हमारे सामने आते ही अमुक को हट जाना चाहिये , नहीँ हटता है तो नालायक है । यह चूँकी संस्कार पड़ा हुआ है इसलिये लोगो को हमने कहते सुना है कि " देखिये विश्वनाथ जी गली मेँ सफाई करने वाले गली के बीच मेँ खड़े ही रहते हैँ , एक तरफ नहीँ होते । " यह सांस्कृतिक कारण हुआ । आगे उनसे कोई कहे कि " सड़क तेरे बाप की है ? जैसे सड़क पर अधिकार उसका वैसे ही तेरा । तेरा अधिकार बढ़ कैसे गया ? कोई संविधान मेँ थोड़े लिखा है । " उसका जवाब है कि हमारी संस्कृति है । यह संस्कार के कारण है । बहुत से क्रोधोँ को यदि देखेँगे तो उसका आधार केवल सांस्कृतिक है । एक ब्राह्मण लड़का है , वह पाँच साल पहले अमेरीका चला गया । अब वह किसी लड़की से व्याह करना चाहता है । यह खबर सुनते ही उसके पिता को हार्ट अटैक हो गया और माता मुर्च्छित हो गई । हमसे कहा कि स्वामी जी उसे समझायेँ । हमने कहा कि जब वह यहाँ से जा रहा था तब हमने कहा था कि उसका व्याह करके भेजो , तब तुमने कहा था कि " बिना बड़े का किये छोटे का कैसे करेँ ? " ठीक है । तो तुम उसे यही रखते । तुमने अपनी संस्कृति छोड़कर उसे विदेश भेज दिया । संस्कूति का यह हिस्सा तो माना कि " बिना बड़े का व्याह किये छोटे का कैसे करेँ " , " समुद्र लंघन मत करो " यह नहीँ माना। अब जब उसका परिणाम सामने आया तो कहते हो कि " हम मर जायेँगे , उसे समझाइये । " यह तुम्हारी सांस्कृतिक मान्यता का मूल है । बहुत से हम लोगोँ के जो क्रोध हैँ वे सांस्कृतिक कारणोँ से है । गलत ढ़ंग से संस्कृति हमेँ सिखा दी जाती है और वही हमारे क्रोधोँ का कारण बनती रहती है। यहाँ प्रकृति का मतलब स्वभाव किया , जिसे साधारण भाषा मेँ स्वभाव कहते हैँ । स्वभाव हमारा जानने का है तो कोई समय ऐसा नहीँ जब हम जानते न होँ । वह अपने स्वरूप से गिर जाये , यह कभी नहीँ हो सकता । यह स्वभाव है । जैसे अग्नि का स्वभाव गर्म होना है तो वह कभी ढंड़ी नहीँ हो सकती अन्यथा उसका स्वरूपनाश - प्रसंग हो जायेगा । " भू सत्तायाम् " धातु से निष्पन्न स्वभाव शब्द है । धातु क्रिया को बताता है और यहाँ उस क्रिया करने वाली चीज़ का नाम स्वरूप है । जैसे अग्नि का स्वभाव गर्मी अर्थात् जलना उसका स्वरूप है । समाप्त ,,,,! श्री नारायण हरिः !!

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