Wednesday, June 20, 2018

महा महोपाध्याय श्री गोपीनाथ कविराज जी के विचार

विचारक चिन्तक श्री गोपीनाथ जी कविराज के विचार :
मनीषी की लोकयात्रा : प्रथम संस्करण : पृष्ठ ३४३ से उद्दृत :

...सुक्ष्मदेह से जो स्थूलदेह का सम्बन्ध है वही जन्म है और सुक्ष्मदेह से स्थूलदेह का अलग हो जाना ही मृत्यु है ! सुक्ष्मदेह का स्थूलदेह में आये बिना भोग आदि क्रिया समर्थ नहीं होती !
स्थूलदेह में जो कुछ कर्म या भोग आस्वादन किया जाता है, सबका संस्कार सुक्ष्मदेह में संचित रहता है !
यह सुक्ष्मदेह अनादी काल से चला आता है और जब तक मोक्ष न होगा तब तक रहेगा !
परन्तु स्थूलदेह निरंतर आवागमन करता है ! यह जन्म मरण कालचक्र में घूमता रहता है ! आत्मस्वरूप ज्ञान का उदय होने पर वह  आवागमन रहित हो जाता है ! कर्म संस्कार जो संचित रहता है वह अतीत संस्कारों से आया हुआ है, उसकी निरंतर वृद्धि होती रहती है !
अभिमान शील जीव संस्कार के कारण कर्म करके फिर अभिनव संस्कार का उत्पादन करता है ! भोग से कुछ पूर्व संस्कार कट जाते है, किन्तु अभिमान से कुछ अभिनव संस्कार उत्पन्न भी होते रहते है ! क्रियमाँण कर्म अभिनव कर्म का नामान्तर है ! संचित कर्म उसी का फल है !
इस संचित कर्म में कुछ अंश वर्तमान देह्भोग के लिए अलग हो जाता है ! उसको प्रारब्ध कर्म कहते है ! वह संचित कर्म का ही अंश है !
प्रारब्ध से जन्म, आयु, और भोग की निष्पत्ति होती है ! यह मृत्यु के समय में प्रकट होता है ! उसी के द्वारा आगामी जन्मादी नियंत्रित होते है !
आत्म ज्ञान का उदय होने पर भी साधारण दृष्टि से अज्ञान का आवरणानंश नष्ट हो जाता है परन्तु विक्षेपांश रह जाता है ! उसी को प्रारब्ध की संज्ञा दी गयी है !
इसे भोग द्वारा समाप्त करना पड़ता है ! हाँ अत्यंत तीव्र ज्ञान, उत्कट भक्ति या श्रेष्ठ योग कर्म, प्रारब्ध को भी समाप्त कर सकता है किन्तु वह सबके लिए सम्भव नहीं !!

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