Wednesday, June 20, 2018

श्री महा महोपाध्याय गोपीनाथ कविराज के विचार

विचारक चिन्तक श्री गोपीनाथ जी कविराज के विचार :
मनीषी की लोकयात्रा : प्रथम संस्करण : पृष्ठ ३३२,३३३,३४६,३४८ से उद्दृत

कर्तृत्वाभिमान प्रयास करके छोड़ना, व्याकुल दृष्टि से ईश्वर की शरणागति !! प्रथम सोपान
व्याकुल दृष्टि से ईश्वर की शरणागति ! इसके लिए ध्यान, योग, प्रार्थना, व्याकुलता के सीमा तक जाकर शरणागति भाव में रहना !! यह द्वितीय सोपान है !!
ईश् कृपावश, शरणागति भाव में रहते हुए निरंतरता बनाये रख पाना साध्य हो सकता है ! यह तृतीय सोपान है !!
इसके उपरांत परमेश्वर की परम अनुग्रह रहने पर उन्मनी अवस्था का उदय होता है ! उन्मनी शक्ति का आविर्भाव होने के बाद स्वत:एव तिरोभाव हो जाता है उसके अनन्तर आत्मा को परमेश्वरत्व प्राप्त हो जाता है !
अध्यात्म मार्ग का परम लक्ष्य है भगवत प्राप्ति ! इसके लिए प्रारम्भ में उपाय का अवलंबन करना आवश्यक है !
अपनी प्रकृति के अनुसार धारा ज्ञान, भक्ति, अथवा योग (कोई भी क्यों न हो) कर्म के अतिरिक्त किसी से भी उद्देश्य की सिद्धि नहीं हो सकती !! कर्म में प्रवृती अभिमान की प्रेरणा से होती है ! शरीरधारी प्रतिक्षण कर्म करता रहता है !.... कर्म में जो बंधन की आशंका है उससे मुक्त रहना अथच कर्म करना है !
बंधन का कारण है चित्त का मालिन्य जिसका हेतु है फलाकांक्षा ! साधारणत: सभी मनुष्य फल की आकांक्षा करके ही कर्म करते है, यह कामना चित्त को मलिन करती है ! फल मिले चाहे न मिले उसकी प्राप्ति की इक्क्षा चित्त को कलुषित करती है !! इसलिए कर्तव्यबोध त्याग करकर्म करना चाहिए ! इसी का नाम है योगस्थ कर्म !!
इसमें आसक्ति नहीं रहती और सिद्ध तथा असिद्ध में सम भाव रहता है ! यह समत्व ही योग है !!
इस प्रकार कर्म करते करते चित्त प्रायः शुद्ध हो जाता है ! उस अवस्था में अभिमान शिथिल हो जाने के कारण नाना प्रकार के कर्म करने में सामर्थ्य नहीं रहता !! आत्मा असमर्थता का अनुभव करती है !!
इस दशा में शिथिल हो जाने पर भी अभिमान लेशमात्र रह जाता है ! उसे निःशेष करने के लिए भी कर्म करने की आवश्यकता रहती है ! ऐसे समय में और कुछ करने में ध्यान न देकर परमेश्वर का आश्रय करना ही सर्वोत्त्कृष्ट कर्म है ! यथार्थ सन्यास भी यही है !!
किसी प्रकार के विशिष्ट कर्म में लिप्त न होकर एक मात्र परमात्मा की ओर दृष्टि देकर उन्ही को ध्यान में रखना शरणागति धर्म का नित्य लक्षण है !! ऐसा होने पर शनैः शनैः कर्म छुट जाता है ! जब तक साधक के मन में अभिमान का आभास भी रहता है तब तक उसे कर्म करना ही पड़ता है !
भगवन को सर्वतोभावेन आश्रयरूपेण वरण करने में मन लगा देने से शरणागत साधक का कर्तृत्वभाव से छुटकारा मिल जाता है !!
भगवान की मुख्य कृपा का प्रकाश तब है जब साधक निश्चिन्त शिशु के सामान द्रष्टाभाव लेकर श्री भगवान के चरणों में स्थिति लाभ करता है !!

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